श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया।

शक्य एवंविधो द्रष्टुं दृष्टवानसि मां यथा।।11.53।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।11.53।। जिस प्रकार तुमने मुझे देखा है, इस प्रकारका (चतुर्भुजरूपवाला) मैं न तो वेदोंसे, न तपसे, न दानसे और न यज्ञसे ही देखा जा सकता हूँ।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।11.53।।कस्माद्देवा एतद्रूपं न दृष्टवन्तो न वा द्रक्ष्यन्ति मद्भक्तिशून्यत्वादित्याह -- नाहमिति। न वेदयज्ञाध्ययनैरित्यादिना। गतार्थः श्लोकः परमदुर्लभत्वख्यापनायाभ्यस्तः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।11.53।।एवं विश्वरूपस्य सुदुर्दर्शत्वं निरूप्य तदादिदृष्टस्य स्वस्यापि तदाह -- नाहं वेदैरिति। निरतिशयाक्षरैश्वर्योऽहमात्मा नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन। यमेवैष वृणुत (सः) तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा (वि) वृणुते तनूं स्वाम् [कठो.2।22मुंडको.3।2।2] इति वरणेतरसाधनैरशक्यः श्रुतोऽस्मि। एवंविधं मां त्वं यत् वरणेन सत्प्रकारेण स्वरूपयोग्यो दृष्टवानसि तथा च प्रवचनादिसाधनानां केवलात्मसाक्षात्कारपरतया जीवे स्वरूपयोग्यतासम्पादकत्वं? न साक्षात्पुरुषोत्तमनिरोधकत्वमिति सिद्धम्।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।11.53।। व्याख्या--'दृष्टवानसि मां यथा'--तुमने मेरा चतुर्भुजरूप मेरी कृपासे ही देखा है। तात्पर्य है कि मेरे दर्शन मेरी कृपासे ही हो सकते हैं, किसी योग्यतासे नहीं।

   'नाहं वेदैर्न तपसा न दानेन न चेज्यया शक्य एवंविधो द्रष्टुम्'--यह एक सिद्धान्तकी बात है कि जो चीज किसी मूल्यसे खरीदी जाती है, वह चीज उस मूल्यसे कम मूल्यकी ही होती है। जैसे, कोई दूकानदार एक घड़ी-सौ रुपयेमें बेचता है, तो उसने वह घड़ी कम मूल्यमें ली है, तभी तो वह सौ रुपयेमें देता है। इसी तरह अनेक वेदोंका अध्ययन करनेपर, बहुत बड़ी तपस्या करनेपर, बहुत बड़ा दान देनेपर तथा बहुत बड़ा यज्ञ-अनुष्ठान करनेपर भगवान् मिल जायँगे--ऐसी बात नहीं है। कितनी ही महान् क्रिया क्यों न हो, कितनी ही योग्यता सम्पन्न क्यों न की जाय, उसके द्वारा भगवान् खरीदे नहीं जा सकते। वे सब-के-सब मिलकर भी भगवत्प्राप्तिका मूल्य नहीं हो सकते। उनके द्वारा भगवान्पर अधिकार नहीं जमाया जा सकता। अर्जुनने इसी अध्यायके तैंतालीसवें श्लोकमें साफ कहा है कि त्रिलोकीमें आपके समान भी कोई नहीं है, फिर आपसे अधिक हो ही कैसे सकता है? तात्पर्य है कि आपसे अधिक हुए बिना आपपर अधिकार नहीं किया जा सकता।

   सांसारिक चीजोंमें तो अधिक योग्यतावाला कम योग्यतावालेपर आधिपत्य कर सकता है, अधिक बुद्धिमान् कम बुद्धिवालोंपर अपना रोब जमा सकता है, अधिक धनवान् निर्धनोंपर अपनी अधिकता प्रकट कर सकता है; परन्तु भगवान् किसी बल, बुद्धि, योग्यता, व्यक्ति, वस्तु आदिसे खरीदे नहीं जा सकते। कारण कि जिस भगवान्के संकल्पमात्रसे तत्काल अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रचना हो जाती है, उसे एक ब्रह्माण्डके भी किसी अंशमें रहनेवाले किसी वस्तु, व्यक्ति आदिसे कैसे खरीदा जा सकता है? तात्पर्य यह है कि भगवान्की प्राप्ति केवल भगवान्की कृपासे ही होती है। वह कृपा तब प्राप्त होती है, जब मनुष्य अपनी सामर्थ्य, समय, समझ, सामग्री आदिको भगवान्के सर्वथा अर्पण करके अपनेमें सर्वथा निर्बलता, अयोग्यताका अनुभव करता है अर्थात् अपने बल, योग्यता आदिका किञ्चिन्मात्र भी अभिमान नहीं करता। इस प्रकार जब वह सर्वथा निर्बल होकर अपनेआपको भगवान्के सर्वथा समर्पित करके अनन्यभावसे भगवान्को पुकारता है, तब भगवान् तत्काल प्रकट हो जाते हैं। कारण कि जबतक मनुष्यके अन्तःकरणमें प्राकृत वस्तु, योग्यता, बल, बुद्धि आदिका महत्त्व और सहारा रहता है, तबतक भगवान् अत्यन्त नजदीक होनेपर भी दूर दीखते हैं।इस श्लोकमें जो दुर्लभता बतायी गयी है, वह चतुर्भुज-रूपके लिये ही बतायी गयी है, विश्वरूपके लिये नहीं। अगर इसको विश्वरूपके लिये ही मान लिया जाय तो पुनरुक्ति-दोष आ जायगा; क्योंकि पहले अड़तालीसवें श्लोकमें विश्वरूपकी दुर्लभता बतायी जा चुकी है। दूसरी बात, आगेके श्लोकमें भगवान्ने अनन्यभक्तिसे अपनेको देखा जाना शक्य बताया है। विश्वरूपमें अनन्यभक्ति हो ही नहीं सकती, क्योंकि अर्जुन-जैसे शूरवीर पुरुष भगवान्से दिव्यदृष्टि प्राप्त करके भी विश्वरूपको देखकर भयभीत हो गये, तो उस रूपमें अनन्यभक्ति, अनन्यप्रेम, आकर्षण कैसे हो सकता है? अर्थात् नहीं हो सकता।

 सम्बन्ध--जब कोई किसी साधनसे, किसी योग्यतासे, किसी सामग्रीसे आपको प्राप्त नहीं कर सकता, तो फिर आप कैसे प्राप्त किये जाते हैं -- इसका उत्तर भगवान् आगेके श्लोकमें देते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।11.53।।तत्र हेत्वाकाङ्क्षायामाह -- नेति। यथा विश्वरुपं मां त्वं दृष्टवानसि। एवंविधोऽहं न वेदैः ऋगादिभिः न तपसोग्रेण चान्द्रायणादिना न दानेन गोदानादिना नचेज्यया जज्ञेन पूजया वाऽन्यैर्मदत्यन्तानुग्रहरहितैर्द्रष्टुं शक्यः।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।11.53। नाहमिति। न वेदयज्ञाध्ययनैरित्यनेनोक्त एवार्थः पुनरुच्यते विश्वरूपदर्शनस्यातिदौर्लभ्यसूचनाय। स्पष्टार्थश्च श्लोकः।