श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।7.16।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।7.16।।परंतु जो पुण्यकर्म करनेवाले नरश्रेष्ठ हैं ( वे क्या करते हैं सो बतलाते हैं )

हे भारत आर्त अर्थात् चोर व्याघ्र रोग आदिके वशमें होकर किसी आपत्तिसे युक्त हुआ जिज्ञासु अर्थात् भगवान्का तत्त्व जाननेकी इच्छावाला अर्थार्थी यानी धनकी कामनावाला और ज्ञानी अर्थात् विष्णुके तत्त्वको जाननेवाला हे अर्जुन ये चार प्रकारके पुण्यकर्मकारी मनुष्य मेरा भजनसेवन करते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।7.16 7.19।।चतुर्विधा इत्यादि सुदुर्लभ इत्यन्तम्। ये तु मां भजन्ते ते सुकृतिनः। ते च चत्वारः। सर्वे चैते उदाराः। यतः अन्ये कृपणबुद्धयः आर्त्तिनिवारणम् अर्थादि च तुल्यपाणिपादोदरशरीरसत्त्वेभ्योऽधिकतरं वा आत्मन्यूनेभ्यो मार्गयन्ते। ज्ञान्यपेक्षया तु ते न्यूनसत्त्वाः यतः तेषां तावत्यपि भेदोऽस्ति भगवतः इदमहमभिलष्यामि इति भेदस्य स्फुटप्रतिभासात्। ज्ञानी तु मामेवाभेदतया अवलम्बते इति (S omits इति) ततोऽहमभिन्न एव। तस्य च अहमेव प्रियः न तु फलम्। अत एव स वासुदेव एव सर्वम् इत्येव (S वासुदेवः सर्वमेवम्) दृढप्रतिपत्तिपवित्रीकृतहृदयः।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।7.16।। हे भरतवंशियोंमें श्रेष्ठ अर्जुनव ! पवित्र कर्म करनेवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् प्रेमी -- ये चार प्रकारके मनुष्य मेरा भजन करते हैं अर्थात् मेरे शरण होते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।7.16।। हे भरत श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्म करने वाले (सुकृतिन:) आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी ऐसे चार प्रकार के लोग मुझे भजते हैं।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।7.16।। चतुर्विधाः चतुःप्रकाराः भजन्ते सेवन्ते मां जनाः सुकृतिनः पुण्यकर्माणः हे अर्जुन। आर्तः आर्तिपरिगृहीतः तस्करव्याघ्ररोगादिना अभिभूतः आपन्नः जिज्ञासुः भगवत्तत्त्वं ज्ञातुमिच्छति यः अर्थार्थी धनकामः ज्ञानी विष्णोः तत्त्वविच्च हे भरतर्षभ।।