श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।

मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः।।9.34।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।9.34।। व्याख्या --[अपने हृदयकी बात वहीं कही जाती है, जहाँ सुननेवालेमें कहनेवालेके प्रति दोषदृष्टि न हो, प्रत्युत आदरभाव हो। अर्जुन दोषदृष्टिसे रहित हैं, इसलिये भगवान्ने उनको अनसूयवे (9। 1) कहा है। इसी कारण भगवान् यहाँ अर्जुनके सामने अपने हृदयकी गोपनीय बात कह रहे हैं।]'मद्भक्तः' -- मेरा भक्त हो जा कहनेका तात्पर्य है कि तू केवल मेरे साथ ही अपनापन कर केवल मेरे साथ ही सम्बन्ध जोड़, जो कि अनादिकालसे स्वतःसिद्ध है। केवल भूलसे ही शरीर और संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान रखा है अर्थात् 'मैं अमुक वर्णका हूँ, अमुक आश्रमका हूँ, अमुक सम्प्रदायका हूँ, अमुक नामवाला हूँ -- इस प्रकार वर्ण, आश्रम आदिको अपनी अहंतामें मान रखा है। इसलिये अब असत्रूपसे बनी हुई अवास्तविक अहंताको वास्तविक सत्रूपमें बदल दे कि मैं तुम्हारा हूँ और तुम मेरे हो। फिर तेरा मेरे साथ स्वाभाविक ही अपनापन हो जायगा, जो कि वास्तवमें है।'मन्मना भव' -- मन वहीं लगता है, जहाँ अपनापन होता है, प्रियता होती है। तेरा मेरे साथ जो अखण्ड सम्बन्ध है, उसको मैं तो नहीं भूल सकता, पर तू भल सकता है इसलिये तेरेको मेरेमें मनवाला हो जा -- ऐसा कहना पड़ता है।'मद्याजी' -- मेरा पूजन करनेवाला हो अर्थात् तू खाना-पीना, सोना-जगना, आना-जाना, काम-धन्धा करना आदि जो कुछ क्रिया करता है, वह सब-की-सब मेरी पूजाके रूपमें ही कर उन सबको मेरी पूजा ही समझ।'मां नमस्कुरु' -- मेरेको नमस्कार कर कहनेका तात्पर्य है कि मेरा जो कुछ अनुकूल, प्रतिकूल या सामान्य विधान हो, उसमें तू परम प्रसन्न रह। मैं चाहे तेरे मन और मान्यतासे सर्वथा विरुद्ध फैसला दे दूँ, तो भी उसमें तू प्रसन्न रह। जो मनुष्य हानि और परलोकके भयसे मेरे चरणोंमें पड़ते हैं, मेरे शरण होते हैं, वे वास्तवमें अपने सुख और सुविधाके ही शरण होते हैं, मेरे शरण नहीं। मेरे शरण होनेपर किसीसे कुछ भी सुख-सुविधा पानेकी इच्छा होती है तो वह सर्वथा मेरे शरणागत कहाँ हुआ? कारण कि वह जबतक कुछ-न-कुछ सुख-सुविधा चाहता है, तबतक वह अपना कुछ स्वतन्त्र अस्तित्व मानता है।वास्तवमें मेरे चरणोंमें पड़ा हुआ वही माना जाता है, जो अपनी कुछ भी मान्यता न रखकर मेरी मरजीमें अपने मनको मिला देता है। उसमें मेरेसे ही नहीं प्रत्युत संसारमात्रसे भी अपनी सुखसुविधा, सम्मानकी किञ्चित् गन्धमात्र भी नहीं रहती। अनुकूलता-प्रतिकूलताका ज्ञान होनेपर भी उसपर उसका कुछ भी असर नहीं होता अर्थात् मेरे द्वारा कोई अनुकूल-प्रतिकूल घटना घटती है, तो मेरे परायण रहनेवाले भक्तकी उस घटनामें विषमता नहीं होती। अनुकूल-प्रतिकूलका ज्ञान होनेपर भी वह घटना उसको दो रूपसे नहीं दीखती, प्रत्युत केवल मेरी कृपारूपसे दीखती है।मेरा किया हुआ विधान चाहे शरीरके अनुकूल हो, चाहे प्रतिकूल हो, मेरे विधानसे कैसी भी घटना घटे, उसको मेरा दिया हुआ प्रसाद मानकर परम प्रसन्न रहना चाहिये। अगर मनके प्रतिकूल-से-प्रतिकूल घटना घटती है, तो उसमें मेरी विशेष कृपा माननी चाहिये क्योंकि उस घटनामें उसकी सम्मति नहीं है। अनुकूल घटनामें उसकी जितने अंशमें सम्मति हो जाती है, उतने अंशमें वह घटना उसके लिये अपवित्र हो जाती है। परन्तु प्रतिकूल घटनामें केवल मेरा ही किया हुआ शुद्ध विधान होता है -- इस बातको लेकर उसको परम प्रसन्न होना चाहिये।

