श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।12.2।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.2।।मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।12.2।।तत्र सर्वज्ञो भगवानर्जुनस्य सगुणविद्यायामेवाधिकारं पश्यंस्तं प्रति तां विधास्यति? यथाधिकारं तारतम्योपेतानि च साधनानि। अतः प्रथमं साकारब्रह्मविद्यां प्ररोचयितुं स्तुवन् प्रथमाः श्रेष्ठा इत्युत्तरं श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि भगवति वासुदेवे परमेश्वरे सगुणे ब्रह्मणि मन आवेश्यानन्यशरणतया निरतिशयप्रियतया च प्रवेश्य। हिङ्गुलरङ्ग इव जतु तन्मयं कृत्वा ये मां सर्वयोगेश्वराणामीश्वरं सर्वज्ञं समस्तकल्याणगुणनिलयं साकारं नित्ययुक्ताः सततोद्युक्ताः श्रद्धया परया प्रकृष्टया सात्त्विक्योपेताः सन्त उपासते सदा चिन्तयन्ति ते युक्ततमा मे मम मता अभिप्रेताः। ते हि सदा मदासक्तचित्ततया मामेव विषयान्तरविमुखाश्चिन्तयन्तोऽहोरात्राण्यतिवाहयन्ति। अतस्त एव युक्ततमा मता अभिमताः।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।12.2।।तत्र सिद्धान्तं वदन् श्रीभगवानुवाच -- मयीति। सर्वनियन्तरि सकलालौकिकगुणे साक्षान्मन्मथमन्मथे निरवद्या(ध्य)नन्तनित्यलोके करुणाशीले परमानन्दे लोकोत्तरनामरूपाङ्गेऽसङ्ख्येयसर्वधर्माश्रये परतत्त्वे रसात्मके पूर्णपुरुषोत्तमे साक्षात्कर्त्तरि परदेवतायां भगवति सर्वमूलभूते मयि ये प्रेममात्रसम्बन्धेन (येनकेन च सम्बन्धेन) नित्ययुक्ता मन आवेश्य मामुपासते।अयमेवास्माकं भजनीयगुणालयः परः प्रेयानात्मा? नान्यः इति परया श्रद्धयोपेतास्ते युक्ततमा मे मताः।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।12.2।। व्याख्या--[भगवान्ने ठीक यही निर्णय अर्जुनके बिना पूछे ही छठे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें दे दिया था। परन्तु उस विषयमें अपना प्रश्न न होनेके कारण अर्जुन उस निर्णयको पकड़ नहीं पाये। कारण कि स्वयंका प्रश्न न होनेसे सुनी हुई बात भी प्रायः लक्ष्यमें नहीं आती। इसलिये उन्होंने इस अध्यायके पहले श्लोकमें ऐसा प्रश्न किया।

   इसी प्रकार अपने मनमें किसी विषयको जाननेकी पूर्ण अभिलाषा और उत्कण्ठाके अभावमें तथा अपना प्रश्न न होनेके कारण सत्सङ्गमें सुनी हुई और शास्त्रोंमें पढ़ी हुई साधन-सम्बन्धी मार्मिक और महत्त्वपूर्ण बातें प्रायः साधकोंके लक्ष्यमें नहीं आतीं। अगर वही बात उनके प्रश्न करनेपर समझायी जाती है, तो वे उसको अपने लिये विशेषरूपसे कही गयी मानकर श्रद्धापूर्वक ग्रहण कर लेते हैं। प्रायः वे सुनी और पढ़ी हुई बातोंको अपने लिये न समझकर उनकी उपेक्षा कर देते हैं, जबकि उनमें उस बातके संस्कार सामान्यरूपसे रहते ही हैं, जो विशेष उत्कण्ठा होनेसे जाग्रत् भी हो सकते हैं। अतः साधकोंको चाहिये कि वे जो पढ़ें और सुनें, उसको अपने लिये ही मानकर जीवनमें उतारनेकी चेष्टा करें।]

    'मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ताः उपासते' -- मन वहीं लगता है, जहाँ प्रेम होता है। जिसमें प्रेम होता है, उसका चिन्तन स्वतः होता है।

