श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं सङ्घातश्चेतनाधृतिः।

एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्।।13.7।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।13.7।।अब जिन इच्छा आदिको वैशेषिकमतावलम्बी आत्माके धर्म मानते हैं वे भी क्षेत्रके ही धर्म हैं आत्माके नहीं यह बात भगवान् कहते हैं --, इच्छा -- जिस प्रकारके सुखदायक विषयका पहले उपभोग किया हो? फिर वैसे ही पदार्थके प्राप्त होनेपर उसको सुखका कारण समझकर मनुष्य उसे लेना चाहता है? उस चाहका नाम इच्छा है? वह अन्तःकरणका धर्म है और ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र है। तथा द्वेष -- जिस प्रकारके पदार्थको दुःखका कारण समझकर पहले अनुभव किया हो? फिर उसी जातिके पदार्थके प्राप्त होनेपर जो उससे मनुष्य द्वेष करता है? उस भावका नाम द्वेष है? वह भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। उसी प्रकार सुख? जो कि अनुकूल? प्रसन्नतारूप और सात्त्विक है? ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है तथा प्रतिकूलतारूप दुःख भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। देह और इन्द्रियोंका समूह संघात कहलाता है। उसमें प्रकाशित हुई जो अन्तःकरणकी वृत्ति है जो कि अग्निसे प्रज्वलित लोहपिण्डकी भाँति आत्मचैतन्यके आभासरूपसे व्याप्त है? वह चेतना भी ज्ञेय होनेके कारण क्षेत्र ही है। व्याकुल हुए शरीर और इन्द्रियादि जिससे धारण किये जाते हैं? वह धृति भी ज्ञेय होनेसे क्षेत्र ही है। अन्तःकरणके समस्त धर्मोंका संकेत करनेके लिये यहाँ इच्छादि धर्मोंका ग्रहण किया गया है। जो कुछ कहा गया है? उसका उपसंहार करते हैं -- महत्तत्त्वादि विकारोंसे सहित क्षेत्रका यह स्वरूप संक्षेपसे कहा गया। अर्थात् जिन समस्त क्षेत्रभेदोंका समूह यह शरीर क्षेत्र है ऐसा कहा गया है? महाभूतोंसे लेकर धृतिपर्यन्त भेदोंसे विभिन्न हुए उस क्षेत्रकी व्याख्या कर दी गयी। जो आगे कहे जानेवाले विशेषणोंसे युक्त क्षेत्रज्ञ है? जिस क्षेत्रज्ञको प्रभावसहित जान लेनेसे ( मनुष्य ) अमृतरूप हो जाता है? उसको भगवान् स्वयं आगे चलकर ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि इत्यादि वचनोंसे विशेषणोंके सहित कहेंगे।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।13.7।। --,इच्छा? यज्जातीयं सुखहेतुमर्थम्? उपलब्धवान् पूर्वम्? पुनः तज्जातीयमुपलभमानः तमादातुमिच्छति सुखहेतुरिति सा इयं इच्छा अन्तःकरणधर्मः ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम्। तथा द्वेषः? यज्जातीयमर्थं दुःखहेतुत्वेन अनुभूतवान्? पुनः तज्जातीयमर्थमुपलभमानः तं द्वेष्टि सोऽयं द्वेषः ज्ञेयत्वात् क्षेत्रमेव। तथा सुखम् अनुकूलं प्रसन्नसत्त्वात्मकं ज्ञेयत्वात् क्षेत्रमेव। दुःखं प्रतिकूलात्मकम् ज्ञेयत्वात् तदपि क्षेत्रम्। संघातः देहेन्द्रियाणां संहतिः। तस्यामभिव्यक्तान्तःकरणवृत्तिः? तप्त इव लोहपिण्डे अग्निः आत्मचैतन्याभासरसविद्धा चेतना सा च क्षेत्रं ज्ञेयत्वात्। धृतिः यया अवसादप्राप्तानि देहेन्द्रियाणि ध्रियन्ते सा च ज्ञेयत्वात् क्षेत्रम्। सर्वान्तःकरणधर्मोपलक्षणार्थम् इच्छादिग्रहणम्। यत उक्तमुपसंहरति एतत् क्षेत्रं समासेन सविकारं सह विकारेण महदादिना उदाहृतम् उक्तम्।।

यस्य क्षेत्रभेदजातस्य संहतिः इदं शरीरं क्षेत्रम् इति उक्तम्? तत् क्षेत्रं व्याख्यातं महाभूतादिभेदभिन्नं धृत्यन्तम्। क्षेत्रज्ञः वक्ष्यमाणविशेषणः -- यस्य सप्रभावस्य क्षेत्रज्ञस्य परिज्ञानात् अमृतत्वं भवति? तम् ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि (गीता 13।12) इत्यादिना सविशेषणं स्वयमेव वक्ष्यति भगवान्। अधुना तु तज्ज्ञानसाधनगणममानित्वादिलक्षणम्? यस्मिन् सति तज्ज्ञेयविज्ञाने योग्यः अधिकृतः भवति? यत्परः संन्यासी ज्ञाननिष्ठः उच्यते? तम् अमानित्वादिगणं ज्ञानसाधनत्वात् ज्ञानशब्दवाच्यं विदधाति भगवान् --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।13.7।।इच्छा, द्वेष, सुख, दुःख, संघात, चेतना (प्राणशक्ति) और धृति -- इन विकारोंसहित यह क्षेत्र संक्षेपसे कहा गया है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।13.7।। इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, संघात (स्थूलदेह), चेतना (अन्त:करण की चेतन वृत्ति) तथा धृति -  इस प्रकार यह क्षेत्र विकारों के सहित संक्षेप में कहा गया है।।