श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अर्जुन उवाच

एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते।

येचाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः।।12.1।।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।12.1।। व्याख्या--'एवं सततयुक्ता ये भक्ताः'--ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें भगवान्ने 'यः' और 'सः' पद जिस साधकके लिये प्रयुक्त किये हैं, उसी साधकके लिये अर्थात् सगुण-साकार भगवान्की उपासना करनेवाले सब साधकोंके लिये यहाँ 'ये भक्ताः' पद आये हैं।

   यहाँ 'एवम्' पदसे ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकका निर्देश किया गया है।

     'मैं भगवान्का ही हूँ' -- इस प्रकार भगवान्का होकर रहना ही सततयुक्त होना है। 

    भगवान्में पूर्ण श्रद्धा रखनेवाले साधक भक्तोंका एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होता है। अतः प्रत्येक (पारमार्थिक -- भगवत्सम्बन्धी जप-ध्यानादि अथवा व्यावहारिक -- शारीरिक और आजीविका-सम्बन्धी) क्रियामें उनका सम्बन्ध नित्य-निरन्तर भगवान्से बना रहता है। 'सततयुक्ताः' पद ऐसे ही साधक भक्तोंका वाचक है।

   साधकसे यह एक बहुत बड़ी भूल होती है कि वह पारमार्थिक क्रियाओंको करते समय तो अपना सम्बन्ध भगवान्से मानता है,पर व्यावहारिक क्रियाओंको करते समय वह अपना सम्बन्ध संसारसे मानता है। इस भूलका कारण है --समय-समयपर साधकके उद्देश्यमें होनेवाली भिन्नता। जबतक बुद्धिमें धन-प्राप्ति, मान-प्राप्ति, कुटुम्ब-पालन आदि भिन्न-भिन्न उद्देश्य बने रहते हैं, तबतक साधकका सम्बन्ध निरन्तर भगवान्के साथ नहीं रहता। 

  अगर वह अपने जीवनके एकमात्र उद्देश्य भगवत्प्राप्तिको ठीक-ठीक पहचान ले, तो उसकी प्रत्येक क्रिया भगवत्प्राप्तिका साधन हो जायगी। भगवत्प्राप्तिका उद्देश्य हो जानेपर भगवान्का जप-स्मरण-ध्यानादि करते समय तो उसका सम्बन्ध भगवान्से है ही; किन्तु व्यावहारिक क्रियाओंको करते समय भी उसको नित्य-निरन्तर भगवान्में लगा हुआ ही समझना चाहिये।

  अगर क्रियाके आरम्भ और अन्तमें साधकको भगवत्स्मृति है, तो क्रिया करते समय भी उसकी निरन्तर सम्बन्धात्मक भगवत्स्मृति रहती है -- ऐसा मानना चाहिये। जैसे, बहीखातेमें जोड़ लगाते समय व्यापारीकी वृत्ति इतनी तल्लीन होती है कि 'मैं कौन हूँ और जोड़ क्यों लगा रहा हूँ' -- इसका भी ज्ञान नहीं रहता। केवल जोड़के अङ्कोंकी ओर ही उसका ध्यान रहता है। जोड़ शुरू करनेसे पहले उसके मनमें यह धारणा रहती है कि मैं अमकु व्यापारी हूँ तथा अमुक कार्यके लिये जोड़ लगा रहा हूँ और जोड़ लगाना समाप्त करते ही पुनः उसमें उसी भावकी स्फुरणा हो जाती है कि 'मैं अमुक व्यापारी हूँ और अमुक कार्य कर रहा था।' अतः जिस समयमें वह तल्लीनतापूर्वक जो़ड़ लगा रहा है, उस समय भी 'मैं अमुक व्यापारी हूँ और अमुक कार्य कर रहा हूँ' -- इस भावकी विस्मृति दीखते हुए भी वस्तुतः 'विस्मृति' नहीं मानी जाती।

   इसी प्रकार यदि कर्तव्य-कर्मके आरम्भ और अन्तमें साधकका यह भाव है कि 'मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान्के लिये ही कर्तव्यकर्म कर रहा हूँ', तथा इस भावमें उसे थोड़ी भी शङ्का नहीं है, तो जब वह अपने कर्तव्य-कर्ममें तल्लीनतापूर्वक लग जाता है, उस समय उसमें भगवान्की विस्मृति दीखते हुए भी वस्तुतः विस्मृति नहीं मानी जाती।

