श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन।।8.27।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।8.27।। व्याख्या--'नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन'--शुक्लमार्ग प्रकाशमय है और कृष्णमार्ग अन्धकारमय है। जिनके अन्तःकरणमें उत्पत्ति-विनाशशील वस्तुओंका महत्त्व नहीं है और जिनके उद्देश्य, ध्येयमें प्रकाशस्वरूप (ज्ञानस्वरूप) परमात्मा ही हैं, ऐसे वे परमात्माकी तरफ चलनेवाले साधक शुक्लमार्गी हैं अर्थात् उनका मार्ग प्रकाशमय है। जो संसारमें रचे-पचे हैं और जिनका सांसारिक पदार्थोंका संग्रह करना और उनसे सुख भोगना ही ध्येय होता है, ऐसे मनुष्य तो घोर अन्धकारमें हैं ही पर जो भोग भोगनेके उद्देश्यसे यहाँके भोगोंसे संयम करके यज्ञ, तप, दान आदि शास्त्रविहित शुभ कर्म करते हैं और मरनेके बाद स्वर्गादि ऊँची भोग-भूमियोंमें जाते हैं, वे यद्यपि यहाँके भोगोंमें आसक्त मनुष्योंसे ऊँचे उठे हुए हैं, तो भी आने-जानेवाले (जन्म-मरणके) मार्गमें होनेसे वे भी अन्धकारमें ही हैं। तात्पर्य है कि कृष्णमार्गवाले ऊँचे-ऊँचे लोकोंमें जानेपर भी जन्म-मरणके चक्करमें पड़े रहते हैं। कहीं जन्म गये तो मरना बाकी रहता है और मर गये तो जन्मना बाकी रहता है --ऐसे जन्म-मरणके चक्करमें पड़े हुए वे कोल्हूके बैलकी तरह अनन्तकालतक घूमते ही रहते हैं।-- इस तरह शुक्ल और कृष्ण दोनों मार्गोंके परिणामको जाननेवाला मनुष्य योगी अर्थात् निष्काम हो जाता है, भोगी नहीं। कारण कि वह यहाँके और परलोकके भोगोंसे ऊँचा उठ जाता है। इसलिये वह मोहित नहीं होता।सांसारिक भोगोंके प्राप्त होनेमें और प्राप्त न होनेमें जिसका उद्देश्य निर्विकार रहनेका ही होता है, वह योगी कहलाता है।

       'तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन'--जिसका ऐसा दृढ़ निश्चय हो गया है कि मुझे तो केवल परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति ही करनी है, तो फिर कैसे ही देश, काल, परिस्थिति आदिके प्राप्त हो जानेपर भी वह विचलित नहीं होता अर्थात् उसकी जो साधना है वह किसी देश काल घटना परिस्थिति आदिके अधीन नहीं होती। उसका लक्ष्य परमात्माकी तरफ अटल रहनेके कारण देशकाल आदिका उसपर कोई असर नहीं पड़ता। अनुकूल-प्रतिकूल देश काल परिस्थिति आदिमें उसकी स्वाभाविक समता हो जाती है। इसलिये भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तू सब समयमें अर्थात् अनुकूलप्रतिकूल परिस्थितियोंके प्राप्त होनेपर उनसे प्रभावित न होकर उनका सदुपयोग करते हुए (अनुकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर मात्र संसारकी सेवा करते हुए, और प्रतिकूल परिस्थितिके प्राप्त होनेपर हृदयसे अनुकूलताकी इच्छाका त्याग करते हुए) योगयुक्त हो जा अर्थात् नित्य-निरन्तर समतामें स्थित रह।

 सम्बन्ध--अब भगवान् योगीकी महिमाका वर्णन करते हैं।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।8.27।। शुक्लगति और कृष्णगति इन दोनों के ज्ञान का फल यह है कि इनका ज्ञाता योगी पुरुष कभी मोहित नहीं होता है मन में उठने वाली निम्न स्तर की प्रवृत्तियों के कारण धैर्य खोकर वह कभी निराश नहीं होता।भगवान् श्रीकृष्ण ने अब तक पुनरावृत्ति और अपुनरावृत्ति के मार्गों का वर्णन किया और अब इस श्लोक में वे ज्ञान और उसके फल को संग्रहीत करके कहते हैं कि इसलिए हे अर्जुन तुम सब काल में योगी बनो। जिसने अनात्मा से तादात्म्य हटाकर मन को आत्मस्वरूप में एकाग्र करना सीखा हो वह पुरुष योगी है।संक्षेप में इस सम्पूर्ण अध्याय के माध्यम से भगवान् द्वारा अर्जुन को उपदेश दिया गया है कि उसको जगत् में कार्य करते हुए भी सदा अक्षर पुरुष के साथ अनन्य भाव से तादात्म्य स्थापित कर आत्मज्ञान में स्थिर होने का प्रयत्न करना चाहिए।अन्त में इस योग का महात्म्य बताते हुए भगवान् कहते हैं --