मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे।।18.65।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.65।।तू मेरा भक्त हो जा, मेरेमें मनवाला हो जा, मेरा पूजन करनेवाला हो जा और मेरेको नमस्कार कर। ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त हो जायगा -- यह मैं तेरे सामने सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय है।
।।18.65।। भगवत्प्राप्ति के लिए आवश्यक चार गुणों को बताकर? भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन को आश्वासन देते हैं? तुम मुझे प्राप्त होगे। जब कभी तत्त्वज्ञान के सिद्धांत को संक्षेप में ही कहा जाता है? तब वह इतना सरल प्रतीत होता है कि सामान्य विद्यार्थीगण उसे गम्भीरता से समझने का प्रयत्न नहीं करते अथवा उसकी सर्वथा उपेक्षा कर देते हैं। इस प्रकार की त्रुटि का परिहार करने के लिए भगवान् श्रीकृष्ण पुन विशेष बल देकर कहते हैं? मैं तुम्हें सत्य वचन देता हूँ।बारम्बार उपदेश देने का कारण यह है कि तुम मेरे प्रिय हो। आध्यात्मिक उपदेश देने में प्रेम की भावना ही समीचीन उद्देश्य है। शिष्य के प्रति प्रेम न होने पर? गुरु के उपदेश में न प्रेरणा होती है और न आनन्द। एक व्यावसायिक अध्यापक तो केवल वेतनभोगी होता है। ऐसा अध्यापक न अपने विद्यार्थी वर्ग को न प्रेरणा दे सकता है और न स्वयं अपने हृदय में कृतार्थता का आनन्द अनुभव कर सकता है? जो कि अध्यापन का वास्तविक पुरस्कार है।किंचित परिवर्तन के साथ यह श्लोक इसके पूर्व भी एक अध्याय में आ चुका है। यहाँ भगवान् स्पष्ट घोषणा करते हैं कि वे विशुद्ध सत्य का ही प्रतिपादन कर रहे हैं।मन्मना भव मन का कार्य संकल्प करना है। अत इसका अर्थ है तुम अपने मन के द्वारा मेरी प्राप्ति का ही संकल्प करो।मद्भक्त ईश्वर की प्राप्ति का संकल्प केवल संकल्प की अवस्था में ही नहीं रह जाना चाहिए। इस संकल्प को निश्चयात्मक भक्ति में परिवर्तित करने की आवश्यकता होती है अत तुम मेरे भक्त बनो।मद्याजी भक्ति प्रेमस्वरूप है। और जहाँ प्रेम होता है वहाँ पूजा का होना स्वाभाविक है। ईश्वर जगत् का कारण होने से सम्पूर्ण जगत् में व्याप्त है। इसलिए ईश्वर की पूजा का अर्थ है जगत् की निस्वार्थ भाव से सेवा करना। भगवान् श्रीकृष्ण यही उपदेश देते हुए कहते हैं? तुम मद्याजी अर्थात् मेरे,पूजक बनो।मां नमस्कुरु गर्व और अभिमान से युक्त पुरुष किसी को विनम्र भाव से प्रणाम नहीं कर सकता है। मुझे नमस्कार करो इस उपदेश का अभिप्राय कर्तृत्वादि अहंकार का त्याग करने से है।परमात्मा के गुणों को सम्पादित करने के लिए साधक में नम्रता? श्रद्धा? भक्ति जैसे गुणों का प्रचुरता होनी चाहिए। जल के समान ही ज्ञान का प्रवाह ऊंची सतह से नीची सतह की ओर बढ़ता है। इस श्लोक में वर्णित भक्ति से सम्पन्न कोई भी साधक भगवत्प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है।तुम मुझे प्राप्त होगे यह भगवान् श्रीकृष्ण का सत्य आश्वासन है। श्री शंकराचार्य जी कहते हैं? कर्मयोग की साधना का परम रहस्य ईश्वरार्पण बुद्धि है। उस साधना के विषय का उपसंहार करने के पश्चात्? अब कर्मयोग के फलभूत आत्मदर्शन का वर्णन करना शेष है? जो समस्त उपनिषदों का सार है? अत भगवान् कहते हैं
18.65 मन्मनाः with mind fixed on Me, भव be, मद्भक्तः devoted to Me, मद्याजी sacrifice to Me, माम् to Me, नमस्कुरु bow down, माम् to Me, एव even, एष्यसि (thou) shalt come, सत्यम् truth, ते to thee, प्रतिजाने (I) promise, प्रियः dear, असि (thou) art, मे of Me.
Commentary:
Develop onepointedness of mind. Fix thy thought on Me. If the mind wanders bring it again and again to the centre or point or object of meditation, through constant practice. Offer all thy actions to Me. Let thy tongue utter My name. Let thy hands work for Me. Let thy feet move for Me. Let all thy actions be for Me. Give up hatred towards any living creature. Bow down to Me. Then thou wilt attain Me.The Lord gives Arjuna His definite word of promise or solemn declaration. Having received My grace thou wilt gain complete knowledge of Me and that in itself will indeed lead to thy absorption into My Being.O Arjuna, looking up to Me alone as thy aim and the sole refuge, thou shalt assuredly come to,Me.Have faith in the words of the Lord and make a solemn promise. Take the Lord as your sole refuge. You will attain final emancipation.The secret of devotion is to take the Lord as your sole refuge. In the next verse the Lord proceeds to speak of the gist of selfsurrender. (Cf.IX.34XII.8)