  'त्वाम् पर्युपासते'-- यहाँ 'त्वाम्' पदसे उन सभी सगुण-साकार स्वरूपोंको ग्रहण कर लेना चाहिये, जिनको भगवान् भक्तोंके इच्छानुसार समय-समयपर धारण किया करते हैं और जो स्वरूप भगवान्ने भिन्न-भिन्न अवतारोंमें धारण किये हैं तथा भगवान्का जो स्वरूप दिव्यधाममें विराजमान है -- जिसको भक्त लोग अपनी मान्यताके अनुसार अनेक रूपों और नामोंसे कहते हैं।

  'पर्युपासते' -- पदका अर्थ है -- 'परितः उपासते' अर्थात् अच्छी तरह उपासना करते हैं। जैसे पतिव्रता स्त्री कभी पतिकी सेवामें अपने शरीरको अर्पण करके, कभी पतिकी अनुपस्थितिमें पतिका चिन्तन करके, कभी पतिके सम्बन्धसे सास-ससुर आदिकी सेवा करके और कभी पतिके लिये रसोई बनाना आदि घरके कार्य करके सदासर्वदा पतिकी ही उपासना करती है, ऐसे ही साधक भक्त भी कभी भगवान्में तल्लीन होकर, कभी भगवान्का जप-स्मरणचिन्तन करके, कभी सांसारिक प्राणियोंको भगवान्का ही मानकर उनकी सेवा करके और कभी भगवान्की आज्ञाके अनुसार सांसारिक कर्मोंको करके सदा-सर्वदा भगवान्की उपासनामें ही लगा रहता है। ऐसी उपासना ही अच्छी तरह की गयी उपासना है। ऐसे उपासकके हृदयमें उत्पन्न और नष्ट होनेवाले पदार्थों और क्रियाओंका किञ्चिन्मात्र भी महत्त्व नहीं होता।

   'ये चाप्यक्षरमव्यक्तम्'-- यहाँ 'ये' पद निर्गुण-निराकारकी उपासना करनेवाले साधकोंका वाचक है। अर्जुनने श्लोकके पूर्वार्द्धमें जिस श्रेणीके सगुण-साकारके उपासकोंके लिये 'ये' पदका प्रयोग किया है, उसी श्रेणीके निर्गुण-निराकारके उपासकोंके लिये यहाँ 'ये' पदका प्रयोग किया गया है।

   'अक्षरम्' पद अविनाशी सच्चिदानन्दघन परब्रह्मका वाचक है (इसकी व्याख्या इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें की जायगी)।जो किसी इन्द्रियका विषय नहीं है, उसे 'अव्यक्त' कहते हैं। यहाँ 'अव्यक्तम्' पदके साथ 'अक्षरम्' विशेषण दिया गया है। अतः यह पद निर्गुणनिराकार ब्रह्मका वाचक है (इसकी व्याख्या इसी अध्यायके तीसरे श्लोकमें की जायगी)।

  'अपि' पदसे ऐसा भाव प्रतीत होता है कि यहाँ साकार उपासकोंकी तुलना उन्हीं निराकार उपासकोंसे की गयी है, जो केवल निराकार ब्रह्मको श्रेष्ठ मानकर उसकी उपासना करते हैं।

  'तेषां के योगवित्तमाः' -- यहाँ 'तेषाम्' पद सगुण और निर्गुण दोनों प्रकारके उपासकोंके लिये आया है। इसी अध्यायके पाँचवें श्लोकमें 'तेषाम्' पद निर्गुण उपासकोंके लिये आया है, जबकि सातवें श्लोकमें 'तेषाम्' पद सगुण उपासकोंके लिये आया है।

  इन पदोंसे अर्जुनका अभिप्राय यह है कि इन दो प्रकारके उपासकोंमें कौन-से उपासक श्रेष्ठ हैं।'साकार और निराकारके उपासकोंमें श्रेष्ठ कौन है -- अर्जुनके इस प्रश्नका भगवान्ने जो उत्तर दिया है? उसपर गहरा विचार करनेसे अर्जुनके प्रश्नकी महत्ताका पता चलता है; जैसे --,

