श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।

 

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।9.34।। यह श्लोक सम्पूर्ण अध्याय का सुन्दर सारांश है? क्योंकि इस अध्याय के कई अन्य श्लोकों पर यह काफी प्रकाश डालता है। हम कह सकते हैं कि यह श्लोक अनेक श्लोकों की व्याख्या का कार्य करता है।वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार के लिए सम्यक् ज्ञान और ध्यान का उपदेश दिया गया है। ध्यान के स्वरूप की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि? उस (सत्य) का ही चिन्तन? उसके विषय में ही कथन? परस्पर उसकी चर्चा करके मन का तत्पर या तत्स्वरूप बन जाने को ही? ज्ञानी पुरुष ब्रह्माभ्यास समझते हैं। ब्रह्माभ्यास की यह परिभाषा ध्यान में रखकर ही महर्षि व्यास इस श्लोक में दृढ़तापूर्वक अपने सुन्दर भक्तिमार्ग का चित्रण करते हैं। यही विचार इसी अध्याय में एक से अधिक अवसरों पर व्यक्त किया गया है।सब काल में किसी भी कार्य में व्यस्त रहते हुए भी मन को मुझमें स्थिर करके? मेरा भक्त मेरा पूजन करता है और मुझे नमस्कार करता है। संक्षेपत? जीवन में आध्यात्मिक सुधार के लिए मन का विकास एक मूलभूत आवश्यकता है। यदि वास्तव में हम आध्यात्मिक विकास करना चाहें तो बाह्य दशा या परिस्थिति? हमारी आदतें? हमारा भूतकालीन या वर्तमान जीवन कोई भी बाधक नहीं हो सकता है।प्रयत्नपूर्वक ईश्वर स्मरण या आत्मचिन्तन ही सफलता का रहस्य है। इस प्रकार जब तुम मुझे परम लक्ष्य समझोगे तब तुम मुझे प्राप्त होओगे? यह श्रीकृष्ण का अर्जुन को आश्वासन है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं? वह हमारे संस्कारों के कारण है। शुभ और दैवी संस्कारों के होने पर हम उन्हीं के अनुरूप बन जाते हैं।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय के लिए दिया गया यह नाम उपयुक्त है। राजविद्या और राजगुह्य इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। अध्याय के प्रारम्भ में हमने देखा कि शुद्ध चैतन्य ही वह ज्ञान है? जिसके प्रकाश में सभी औपाधिक या वृत्तिज्ञान सम्भव है। अत उस पारमार्थिक तत्त्व का बोध कराने वाली इस विद्या को राजविद्या कहना अत्यन्त समीचीन है। उपनिषदों में इसे सर्वविद्या प्रतिष्ठा कहा गया है? क्योंकि इसे जानकर और कोई जानने योग्य शेष नहीं रह जाता है यही मुण्डकोपनिषद् की भी घोषणा है।

English Translation By Swami Gambirananda

9.34 Having your mind fixed on Me, be devoted to Me, sacrifice to Me, and bow down to Me. By concentrating your mind and accepting Me as the supreme Goal, you shall surely attain Me who am thus the Self.

English Translation By Swami Sivananda

9.34 Fix thy mind on Me; by devoted to Me; sacrifice unto Me; bow down to Me; having thus united thy whole self to Me, taking Me as the supreme goal, thou shalt come unto Me.