मनुष्य प्रतिकूल घटनाको चाहते नहीं, करता नहीं और उसमें उसका अनुमोदन भी नहीं रहता, फिर भी ऐसी घटना घटती है, तो उस घटनाको उपस्थित करनेमें कोई भी निमित्त क्यों न बने और वह भी भले ही किसीको निमित्त मान ले, पर वास्तवमें उस घटनाको घटानेमें मेरी ही हाथ है, मेरी ही मरजी है (टिप्पणी प0 531)। इसलिये मनुष्यको उस घटनामें दुःखी होना और चिन्ता करना तो दूर रहा, प्रत्युत उसमें अधिक-से-अधिक प्रसन्न होना चाहिये। उसकी यह प्रसन्नता मेरे विधानको लेकर नहीं होनी चाहिये किन्तु मेरेको (विधान करनेवालेको) लेकर होनी चाहिये। कारण कि अगर उसमें उस मनुष्यका मङ्गल न होता, तो प्राणिमात्रका परमसुहृद् मैं उसके लिये ऐसी घटना क्यों घटाता इसी प्रकार हे अर्जुन तू भी सर्वथा मेरे चरणोंमें पड़ जा अर्थात् मेरे प्रत्येक विधानमें परम प्रसन्न रह।जैसे, कोई किसीका अपराध करता है, तो वह उसके सामने जाकर लम्बा पड़ जाता है और उससे कहता है कि आप चाहे दण्ड दें, चाहे पुरस्कार दें, चाहे दुत्कार दें, चाहे जो करें, उसीमें मेरी परम प्रसन्नता है। उसके मनमें यह नहीं रहता कि सामनेवाला मेरे अनुकूल ही फैसला दे। ऐसे ही भक्त भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है, तो भगवान्से कह देता है कि हे प्रभो मैंने न जाने किन-किन जन्मोंमें आपके प्रतिकूल क्याक्या आचरण किये हैं, इसका मेरेको पता नहीं है। परन्तु उन कर्मोंके अनुरूप आप जो परिस्थिति भेजेंगे, वह मेरे लिये सर्वथा कल्याणकारक ही होगी। इसलिये मेरेको किसी भी परिस्थितिमें किञ्चिन्मात्र भी असन्तोष न,होकर प्रसन्नता-ही-प्रसन्नता होगी। हे नाथ मेरे कर्मोंका आप कितना खयाल रखते हैं कि मैंने न जाने किसकिस जन्ममें, किसकिस परिस्थितिमें परवश होकर क्या-क्या कर्म किये हैं, उन सम्पूर्ण कर्मोंसे सर्वथा रहित करनेके लिये आप कितना विचित्र विधान करते हैं मैं तो आपके विधानको किञ्चिन्मात्र भी समझ नहीं सकता और मेरेमें आपके विधानको समझनेकी शक्ति भी नहीं है। इसलिये हे नाथ मैं उसमें अपनी बुद्धि क्यों लगाऊँ मेरेको तो केवल आपकी तरफ ही देखना है। कारण कि आप जो कुछ विधान करते हैं, उसमें आपका ही हाथ रहता है अर्थात् वह आपका ही किया हुआ होता है, जो कि मेरे लिये परम मङ्गलमय है। यही 'मां नमस्कुरु' का तात्पर्य है। 'मामैवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायणः' -- यहाँ 'एवम्' का तात्पर्य है कि 'मद्भक्तः' से तू स्वयं मेरे अर्पित हो गया, 'मन्मनाः' से तेरा अन्तःकरण मेरे परायण हो गया, 'मद्याजी' से तेरी मात्र क्रियाएँ और पदार्थ मेरी पूजासामग्री बन गये और 'मां नमस्कुरु' से तेरा शरीर मेरे चरणोंके अर्पित हो गया। इस प्रकार मेरे परायण हुआ तू मेरेको ही प्राप्त होगा।युक्त्वैवमात्मानम् (अपनेआपको मेरेमें लगाकर) कहनेका तात्पर्य यह हुआ कि मैं भगवान्का ही हूँ ऐसे अपनी अहंताका परिवर्तन होनेपर शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ, क्रिया -- ये सबकेसब मेरेमें ही लग जायँगे। इसीका नाम शरणागति है। ऐसी शरणागति होनेपर मेरी ही प्राप्ति होगी, इसमें सन्देह नहीं है। मेरी प्राप्तिमें सन्देह वहीं होता है, जहाँ मेरे सिवाय दूसरेकी कामना है, आदर है, महत्त्वबुद्धि है। कारण कि कामना, महत्त्वबुद्धि, आसक्ति आदि होनेपर सब जगह परिपूर्ण रहते हुए भी मेरी प्राप्ति नहीं होती।'मत्परायणः' का तात्पर्य है कि मेरी मरजीके बिना कुछ भी करनेकरानेकी किञ्चिन्मात्र भी स्फुरणा नहीं रहे। मेरे साथ सर्वथा अभिन्न होकर मेरे हाथका खिलौना बन जाय।

विशेष बात

( 1 ) भगवान्का भक्त बननेसे, भगवान्के साथ अपनापन करनेसे, मैं भगवान्का हूँ इस प्रकार अहंताको बदल देनेसे मनुष्यमें बहुत जल्दी परिवर्तन हो जाता है। वह परिवर्तन यह होगा कि वह भगवान्में मनवाला हो जायगा, भगवान्का पूजन करनेवाला बन जायगा और भगवान्के मात्र विधानमें प्रसन्न रहेगा। इस प्रकार इन चारों बातोंसे शरणागति पूर्ण हो जाती है। परन्तु इन चारोंमें मुख्यता भगवान्का भक्त बननेकी ही है। कारण कि जो स्वयं भगवान्का हो जाता है, उसके न मनबुद्धि अपने रहते हैं, न पदार्थ और क्रिया अपने रहते हैं और न शरीर अपना रहता है। तात्पर्य है कि लौकिक दृष्टिमें जो अपनी कहलानेवाली चीजें हैं, जो कि उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं, उनमेंसे कोई भी चीज अपनी नहीं रहती। स्वयंके अर्पित हो जानेसे मात्र प्राकृत चीजें भगवान्की ही हो जाती हैं। उनमेंसे अपनी ममता उठ जाती है। उनमें ममता करना ही गलती थी, वह गलती सर्वथा मिट जाती है।

( 2 ) मनुष्य संसारके साथ कितनी ही एकता मान लें, तो भी वे संसारको नहीं जान सकते। ऐसे ही शरीरके साथ कितनी ही अभिन्नता मान लें, तो भी वे शरीरके साथ एक नहीं हो सकते और उसको जान भी नहीं सकते। वास्तवमें संसारशरीरसे अलग होकर ही उनको जान सकते हैं। इस रीतिसे परमात्मासे अलग रहते हुए परमात्माको यथार्थरूपसे नहीं जान सकते। परमात्माको तो वे ही जान सकते हैं, जो परमात्मासे एक हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने मैं और 'मेरा'-पन सर्वथा भगवान्के समर्पित कर दिया है। मैं और 'मेरा'-पन तो,दूर रहा, मैं और मेरेपनकी गन्ध भी अपनेमें न रहे कि मैं भी कुछ हूँ, मेरा भी कोई सिद्धान्त है, मेरी भी कुछ मान्यता है आदि।जैसे, प्राणी शरीरके साथ अपनी एकता मान लेता है, तो स्वाभाविक ही शरीरका सुखदुःख अपना सुखदुःख दीखता है। फिर उसको शरीरसे अलग अपने अस्तित्वका भान नहीं रहता। ऐसे ही भगवान्के साथ अपनी स्वतःसिद्ध एकताका अनुभव होनेपर भक्तका अपना कि़ञ्चिन्मात्र भी अलग अस्तित्व नहीं रहता। जैसे संसारमें भगवान्की मरजीसे जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका भक्तपर असर नहीं पड़ता, ऐसे ही उसके स्थूल, सूक्ष्म और कारणशरीरमें जो कुछ परिवर्तन होता है, उसका उसपर कुछ भी असर नहीं पड़ता। उसके शरीरद्वारा भगवान्की मरजीसे स्वतःस्वाभाविक क्रिया होती रहती है। यही वास्तवमें भगवान्की परायणता है।भगवान्को प्राप्त होनेका तात्पर्य है कि भगवान्के साथ अभिन्नता हो जाती है, जो कि वास्तविकता है। यह अभिन्नता भेदभावसे भी होती है और अभेदभावसे भी होती है। जैसे, श्रीजीकी भगवान् श्रीकृष्णके साथ अभिन्नता है। मूलमें भगवान् श्रीकृष्ण ही श्रीजी और श्रीकृष्ण -- इन दो रूपोंमें प्रकट हुए हैं। दो रूप होते हुए भी श्रीजी भगवान्से भिन्न नहीं हैं और भगवान् श्रीजीसे भिन्न नहीं हैं। परन्तु परस्पर रस( प्रेम) का आदानप्रदान करनेके लिये उनमें योग और वियोगकी लीला होती रहती है। वास्तवमें उनके योगमें भी वियोग है और वियोगमें भी योग है अर्थात् योगसे वियोग और वियोगसे योग पुष्ट होता रहता है, जिसमें अनिर्वचनीय प्रेमकी वृद्धि होती रहती है। इस अनिर्वचनीय और प्रतिक्षण वर्धमान प्रेमको प्राप्त हो जाना ही भगवान्को प्राप्त होना है।

सातवें और नवें अध्यायके विषयकी एकता

सातवें अध्यायके आरम्भमें भगवान्ने विज्ञानसहित ज्ञान अर्थात् राजविद्याको पूर्णतया कहनेकी प्रतिज्ञा की थी -- 'ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः' (7। 2)। सातवें अध्यायमें भगवान्के कहनेका जो प्रवाह चल रहा था, आठवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनके प्रश्न करनेसे उसमें कुछ परिवर्तन आ गया। अतः आठवें अध्यायका विषय समाप्त होते ही भगवान् अर्जुनके बिना पूछे ही 'इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे। ज्ञानं विज्ञानसहितं --' (9। 1) कहकर अपनी तरफसे पुनः विज्ञानसहित ज्ञान कहना शुरू कर देते हैं। सातवें अध्यायमें भगवान्ने जो विषय तीस श्लोकोंमें कहा था, उसी विषयको नवें अध्यायके आरम्भसे लेकर दसवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकतक लगातार कहते ही चले जाते हैं। इन श्लोकोंमें कही हुई बातोंका अर्जुनपर बड़ा प्रभाव पड़ता है, जिससे वे दसवें अध्यायके बारहवें श्लोकसे अठारहवें श्लोकतक भगवान्की स्तुति और प्रार्थना करते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सातवें अध्यायमें कही गयी बातको भगवान्ने नवें अध्यायमें संक्षेपसे, विस्तारसे अथवा प्रकारान्तरसे कहा है।सातवें अध्यायके पहले श्लोकमें 'मय्यासक्तमनाः' आदि पदोंसे जो विषय संक्षेपसे कहा था, उसीको नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें 'मन्मनाः' आदि पदोंसे थोड़ा विस्तारसे कहा है।सातवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जाननेसे फिर जानना बाकी नहीं रहेगा। यही बात भगवान्ने नवें अध्यायके पहले श्लोकमें कही कि मैं विज्ञानसहित ज्ञान कहूँगा जिसको जानकर तू अशुभ(संसार) से मुक्त हो जायगा। मुक्ति होनेसे फिर जानना बाकी नहीं रहता। इस प्रकार भगवान्ने सातवें और नवें -- दोनों ही अध्यायोंके आरम्भमें विज्ञानसहित ज्ञान कहनेकी प्रतिज्ञा की और दोनोंका एक फल बताया।सातवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें भगवान्ने कहा कि हजारोंमें कोई एक मनुष्य वास्तविक सिद्धिके लिये यत्न,करता है और यत्न करनेवालोंमें कोई एक मेरेको तत्त्वसे जानता है। इसका कारण नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें बताते हैं कि इस विज्ञानसहित ज्ञानपर श्रद्धा न रखनेसे मनुष्य मेरेको प्राप्त न हो करके मौतके रास्तेमें चले जाते हैं अर्थात् बारबार जन्मतेमरते रहते हैं।सातवें अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान्ने अपनेको सम्पूर्ण जगत्का प्रभव और प्रलय बताया। यही बात नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें 'प्रभवः प्रलयः' पदोंसे बतायी।