    'नित्ययुक्ताः' का तात्पर्य है कि साधक स्वंय भगवान्में लग जाय। 'भगवान् ही मेरे हैं और मैं भगवान्का ही हूँ' -- यही स्वयंका भगवान्में लगना है। स्वयंका दृढ़ उद्देश्य भगवत्प्राप्ति होनेपर भी मन-बुद्धि स्वतः भगवान्में लगते हैं। इसके विपरीत स्वयंका उद्देश्य भगवत्प्राप्ति न हो तो मन-बुद्धिको भगवान्में लगानेका यत्न करनेपर भी वे पूरी तरह भगवान्में नहीं लगते। परन्तु जब स्वयं ही अपने-आपको भगवान्का मान ले, तब तो मन-बुद्धि भगवान्में तल्लीन हो ही जाते हैं। स्वयं कर्ता है और मनबुद्धि करण हैं। करण कर्ताके ही आश्रित रहते हैं। जब कर्ता भगवान्का हो जाय, तब मन-बुद्धिरूप करण स्वतः भगवान्में लगते हैं।

   साधकसे भूल यह होती है कि वह स्वयं भगवान्में न लगकर अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगानेका अभ्यास करता है। स्वयं भगवान्में लगे बिना मन-बुद्धिको भगवान्में लगाना कठिन है। इसीलिये साधकोंकी यह व्यापक शिकायत रहती है कि मन-बुद्धि भगवान्में नहीं लगते। मन-बुद्धि एकाग्र होनेसे सिद्धि (समाधि आदि) तो हो सकती है, पर कल्याण स्वयंके भगवान्में लगनेसे ही होगा।

  उपासनाका तात्पर्य है -- स्वयं-(अपने-आप-) को भगवान्के अर्पित करना कि मैं भगवान्का ही हूँ और भगवान् ही मेरे हैं। स्वयंको भगवान्के अर्पित करनेसे नाम-जप, चिन्तन, ध्यान, सेवा, पूजा आदि तथा शास्त्रविहित क्रियामात्र स्वतः भगवान्के लिये ही होती है।

  शरीर प्रकृतिका और जीव परमात्माका अंश है। प्रकृतिके कार्य शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहम्से तादात्म्य, ममता और कामना न करके केवल भगवान्को ही अपना माननेवाला यह कह सकता है कि मैं भगवान्का हूँ, भगवान् मेरे हैं। ऐसा कहने या माननेवाला भगवान्से कोई नया सम्बन्ध नहीं जो़ड़ता। चेतन और नित्य होनेके कारण जीवका भगवान्से सम्बन्ध स्वतःसिद्ध है। किन्तु उस नित्यसिद्ध वास्तविक सम्बन्धको भूलकर जीवने अपना सम्बन्ध प्रकृति एवं उसके कार्य शरीरसे मान लिया, जो अवास्तविक है। अतः जबतक प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध है, तभीतक भगवान्से अपना सम्बन्ध माननेकी आवश्यकता है। प्रकृतिसे माना हुआ सम्बन्ध टूटते ही भगवान्से अपना वास्तविक और नित्यसिद्ध सम्बन्ध प्रकट हो जाता है; उसकी स्मृति प्राप्त हो जाती है -- 'नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा' (गीता 18। 73)।

   जडता-(प्रकृति-) के सम्मुख होनेके कारण अर्थात् उससे सुखभोग करते रहनेके कारण जीव शरीरसे 'मैं' पनका सम्बन्ध जो़ड़ लेता है अर्थात् 'मैं शरीर हूँ' ऐसा मान लेता है। इस प्रकार शरीरसे माने हुए सम्बन्धके कारण वह वर्ण, आश्रम, जाति, नाम  व्यवसाय तथा बालकपन, जवानी आदि अवस्थाओंको बिना याद किये भी (स्वाभाविक रूपसे) अपनी ही मानता रहता है अर्थात् अपनेको उनसे अलग नहीं मानता।

  जीवकी विजातीय शरीर और संसारके साथ (भूलसे की हुई) सम्बन्धकी मान्यता भी इतनी दृढ़ रहती है कि बिना याद किये सदा याद रहती है। अगर वह अपने सजातीय (चेतन और नित्य) परमात्माके साथ अपने वास्तविक सम्बन्धको पहचान ले, तो किसी भी अवस्थामें परमात्माको नहीं भूल सकता। फिर उठते-बैठते खातेपीते, सोते-जागते हर समय प्रत्येक अवस्थामें भगवान्का स्मरण-चिन्तन स्वतः होने लगता है।

  जिस साधकका उद्देश्य सांसारिक भोगोंका संग्रह और उनसे सुख लेना नहीं है, प्रत्युत एकमात्र परमात्माको प्राप्त करना ही है, उसके द्वारा भगवान्से अपने सम्बन्धकी पहचान आरम्भ हो गयी--ऐसा मान लेना चाहिये। इस सम्बन्धकी पूर्ण पहचानके बाद साधकमें मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ, शरीर आदिके द्वारा सांसारिक भोग और उनका संग्रह करनेकी इच्छा बिलकुल नहीं रहती।

