श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।12.2।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।12.2।। अपने उत्तर के प्रारम्भ में ही भगवान् उन तीन अत्यावश्यक गुणों को बताते हैं? जिनके होने पर ही ईश्वर की भक्ति का निश्चित लाभ मिल सकता है। सामान्यत? लोगों की यह धारणा है कि भक्तिमार्ग अत्यन्त सरल है। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि जो साधक अपना जो मार्ग स्वयं चुनता है? उसके लिए वह मार्ग कठिन नहीं होता है। मार्गों की भिन्नता केवल प्रयुक्त साधनों अर्थात् उपाधियों के कारण ही है। एक नौका के द्वारा ग्राँडट्रंक रोड् की यात्रा नहीं की जा सकती है और न हवाई जहाज के द्वारा समुद्र यात्रा? और न ही साइकिल से साठ मील प्रति घंटे की गति से मार्ग तय किया जा सकता है प्रत्येक वाहन की अपनी सीमाएं हैं। परन्तु किसी भी साधन का बुद्धिमत्ता तथा सावधानीपूर्वक उपयोग करने से गन्तव्य तक पहुँचा जा सकता है। इसी प्रकार आत्मविकास के लिए भी प्रत्येक साधक उपलब्ध शरीर? मन और बुद्धि की उपाधियों में से किसी एक की प्रधानता से कर्मयोग या भक्तियोग या ज्ञानयोग के मार्ग को चुनता है। प्रत्येक साधक को अपना चुना हुआ मार्ग सबसे सरल प्रतीत होता है।मन को मुझमें एकाग्र करके मन और बुद्धि दोनों ही वृत्तिरूप हैं? जिन्हें सूक्ष्म शरीर कहा जाता है। यह पर्याप्त नहीं है कि मन की वृत्तियां आराम से भगवान् के रूप के आसपास विचरण करती रहें। उन्हें वास्तव में? उस रूप का भेदन करके? गहराई में प्रवेश कर अन्त में? पूर्णत्व के आदर्श के साथ एकरूप हो जाना चाहिए। वह रूप तो पूर्णत्व का केवल प्रतीक होता है।इस प्रक्रिया को यहाँ आवेश्य शब्द से सूचित किया गया है। इसका अर्थ रूप के साथ वृत्ति का स्पर्श मात्र नहीं? वरन् रूप का भेदन है। वस्तुत मनुष्य का मन अपने ध्येय विषय का आकार? सुगन्ध और गुणों की आभा भी धारण करता है? इस प्रकार जब कोई भक्त पूर्ण लगन और प्रेम के साथ भगवान् का ध्यान करता है? तब वह एक व्यक्ति के रूप में क्षणभर के लिए लुप्त हो जाता है और अपने हृदयकेइष्ट भगवान् की सुन्दरता और आभा को प्राप्त होता है।नित्ययुक्त हुए मेरी पूजा (उपासना) करते हैं भक्तिमार्ग के द्वारा आत्मविकास के सम्पादन के लिए जो दूसरा गुण भक्त में होना आवश्यक है? वह नित्ययुक्तता है। नित्ययुक्त होने का अर्थ है नित्य नियमित उपासना के समय आत्मसंयम का होना। मन अपनी बहिर्मुखी प्रवृत्ति के कारण ध्येय को त्यागकर अन्य विषयों में ही विचरण करने लगता हैं। ऐसे मन का ध्यान ध्येय में ही स्थिर करने की कला का ही नाम है? आत्मसंयम। यद्यपि संस्कृत शब्द उपासना का अनुवाद पूजा किया जा सकता है? तथापि उससे अत्यन्त सतही अर्थ नहीं लेना चाहिए। उस शब्द से हम सामान्यत यन्त्रवत् कर्मकाण्डीय पूजा समझते हैं। वास्तविक उपासना तो परमात्मा के साथ तादात्म्य करने की आन्तरिक क्रिया है? जिसके द्वारा हम परमात्मस्वरूप बन जाते हैं।परा श्रद्धा से युक्त हुए साधारणत श्रद्धा शब्द का अर्थ अन्धविश्वास समझा जाता है? परन्तु वह अनुचित है। श्रद्धा का अर्थ है किसी अज्ञात वस्तु में मेरा वह विश्वास जिसके द्वारा मुझे वह वस्तु यथार्थ रूप से ज्ञात होती है? जिसमें मेरा पहले केवल विश्वास ही था। ऐसी श्रद्धा के बिना साधक भक्त? वर्षों के अभ्यास के बाद भी पर्याप्त मात्रा में चित्तशुद्धि और स्वयं का दैवीकरण सम्पादित नहीं कर सकता है।इस प्रकार? एक सच्चा भक्त बनने के लिए इस श्लोक में जिस तीन आवश्यक एवं अपरिहार्य गुणों को बताया गया है? वे हैं (1) परम श्रद्धा (2) उपासना में नित्ययुक्तता और (3) ध्येयस्वरूप में मन की एकाग्रता। इन तीन गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को भगवान् युक्ततम मानते हैं।तो क्या अन्य भक्त युक्ततम नहीं हैं ऐसी बात नहीं है? किन्तु उनके विषय में जो कहना है? उसे सुनो

English Translation By Swami Gambirananda

12.2 The Blessed Lord said Those who meditate on Me by fixing their minds on Me with steadfast devotion (and) being endowed with supreme faith-they are considered to be the most perfect yogis according to Me.

English Translation By Swami Sivananda

12.2 The Blessed Lord said Those who, fixing their mind on Me, worship Me, ever steadfast and endowed with supreme faith, are the best in Yoga in My opinion.