सातवें अध्यायके दसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेको सनातन बीज बताया और नवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें अपनेको अव्यय बीज बताया।सातवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'न त्वहं तेषु ते मयि' कहकर जिस राजविद्याका संक्षेपसे वर्णन किया था, उसीका नवें अध्यायके चौथे और पाँचवें श्लोकमें विस्तारसे वर्णन किया है।सातवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें भगवान्ने सम्पूर्ण प्राणियोंको तीनों गुणोंसे मोहित बताया और नवें अध्यायके आठवें श्लोकमें सम्पूर्ण प्राणियोंको प्रकृतिके परवश हुआ बताया।सातवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि जो मनुष्य मेरे ही शरण हो जाते हैं, वे मायाको तर जाते हैं और नवें अध्यायके बाईसवें श्लोकमें कहा कि जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उनका योगक्षेम मैं वहन करता हूँ।सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने 'न मां दुष्कृतिनो मूढाः' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकमें 'अवजानन्ति मां मूढाः' कहा है।सातवें अध्यायके पंद्रहवें श्लोकमें भगवान्ने 'आसुरं भावमाश्रिताः' पदोंसे जो बात कही थी, वही बात नवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें 'राक्षसीमासुरीं चैव प्रकृतिं मोहिनीं श्रिताः' पदोंसे कही है। सातवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें जिनको सुकृतिनः कहा था, उनको ही नवें अध्यायके तेरहवें श्लोकमें,'महात्मानः' कहा है।सातवें अध्यायके सोलहवेंसे अठारहवें श्लोकतक सकाम और निष्कामभावको लेकर भक्तोंके चार प्रकार बताये और नवें अध्यायके तीसवेंसे तैंतीसवें श्लोकतक वर्ण, आचरण और व्यक्तिको लेकर भक्तोंके सात भेद बताये।सातवें अध्यायके उन्नीसवें श्लोकमें भगवान्ने महात्माकी दृष्टिसे 'वासुदेवः सर्वम्' कहा और नवें अध्यायके उन्नसीवें श्लोकमें भगवान्ने अपनी दृष्टिसे 'सदसच्चाहम् कहा।भगवान्से विमुख होकर अन्य देवताओंमें लगनेमें खास दो ही कारण हैं -- पहला कामना और दूसरा भगवान्को न पहचानना। सातवें अध्यायके बीसवें श्लोकमें कामनाके कारण देवताओंके शरण होनेकी बात कही गयी और नवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भगवान्को न पहचाननेके कारण देवताओंका पूजन करनेकी बात कही गयी।सातवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें सकाम पुरुषोंको अन्तवाला (नाशवान्) फल मिलनेकी बात कही और नवें अध्यायके इक्कीसवें श्लोकमें सकाम पुरुषोंके आवागमनको प्राप्त होनेकी बात कही।सातवें अध्यायके तेईसवें श्लोकमें भगवान्ने कहा कि देवताओंके भक्त देवताओंको और मेरे भक्त मेरेको प्राप्त होते हैं। यही बात भगवान्ने नवें अध्यायके पचीसवें श्लोकमें भी कही।सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें भगवान्ने जो 'अव्यक्तं व्यक्तिमापन्नं मन्यन्ते मामबुद्धयः' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकके पूर्वार्धमें 'अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्'कहा है। ऐसे ही सातवें अध्यायके चौबीसवें श्लोकके उत्तरार्धमें जो 'परं भावमजानन्तो ममाव्ययमनुत्तमम्' कहा था, उसीको नवें अध्यायके ग्यारहवें श्लोकके उत्तरार्धमें 'परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्' कहा है।