श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः।

मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।।16.18।।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।16.18।। व्याख्या --   अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः -- वे आसुर मनुष्य जो कुछ काम करेंगे? उसको अहङ्कार? हठ? घमण्ड? काम और क्रोधसे करेंगे। जैसे भक्त भगवान्के आश्रित रहता है? ऐसे ही वे आसुर लोग अहंकार? हठ? काम? आदिके आश्रित रहते हैं। उनके मनमें यह बात अच्छी तरहसे जँची हुई रहती है कि अहङ्कार? हठ? घमण्ड? कामना और क्रोधके बिना काम नहीं चलेगा संसारमें ऐसा होनेसे ही काम चलता है? नहीं तो मनुष्योंको दुःख ही पाना पड़ता है जो इनका (अहङ्कार? हठ आदिका) आश्रय नहीं लेते? वे बुरी तरहसे कुचले जाते हैं सीधेसादे व्यक्तिको संसारमें कौन मानेगा इसलिये अहंकारादिके रहनेसे ही अपना मान होगा? सत्कार होगा और लोगोंमें नाम होगा? जिससे लोगोंपर हमारा दबाव? आधिपत्य रहेगा।मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तः -- भगवान् कहते हैं कि मैं जो उनके शरीरमें और दूसरोंके शरीरमें रहता हूँ? उस मेरे साथ वे आसुर मनुष्य वैर रखते हैं। भगवान्के साथ वैर रखना क्या है -- श्रुतिस्मृति ममैवाज्ञे य उल्लङ्घ्य प्रवर्तते।

आज्ञाभङ्गी मम द्वेषी नरके पतति ध्रुवम्।।श्रुति और स्मृति -- ये दोनों मेरी आज्ञाएँ हैं। इनका उल्लङ्घन करके जो मनमाने ढंगसे बर्ताव करता है? वह मेरी आज्ञाभङ्ग करके मेरे साथ द्वेष रखनेवाला मनुष्य निश्चित ही नरकोंमें गिरता है। वे अपने अन्तःकरणमें विराजमान परमात्माके साथ भी विरोध करते हैं अर्थात् हृदयमें जो अच्छी स्फुरणाएँ होती हैं? सिद्धान्तकी अच्छी बातें आती हैं? उनकी वे उपेक्षातिरस्कार करते हैं? उनको मानते नहीं। वे दूसरे लोगोंकी अवज्ञा करते हैं? उनका तिरस्कार करते हैं? अपमान करते हैं? उनको दुःख देते हैं? उनसे अच्छी तरहसे द्वेष रखते हैं। यह सब उन प्राणियोंके रूपमें भगवान्के साथ द्वेष करना है।अभ्यसूयकाः -- वे मेरे और दूसरोंके गुणोंमें दोषदृष्टि रखते हैं। मेरे विषयमें वे कहते हैं कि भगवान् बड़े पक्षपाती हैं वे भक्तोंकी तो रक्षा करते हैं और दूसरोंका विनाश करते हैं? यह बात बढ़िया नहीं है। आजतक जितने संतमहात्मा हुए हैं और अभी भी जो संतमहात्मा तथा अच्छी स्थितिवाले साधक हैं? उनके विषयमें वे आसुर लोग कहते हैं कि उनमें भी रागद्वेष? कामक्रोध? स्वार्थ? दिखावटीपन आदि दोष पाये जाते हैं किसी भी संतमहात्माका चरित्र ऐसा नहीं है? जिसमें ये दोष न आये हों अतः यह सब पाखण्ड है हमने भी इन सब बातोंको करके देखा है हमने भी संयम किया है? भजन किया है? व्रत किये हैं? तीर्थ किये हैं? पर वास्तवमें इनमें कोई दम नहीं है हमें तो कुछ नहीं मिला? मुफ्तमें ही दुःख पाया उनके करनेमें वह समय हमारा व्यर्थमें ही बरबाद हुआ है वे लोग भी किसीके बहकावेमें आकर अपना समय बरबाद कर रहे हैं अभी ये ऐसे प्रवाहमें बहे हुए हैं और उलटे रास्तेपर जा रहे हैं अभी इनको होश नहीं है? पर जब कभी चेतेंगे? तब उनको भी पता लगेगा आदिआदि।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।16.18।। एक बार अहंकार के वशीभूत हो जाने पर मनुष्य का पशु से भी निम्नतम स्तर तक निरन्तर पतन होता जाता है। कामना से उन्मत्त वह पुरुष सुसंस्कृत मानव की प्रतिष्ठा से पदच्युत हो जाता है और तत्पश्चात् एक प्रभावहीन पशु के समान संदिग्ध रूप में समाज में विचरण करता है ऐसा व्यक्ति शारीरिक दृष्टि से मनुष्य होते हुए भी मानसिक दृष्टि से पशु ही होता है। इस श्लोक में इन्हीं आसुरी लोगों का वर्णन किया गया है।यहाँ उल्लिखित अहंकारादि अवगुणों में से एक अवगुण भी भ्रष्टता के तल तक गिराने के लिए पर्याप्त है? परन्तु भगवान् कहते हैं कि आसुरी पुरुष इन सभी अवगुणों से युक्त होता है। इतना ही नहीं? अपितु वह इन्हें ही श्रेष्ठ गुण मानकर इनका अवलम्बन भी करता है। इनकी अभिव्यक्ति में ही वह सन्तोष का अनुभव करता है।प्राय नवयुवकों को यह उपदेश दिया जाता है कि उन्हें अपनी निम्नस्तर की हीन प्रवृत्तियों के प्रलोभनों का शिकार नहीं बनना चाहिए। कोई स्वच्छन्द प्रवृत्ति का युवक प्रश्न पूछ सकता है कि इसमें क्या हानि है गीताचार्य कहते हैं कि सभी सांस्कृतिक मूल्यों का अपमान करते हुए अहंकार स्वार्थ और कामुकता का जीवन जीने का परिणाम सम्पूर्ण नाश है।उपर्युक्त आसुरी गुणों से युक्त लोग जीवन की पवित्रता की उपेक्षा करेंगे और बिना किसी पश्चाताप् के उसे अपवित्र करने में भी संकोच नहीं करेंगे। ये परनिन्दा में प्रवृत्त होंगे और सबके शरीर में स्थित मुझ परमात्मा का द्वेष करेंगे। केवल शुद्धांन्तकरण में ही परमात्मा अपने शुद्ध स्वरूप से व्यक्त होता है? न कि विषय वासनाओं से आच्छादित अशुद्ध अन्तकरण में। सदाचार का पालन चित्त को शुद्ध करता है? परन्तु अनैतिकता और दुराचार? जीवन के सुमधुर संगीत को अपने विकृत स्वरों के द्वारा निरर्थक ध्वनि के रूप में परिवर्तित कर देते हैं। दुराचारी पुरुष स्वयं अशान्त होकर अपने आसपास भी अशान्ति का वातावरण निर्मित करता है।अगले श्लोक में इन असुरों के पतन को बताते हैं

