श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्।।16.20।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।16.20।। व्याख्या --   आसुरीं योनिमापन्ना ৷৷. मामप्राप्यैव कौन्तेय -- पीछेके श्लोकमें भगवान्ने आसुर मनुष्योंको बारबार पशुपक्षी आदिकी योनियोंमें गिरानेकी बात कही। अब उसी बातको लेकर भगवान् यहाँ कहते हैं कि मनुष्यजन्ममें मुझे प्राप्त करनेका दुर्लभ अवसर पाकर भी वे आसुर मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके पशु? पक्षी आदि आसुरी योनियोंमें चले जाते हैं और बारबार उन आसुरी योनियोंमें ही जन्म लेते रहते हैं।मामप्राप्यैव पदसे भगवान् पश्चात्तापके साथ कहते हैं कि अत्यन्त कृपा करके मैंने जीवोंको मनुष्यशरीर देकर इन्हें अपना उद्धार करनेका मौका दिया और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे परन्ते ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस शरीरसे मेरी प्राप्ति करनी थी? उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गतिको चले गये

मनुष्यशरीर प्राप्त हो जानेके बाद वह कैसा ही आचरणवाला क्यों न हो अर्थात् दुराचारीसेदुराचारी क्यों न हो? वह भी यदि चाहे तो थो़ड़ेसेथोड़े समयमें (गीता 9। 30 -- 31) और जीवनके अन्तकालमें (गीता 8। 5) भी भगवान्को प्राप्त कर सकता है। कारण कि समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29) कहकर भगवान्ने अपनी प्राप्ति सबके लिये अर्थात् प्राणिमात्रके लिये खुली रखी है। हाँ? यह बात हो सकती है कि पशुपक्षी,आदिमें उनको प्राप्त करनेकी योग्यता नहीं है परन्तु भगवान्की तरफसे तो किसीके लिये भी मना नहीं है। ऐसा अवसर सर्वथा प्राप्त हो जानेपर भी ये आसुर मनुष्य भगवान्को प्राप्त न करके अधम गतिमें चले जाते हैं? तो इनकी इस दुर्गतिको देखकर परम दयालु प्रभु दुःखी होते हैं।ततो यान्त्यधमां गतिम् -- आसुरी योनियोंमें जानेपर भी उनके सभी पाप पूरे नष्ट नहीं होते। अतः उन बचे हुए पापोंको भोगनेके लिये वे उन आसुरी योनियोंसे भी भयङ्कर अधम गतिको अर्थात् नरकोंको प्राप्त होते हैं।यहाँ शङ्का हो सकती है कि आसुरी योनियोंको प्राप्त हुए मनुष्योंको तो उन योनियोंमें भगवान्को प्राप्त करनेका अवसर ही नहीं है और उनमें वह योग्यता भी नहीं है? फिर भगवान्ने ऐसा क्यों कहा कि वे मेरेको प्राप्त न करके उससे भी अधम गतिमें चले जाते हैं इसका समाधान यह है कि भगवान्का ऐसा कहना आसुरी योनियोंको प्राप्त होनेसे पूर्व मनुष्यशरीरको लेकर ही है। तात्पर्य है कि मनुष्यशरीरको पाकर? मेरी प्राप्तिका अधिकार पाकर भी वे मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके जन्मजन्मान्तरमें आसुरी योनियोंको प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं? वे उन आसुरी योनियोंसे भी नीचे कुम्भीपाक आदि घोर नरकोंमें चले जाते हैं।

विशेष बात

भगवत्प्राप्तिके अथवा कल्याणके उद्देश्यसे दिये गये मनुष्यशरीरको पाकर भी मनुष्य कामना? स्वार्थ एवं अभिमानके वशीभूत होकर चोरीडकैती? झूठकपट? धोखा? विश्वासघात? हिंसा आदि जिन कर्मोंको करते हैं? उनके दो परिणाम होते हैं -- (1) बाहरी फलअंश और (2) भीतरी संस्कारअंश। दूसरोंको दुःख देनेपर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो वही नुकसान होता है? जो प्रारब्धसे होनेवाला है परन्तु जो दुःख देते हैं? वे नया पाप करते हैं? जिसका फल नरक उन्हें भोगना ही पड़ता है। इतना ही नहीं? दुराचारोंके द्वारा जो नये पाप होनेके बीज बोये जाते हैं अर्थात् उन दुराचारोंके द्वारा अहंतामें जो दुर्भाव बैठ जाते हैं? उनसे मनुष्यका बहुत भयंकर नुकसान होता है। जैसे? चोरीरूप कर्म करनेसे पहले मनुष्य स्वयं चोर बनता है क्योंकि वह चोर बनकर ही चोरी करेगा और चोरी करनेसे अपनेमें (अहंतामें) चोरका भाव दृढ़ हो जायगा (टिप्पणी प0 827.1)। इस प्रकार चोरीके संस्कार उसकी अहंतामें बैठ जाते हैं। ये संस्कार मनुष्यका बड़ा भारी पतन करते हैं -- उससे बारबार चोरीरूप पाप करवाते है और फलस्वरूप नरकोंमें ले जाते हैं। अतः जबतक वह मनुष्य अपना कल्याण नहीं कर लेता अर्थात् जबतक वह अपनी अहंतामें बैठाये हुए दुर्भावोंको नहीं मिटाता? तबतक वे दुर्भाव जन्मजन्मान्तरतक दुराचारोंको बल देते रहेंगे? उकसाते रहेंगे और उनके कारण वे आसुरी योनियोंमें तथा उससे भी भयङ्कर नरक आदिमें दुःख? सन्ताप? आफत आदि पाते ही रहेंगे।