सातवें अध्यायके सत्ताईसवें श्लोकमें भगवान्ने 'सर्गे यान्ति' कहा था, उसीको नवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें 'मृत्युसंसारवर्त्मनि' कहा है।सातवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें भगवान्ने अपनेको जाननेकी बात मुख्य बतायी है और नवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने अर्पण करनेकी बात मुख्य बतायी है।

 'इस प्रकार, तत्, सत्'-- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।9।।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।9.34।। यह श्लोक सम्पूर्ण अध्याय का सुन्दर सारांश है? क्योंकि इस अध्याय के कई अन्य श्लोकों पर यह काफी प्रकाश डालता है। हम कह सकते हैं कि यह श्लोक अनेक श्लोकों की व्याख्या का कार्य करता है।वेदान्त के प्रकरण ग्रन्थों में आत्मविकास एवं आत्मसाक्षात्कार के लिए सम्यक् ज्ञान और ध्यान का उपदेश दिया गया है। ध्यान के स्वरूप की परिभाषा इस प्रकार दी गई है कि? उस (सत्य) का ही चिन्तन? उसके विषय में ही कथन? परस्पर उसकी चर्चा करके मन का तत्पर या तत्स्वरूप बन जाने को ही? ज्ञानी पुरुष ब्रह्माभ्यास समझते हैं। ब्रह्माभ्यास की यह परिभाषा ध्यान में रखकर ही महर्षि व्यास इस श्लोक में दृढ़तापूर्वक अपने सुन्दर भक्तिमार्ग का चित्रण करते हैं। यही विचार इसी अध्याय में एक से अधिक अवसरों पर व्यक्त किया गया है।सब काल में किसी भी कार्य में व्यस्त रहते हुए भी मन को मुझमें स्थिर करके? मेरा भक्त मेरा पूजन करता है और मुझे नमस्कार करता है। संक्षेपत? जीवन में आध्यात्मिक सुधार के लिए मन का विकास एक मूलभूत आवश्यकता है। यदि वास्तव में हम आध्यात्मिक विकास करना चाहें तो बाह्य दशा या परिस्थिति? हमारी आदतें? हमारा भूतकालीन या वर्तमान जीवन कोई भी बाधक नहीं हो सकता है।प्रयत्नपूर्वक ईश्वर स्मरण या आत्मचिन्तन ही सफलता का रहस्य है। इस प्रकार जब तुम मुझे परम लक्ष्य समझोगे तब तुम मुझे प्राप्त होओगे? यह श्रीकृष्ण का अर्जुन को आश्वासन है। वर्तमान में हम जो कुछ हैं? वह हमारे संस्कारों के कारण है। शुभ और दैवी संस्कारों के होने पर हम उन्हीं के अनुरूप बन जाते हैं।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे राजविद्याराजगुह्ययोगो नाम नवमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का राजविद्याराजगुह्ययोग नामक नवां अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय के लिए दिया गया यह नाम उपयुक्त है। राजविद्या और राजगुह्य इन दो शब्दों का विस्तृत विवेचन किया जा चुका है। अध्याय के प्रारम्भ में हमने देखा कि शुद्ध चैतन्य ही वह ज्ञान है? जिसके प्रकाश में सभी औपाधिक या वृत्तिज्ञान सम्भव है। अत उस पारमार्थिक तत्त्व का बोध कराने वाली इस विद्या को राजविद्या कहना अत्यन्त समीचीन है। उपनिषदों में इसे सर्वविद्या प्रतिष्ठा कहा गया है? क्योंकि इसे जानकर और कोई जानने योग्य शेष नहीं रह जाता है यही मुण्डकोपनिषद् की भी घोषणा है।