   इस अध्यायके दूसरे श्लोकसे चौदहवें अध्यायके बीसवें श्लोकतक भगवान् अविराम बोलते ही चले गये हैं। तिहत्तर श्लोकोंका इतना लम्बा प्रकरण गीतामें एकमात्र यही है। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि भगवान् इस प्रकरणमें कोई अत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात समझाना चाहते हैं। साधकोंको साकार और निराकार स्वरूपमें एकताका बोध हो, उनके हृदयमें इन दोनों स्वरूपोंको प्राप्त करानेवाले साधनोंका साङ्गोपाङ्ग रहस्य प्रकट हो, सिद्ध भक्तों (गीता 12। 13 -- 19) और ज्ञानियों (गीता 14। 22 -- 25) के आदर्श लक्षणोंसे वे परिचित हों और संसारसे सम्बन्धविच्छेदकी विशेष महत्ता उनकी समझमें आ जाय -- इन्हीं उद्देश्योंको सिद्ध करनेमें भगवान्की विशेष रुचि मालूम देती है। तात्पर्य है कि भगवान्के हृदयमें जीवोंके लिये जो परमकल्याणकारी, अत्यन्त गोपनीय और उत्तमोत्तम भाव थे? उनको प्रकट करवानेका श्रेय अर्जुनके इस भगवत्प्रेरित प्रश्नको ही है।

 सम्बन्ध--अर्जुनके सगुण और निर्गुण उपासकोंकी श्रेष्ठता-विषयक प्रश्नके उत्तरमें भगवान् निर्णय देते हैं।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।12.1।। यद्यपि भगवद्गीता के दार्शनिक प्रवचन संवाद की शैली में लिखे गये हैं? तथापि उनमें विचारों के क्रमिक विकास की कभी भी उपेक्षा नहीं की गई है। उसमें न केवल एक अध्याय के अन्तर्गत विचारों में संगति है? वरन् एक अध्याय से अन्य अघ्यायों के मध्य भी यही संगति देखने को मिलती है। पूर्व अध्याय की समाप्ति भगवान् के इस आश्वासन के साथ हुई थी कि कोई भी साधक भक्त अनन्यभक्ति के द्वारा ईश्वर के विराट् वैभव का स्वयं में साक्षात् अनुभव कर सकता है। इस चुनौती भरे वाक्य ने क्षत्रिय राजपुत्र अर्जुन की महत्त्वाकांक्षा को जगा दिया। जगत् के एक व्यावहारिक पुरुष के रूप में वह जानना चाहता है कि वह परमात्मा के कौन से रूप की उपासना करे।यहाँ प्रश्न बड़ी बुद्धिमत्तापूर्वक रखा गया है। यह सुविदित तथ्य है कि जगत् में दो प्रकार के साधक होते हैं? जो वस्तुत एक ही साध्य को प्राप्त करने के लिए साधनारत होते हैं। कोई साधक परमात्मा के सगुण? साकार व्यक्त रूप की आराधनाउपासना करते हैं? जबकि अन्य साधक निर्गुण? निराकार अव्यक्त का ध्यान करते हैं। दोनों ही निष्ठावान् हैं और अपनेअपने मार्ग पर प्रगति की ओर अग्रसर होते हैं। परन्तु? प्रश्न यह है कि इन दोनों में कौन उत्तम योगवित् या योगनिष्ठ है।दर्शनशास्त्र में इन्द्रियगोचर वस्तु को व्यक्त कहते हैं तथा जो वस्तु प्रमाण गोचर नहीं होती? उसे अव्यक्त कहा जाता है। विद्यार्थी दशा में अर्जुन को यह बताया गया था कि परमात्मा अव्यक्त और सर्वव्यापी है। परन्तु? पूर्व अध्याय में ही उसने ईश्वरी विराट रूप का साक्षात् दर्शन किया था। वह उसका व्यक्तिगत अनुभव था। स्वाभाविक ही है कि आध्यात्मिक विकास के लिए मार्गदर्शन का इच्छुक अर्जुन एक उचित प्रश्न पूछता है कि सगुण और निर्गुण के इन दो उपासकों में कौन साधक श्रेष्ठ है सगुण और निर्गुण में श्रेष्ठता का प्रश्न आज भी विवाद का विषय बना हुआ है। क्या मूर्तिपूजा के द्वारा ईश्वर का ध्यान और साक्षात्कार किया जा सकता है क्या कोई भी प्रतीक परमात्मा का सूचक हो सकता है क्या एक तरंग समुद्र का प्रतीक या प्रतिनिधि बन सकती है प्रथम? भगवान् श्रीकृष्ण सगुणोपासना का वर्णन करते हुए कहते हैं