उन आसुरी योनियोंमें भी उनकी प्रकृति और प्रवृत्तिके अनुसार यह देखा जाता है कि कई पशुपक्षी? भूतपिशाच? कीटपतंग आदि सौम्यप्रकृतिप्रधान होते हैं और कई क्रूरप्रकृतिप्रधान होते हैं। इस तरह उनकी प्रकृति(स्वभाव) में भेद उनकी अपनी बनायी हुई शुद्ध या अशुद्ध अहंताके कारण ही होते हैं। अतः उन योनियोंमें अपनेअपने कर्मोंका फलभोग होनेपर भी उनकी प्रकृतिके भेद वैसे ही बने रहते हैं। इतना ही नहीं सम्पूर्ण योनियोंको और नरकोंको भोगनेके बाद किसी क्रमसे अथवा भगवत्कृपासे उनको मनुष्यशरीर प्राप्त हो भी जाता है? तो भी उनकी अहंतामें बैठे हुए कामक्रोधादि दुर्भाव पहलेजैसे ही रहते हैं (टिप्पणी प0 827.2)। इसी प्रकार जो स्वर्गप्राप्तिकी कामनासे यहाँ शुभ कर्म करते हैं? और मरनेके बाद उन कर्मोंके अनुसार स्वर्गमें जाते हैं? वहाँ उनके कर्मोंका फलभोग तो हो जाता है? पर उनके स्वभावका परिवर्तन नहीं होता अर्थात् उनकी अहंतामें परिवर्तन नहीं होता (टिप्पणी प0 827.3)। स्वभावको बदलनेका? शुद्ध बनानेका मौका तो मनुष्यशरीरमें ही है।

 सम्बन्ध --   पूर्वश्लोकमें भगवान्ने कहा कि ये जीव मनुष्यशरीरमें मेरी प्राप्तिका अवसर पाकर भी मुझे प्राप्त नहीं करते? जिससे मुझे उनको अधम योनिमें भेजना पड़ता है। उनका अधम योनिमें और अधम गति(नरक) में जानेका मूल कारण क्या है -- इसको भगवान् आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।16.20।। इस श्लोक का तात्पर्य यह है कि जब तक मनुष्य अपनी आसुरी प्रवृत्तियों के वश में उनका दास बना रहता है तब तक वह उसी प्रकार के हीन जन्मों को प्राप्त होता रहता है। वह आत्मा के परमानन्द स्वरूप का अनुभव नहीं कर पाता है।अब तक दैवी और आसुरी सम्पदाओं का स्पष्ट एवं विस्तृत विवेचन किया गया है। बहुसंख्यक लोगों की न्यूनाधिक मात्रा में असुरों की श्रेणी में ही गणना की जा सकती है। परन्तु एक आध्यात्मिक साधक को केवल ऐसे वर्णनों से सन्तोष नहीं होता। वह अपनी पतित अवस्था से स्वयं का उद्धार करना चाहता है। अत? अब भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के माध्यम से मानवमात्र के आत्मविकास का पथ प्रदर्शन करते हैं। कोई भी व्यक्ति नित्य निरन्तर नारकीय यातनाओं का ही भागीदार नहीं हो सकता है शाश्वत नरक प्राप्ति का मत अयुक्तियुक्त और अदार्शनिक है।भगवान् कहते हैं

English Translation By Swami Adidevananda

16.20 Fallen into demoniac wombs in birth after birth, these deluded men, not attaining Me, further sink down to the lowest level, O Arjuna.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

16.20 Apannah, being born, having acired; (births) asurim, among the demoniacal; yonim, species; janmani janmani, in births after births; the mudhah, fools, non-discriminating ones; being born in every birth into species in which tamas prevails, and going downwards, aprapya eva, without ever reaching, approaching; mam, Me, who am God; O son of Kunti, yanti, they attain; gatim, conditions; tatah adhamam, lower even than that. Since there is not the least possibility of attaining Me, what is implied by saying, 'without ever reachin Me', is, 'by not attaining the virtuous path enjoined by Me.' This is being stated as a summary of all the demoniacal alities. The triplet-under which are comprehended all the different demoniacal alities though they are infinite in number, (and) by the avoidance of which (three) they (all the demaniacal alities) become rejected, and which is the root of all evils- is being stated:

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

16.20 'These deluded men,' viz., those entertaining perverse knowledge about Me, attain repeatedly births that tend them to be antagonistic to Me. Never 'attaining Me,' viz., never arriving at the knowledge that Vasudeva, the Lord and the ruler of all, truly exists, they go farther and farther down, from that birth, to the lowest level. Sri Krsna proceeds to explain the root-cause of the ruin to the self of demoniac nature: