श्री भगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधःशाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम्।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित्।।15.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।15.1।।यहाँ पहले वैराग्यके लिये वृक्षस्वरूपकी कल्पना करके? संसारके स्वरूपका वर्णन करते हैं क्योंकि संसारसे विरक्त हुए पुरुषको ही भगवान्का तत्त्व जाननेमें अधिकार है? अन्यको नहीं। अतः श्रीभगवान् बोले --, ( यह संसाररूप वृक्ष ) ऊर्ध्वमूलवाला है। कालकी अपेक्षा भी सूक्ष्म? सबका कारण? नित्य और महान् होनेके कारण अव्यक्तमायाशक्तियुक्त ब्रह्म सबसे ऊँचा कहा जाता है? वही इसका मूल है? इसलिये यह संसारवृक्ष ऊपरकी ओर मूलवाला है। ऊपर मूल और नीचे शाखावाला इस श्रुतिसे भी यही प्रमाणित होता है। पुराणमें भी कहा है -- अव्यक्तरूप मूलसे उत्पन्न हुआ उसीके अनुग्रहसे बढ़ा हुआ? बुद्धिरूप प्रधान शाखासे युक्त? बीचबीचमें इन्द्रियरूप कोटरोंवाला? महाभूतरूप शाखाप्रतिशाखाओंवाला? विषयरूप पत्तोंवाला? धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पुष्पोंवाला तथा जिसमें सुख दुःखरूप फल लगे हुए हैं ऐसा यह सब भूतोंका आजीव्य सनातन ब्रह्मवृक्ष है। यही ब्रह्मवन है? इसीमें ब्रह्म सदा रहता है। ऐसे इसी ब्रह्मवृक्षका ज्ञानरूप श्रेष्ठ खड्गद्वारा छेदनभेदन करके और आत्मामें प्रीतिलाभ करके फिर वहाँसे नहीं लौटता इत्यादि। ऐसे ऊपर मूल और नीचे शाखावाले इस मायामय संसारवृक्षको? अर्थात् महत्तत्त्व? अहंकार? तन्मात्रादि? शाखाकी भाँति जिसके नीचे हैं? ऐसे इस नीचेकी ओर शाखावाले और कलतक भी न रहनेवाले इस क्षणभङ्गुर अश्वत्थ वृक्षको अव्यय कहते हैं। यह मायामय संसार? अनादि कालसे चला आ रहा है? इसीसे यह संसारवृक्ष अव्यय माना जाता है तथा यह आदिअन्तसे रहित शरीर आदिकी परम्पराका आश्रय सुप्रसिद्ध है? अतः इसको अव्यय कहते हैं। उस संसारवृक्षका ही यह अन्य विशेषण ( कहा जाता ) है। ऋक् यजु और सामरूप वेद? जिस संसारवृक्षके पत्तोंकी भाँति रक्षा करनेवाले होनेसे पत्ते हैं। जैसे पत्ते वृक्षकी रक्षा करनेवाले होते हैं? वैसे ही वेद धर्मअधर्म? उनके कारण और फलको प्रकाशित करनेवाले होनेसे? संसाररूप वृक्षकी रक्षा करनेवाले हैं। ऐसा जो यह विस्तारपूर्वक बतलाया हुआ संसारवृक्ष है? इसको जो मूलके सहित जानता है? वह वेदको जाननेवाला अर्थात् वेदके अर्थको जाननेवाला है। क्योंकि इस मूलसहित संसारवृक्षसे अतिरिक्त अन्य जाननेयोग्य वस्तु अणुमात्र भी नहीं है। सुतरां जो इस प्रकार वेदार्थको जाननेवाला है वह सर्वज्ञ है। इस प्रकार मूलसहित संसारवृक्षके ज्ञानकी स्तुति करते हैं। उसी संसारवृक्षके अन्य अङ्गोंकी कल्पना कही जाती है।
।।15.1।। -- ऊर्ध्वमूलं कालतः सूक्ष्मत्वात् कारणत्वात् नित्यत्वात् महत्त्वाच्च ऊर्ध्वम् उच्यते ब्रह्म अव्यक्तं मायाशक्तिमत्? तत् मूलं अस्येति सोऽयं संसारवृक्षः ऊर्ध्वमूलः। श्रुतेश्च -- ऊर्ध्वमूलोऽर्वाक्शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः (क0 उ0 2।6।1) इति। पुराणे च -- अव्यक्तमूलप्रभवस्तस्यैवानुग्रहोच्छ्रितः। बुद्धिस्कन्धमयश्चैव इन्द्रियान्तरकोटरः।।महाभूतविशाखश्च विषयैः पत्रवांस्तथा। धर्माधर्मसुपुष्पश्च सुखदुःखफलोदयः।।आजीव्यः सर्वभूतानां ब्रह्मवृक्षः सनातनः। एतद्ब्रह्मवनं चैव ब्रह्माचरति नित्यशः।।एतच्छित्त्वा च भित्त्वा च ज्ञानेन परमासिना। ततश्चात्मरतिं प्राप्य तस्मान्नावर्तते पुनः।। इत्यादि। तम् ऊर्ध्वमूलं संसारं मायामयं वृक्षम् अधःशाखं महदहंकारतन्मात्रादयः शाखा इव अस्य अधः भवन्तीति सोऽयं अधःशाखः? तम् अधःशाखम्। न श्वोऽपि स्थाता इति अश्वत्थः तं क्षणप्रध्वंसिनम् अश्वत्थं प्राहुः कथयन्ति अव्ययं संसारमायायाः अनादिकालप्रवृत्तत्वात् सोऽयं संसारवृक्षः अव्ययः? अनाद्यन्तदेहादिसंतानाश्रयः हि सुप्रसिद्धः? तम् अव्ययम्। तस्यैव संसारवृक्षस्य इदम् अन्यत् विशेषणम् -- छन्दांसि यस्य पर्णानि? छन्दांसि च्छादनात् ऋग्यजुःसामलक्षणानि यस्य संसारवृक्षस्य पर्णानीव पर्णानि। यथा वृक्षस्य परिरक्षणार्थानि पर्णानि? तथा वेदाः संसारवृक्षपरिरक्षणार्थाः? धर्माधर्मतद्धेतुफलप्रदर्शनार्थत्वात्। यथाव्याख्यातं संसारवृक्षं समूलं यः तं वेद सः वेदवित्? वेदार्थवित् इत्यर्थः। न हि समूलात् संसारवृक्षात् अस्मात् ज्ञेयः अन्यः अणुमात्रोऽपि अवशिष्टः अस्ति इत्यतः सर्वज्ञः सर्ववेदार्थविदिति समूलसंसारवृक्षज्ञानं स्तौति।।तस्य एतस्य संसारवृक्षस्य अपरा अवयवकल्पना उच्यते --,
।।15.1।। श्रीभगवान् बोले -- ऊपरकी ओर मूलवाले तथा नीचेकी ओर शाखावाले जिस संसाररूप अश्वत्थवृक्षको अव्यय कहते हैं और वेद जिसके पत्ते हैं, उस संसारवृक्षको जो जानता है, वह सम्पूर्ण वेदोंको जाननेवाला है।
।।15.1।। श्री भगवान् ने कहा -- (ज्ञानी पुरुष इस संसार वृक्ष को) ऊर्ध्वमूल और अध:शाखा वाला अश्वत्थ और अव्यय कहते हैं; जिसके पर्ण छन्द अर्थात् वेद हैं, ऐसे (संसार वृक्ष) को जो जानता है, वह वेदवित् है।।