English Translation By Swami Adidevananda

16.18 Depending on their egoism, power and pride, and also of desire and wrath, these malicious men hate Me in their own bodies and in those of others.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

16.18 Ahankaram, egotism-that which considers the Self to which have been imputed actual and imaginary alities as 'I am this', which is called ignorance and is most painful, and is the source of all ills as also of all evil deeds; so also balam, power, which seeds to defear others and is associated with passion and desire; darpam, arrogance, a particular defect abiding in the mind, on the upsurge of which one transgresses righteousness; kamam, passion with regard to women and others; krodham, anger at things tha are undesirable;-samsritah, resorting to these and other great evils; and further, pradvisantah, hating; mam, Me, God-transgression of My ?nds is hatred (towards Me); indulging in that, atma-para-dehesu, in their own and others' bodies as the witness of their intellects and actions; (they become) abhyasuyakah, envious by nature, intolerant of the alities of those who tread the right path.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

16.18 They depend on their egoism in the form of 'I can do everything without the help of anyone'; likewise, in performing everything they depend on their power, 'My power is sufficient'; hence pride takes the following form, 'There is nobody like myself. Desire takes the form of, 'Because I am so, everything is fulfilled by my mere desire.' 'Wrath consits in conceiving, 'I shall slay those who cause evil to me.' Thus, depending on themselves, they evince malice towards Me, the Supreme Person abiding in their own bodies as well as in the bodies of others; and they hate Me. They endeavour to invent fallacious arguments against My existence, and being unable to tolerate Me, they perform all acts like sacrifices etc., depending only on their egoism.