श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः।

निर्वैरः सर्वभूतेषु यः स मामेति पाण्डव।।11.55।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।11.55।।अब समस्त गीताशास्त्रका सारभूत अर्थ संक्षेपमें कल्याणप्राप्तिके लिये कर्तव्यरूपसे बतलाया जाता है --, जो मुझ परमेश्वरके लिये कर्म करनेवाला है और मेरे ही परायण है -- सेवक स्वामीके लिये कर्म करता है परंतु मरनेके पश्चात् पानेयोग्य अपनी परमगति उसे नहीं मानता और यह तो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला,और मुझे ही अपनी परमगति समझनेवाला होता है? इस प्रकार परमगति मैं ही हूँ ऐसा जो मत्परायण है। तथा मेरा ही भक्त है अर्थात् जो सब प्रकारसे सब इन्द्रियोंद्वारा सम्पूर्ण उत्साहसे मेरा ही भजन करता है? ऐसा मेरा भक्त है। तथा जो धन? पुत्र? मित्र? स्त्री और बन्धुवर्गमें सङ्ग -- प्रीति -- स्नेहसे रहित है। तथा सब भूतोंमें वैरभावसे रहित है अर्थात् अपना अत्यन्त अनिष्ट करनेकी चेष्टा करनेवालोंमें भी जो शत्रुभावसे रहित है। ऐसा जो मेरा भक्त है? हे पाण्डव वह मुझे पाता है अर्थात् मैं ही उसकी परमगति हूँ? उसकी दूसरी कोई गति कभी नहीं होती। यह मैंने तुझे तेरे जाननेके लिये इष्ट उपदेश दिया है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।11.55।। --,मत्कर्मकृत् मदर्थं कर्म मत्कर्म? तत् करोतीति मत्कर्मकृत्। मत्परमः -- करोति भृत्यः स्वामिकर्म? न तु आत्मनः परमा प्रेत्य गन्तव्या गतिरिति स्वामिनं प्रतिपद्यते अयं तु मत्कर्मकृत् मामेव परमां गतिं प्रतिपद्यते इति मत्परमः? अहं परमः परा गतिः यस्य सोऽयं मत्परमः। तथा मद्भक्तः मामेव सर्वप्रकारैः सर्वात्मना सर्वोत्साहेन भजते इति मद्भक्तः। सङ्गवर्जितः धनपुत्रमित्रकलत्रबन्धुवर्गेषु सङ्गवर्जितः सङ्गः प्रीतिः स्नेहः तद्वर्जितः। निर्वैरः निर्गतवैरः सर्वभूतेषु शत्रुभावरहितः आत्मनः अत्यन्तापकारप्रवृत्तेष्वपि। यः ईदृशः मद्भक्तः सः माम् एति? अहमेव तस्य परा गतिः? न अन्या गतिः काचित् भवति। अयं तव उपदेशः इष्टः मया उपदिष्टः हे पाण्डव इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये

एकादशोऽध्यायः।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।11.55।। हे पाण्डवन ! जो मेरे लिये ही कर्म करनेवाला, मेरे ही परायण और मेरा ही भक्त है तथा सर्वथा आसक्तिरहित और प्राणिमात्रके साथ निर्वैर है, वह भक्त मेरेको प्राप्त होता है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।11.55।। हे पाण्डव! जो पुरुष मेरे लिए ही कर्म करने वाला है, और मुझे ही परम लक्ष्य मानता है, जो मेरा भक्त है तथा संगरहित है, जो भूतमात्र के प्रति निर्वैर है, वह मुझे प्राप्त होता है।।