श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः।

असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु।।7.1।।

 

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।7.1।। ध्यानाभ्यास का आरम्भ करने के पूर्व साधक जब तक केवल बौद्धिक स्तर पर ही वेदान्त का विचार करता है जैसा कि प्रारम्भ में होना स्वाभाविक है तब तक उसके मन में प्रश्न उठता रहता है कि परिच्छिन्न मन के द्वारा अनन्तस्वरूप सत्य का साक्षात्कार किस प्रकार किया जा सकता है यह प्रश्न सभी जिज्ञासुओं के मन में आता है और इसीलिए वेदान्तशास्त्र इस विषय का विस्तार से वर्णन करता है कि किस प्रकार ध्यान की प्रक्रिया से मन अपनी ही परिच्छिन्नताओं से ऊपर उठकर अपने अनन्तस्वरूप का अनुभव करता है।इस षडाध्यायी के विवेच्य विषय की प्रस्तावना करते हुए श्रीकृष्ण अर्जुन को वचन देते हैं कि वे आत्मसाक्षात्कार के सिद्धान्त एवं उपायों का समग्रत वर्णन करेंगे जिससे यह स्पष्ट हो जायेगा कि किस प्रकार सुसंगठित मन के द्वारा आत्मस्वरूप का ध्यान करने से आत्मा की अपरोक्षानुभूति होती है। ध्यान के सन्दर्भ में मन शब्द का प्रयोग होने पर उससे शुद्ध एवं एकाग्र मन का ही अभिप्राय है न कि अशक्त तथा विखण्डित मन। अनुशासित और असंगठित मन जब अपने स्वरूप में समाहित होता है तब साधक का विकास तीव्र गति से होता है। इस प्रकरण कै विषय है आन्तरिक विकास का युक्तियुक्त विवेचन।श्रीभगवान् कहते हैं

English Translation By Swami Gambirananda

7.1 The Blessed Lord said O Partha, hear how you, having the mind fixed on Me, practising the Yoga of Meditation and taking refuge in Me, will know Me with certainly and in fulness.

English Translation By Swami Sivananda

7.1 The Blessed Lord said O Arjuna, hear how you shall without doubt know Me fully, with the mind intent on Me, practising Yoga and taking refuge in Me.