  वास्तवमें एकमात्र भगवान्का होते हुए जीव जितने अंशमें प्रकृतिसे सुख-भोग प्राप्त करना चाहता है, उतने ही अंशमें उसने इस भगवत्सम्बन्धको दृढ़तापूर्वक नहीं पकड़ा है। उतने अंशमें उसका प्रकृतिके साथ ही सम्बन्ध है। इसलिये साधकको चाहिये कि वह प्रकृतिसे विमुख होकर अपने-आपको केवल भगवान्का ही माने, उन्हींके सम्मुख हो जाय।

   'श्रद्धया परयोपेतास्ते ये युक्ततमा मताः' -- साधककी श्रद्धा वहीं होगी, जिसे वह सर्वश्रेष्ठ समझेगा। श्रद्धा होनेपर अर्थात् बुद्धि लगनेपर वह अपने द्वारा निश्चित किये हुए सिद्धान्तके अनुसार स्वाभाविक जीवन बनायेगा और अपने सिद्धान्तसे कभी विचलित नहीं होगा।

   जहाँ प्रेम होता है, वहाँ मन लगता है और जहाँ श्रद्धा होती है, वहाँ बुद्धि लगती है। प्रेममें प्रेमास्पदके सङ्गकी तथा श्रद्धामें आज्ञापालनकी मुख्यता रहती है।

   एकमात्र भगवान्में प्रेम होनेसे भक्तको भगवान्के साथ नित्यनिरन्तर सम्बन्धका अनुभव होता है, कभी वियोगका अनुभव होता ही नहीं। इसीलिये भगवान्के मतमें ऐसे भक्त ही वास्तवमें उत्तम योगवेत्ता हैं।

यहाँ 'ते मे युक्ततमा मताः' बहुवचनान्त पदसे जो बात कही गयी है, यही बात छठे अध्यायके सैंतालीसवें श्लोकमें 'स मे युक्ततमो मतः' एकवचनान्त पदसे कही जा चुकी है (टिप्पणी प0 625)

 सम्बन्ध--पूर्वश्लोकमें भगवान्ने सगुण-उपासकोंको सर्वश्रेष्ठ योगी बताया। इसपर यह प्रश्न हो सकता है कि क्या निर्गुण-उपासक सर्वश्रेष्ठ योगी नहीं हैं इसके उत्तरमें भगवान् कहते हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।12.2।।सविशेषानिर्विशेषोपासनयोः सुशकत्वगुणेन किमुपासनं श्रष्ठमिति पृच्छते किंवा साक्षान्मोक्षहेतुत्वेन गुणेनेति विकल्प्य? साक्षान्मोक्षहेतुत्वेन श्रैष्ठ्यं निर्विशेषोपासनस्योक्तं वक्ष्यमाणं च सुशकत्वेन तु प्रथमस्य श्रृण्वित्याशयवान् श्रीभगवानुवाच। मयि विश्वरुपे परमेश्वरं त्रिगुणमायानदीनर्तके सर्वात्मनि परमप्रमास्पदे ये मन आवेश्य समाधाय भक्तः सन्तो मां समस्तयोगादीश्वराधीश्वरं सर्वज्ञं त्यक्तरागादिरुपक्लेशनिमित्तभूतानाद्यज्ञानाविद्यालक्षणमिध्यादृष्टिं नित्ययुक्ताःमत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्तः सङ्गवर्जितः। निर्वैरः सर्वभूतेषु यः सस मामेति पाण्डव इत्येवं सततयुक्ताः श्रद्धया परया प्रकृष्टया ईश्वरभजनादेवोद्धार इति निश्चयापन्ना उपासते ते मम युक्ततमाः श्रेष्ठतमा मता अभिप्रेताः यतो विषान्तरविमुखा नैरन्तर्येण मयि मन आवेश्य मामेवाहर्निशं चिन्तयन्तीत्यत इति भावः। येतु मे मतमिति ज्ञानिनमात्मत्वेनैव पश्यतो मर्खेष्वपि,कारुण्यात्पक्षपातवतः सर्वज्ञस्य युक्ततमा मता इति वदन्ति तेषां पक्षेऽस्मिन्प्रकरणे एतदुक्ते सामञ्जस्यं चिन्त्यम्। भगवता कारुण्यात्पक्षापातेन युक्ततमत्वेनाभिमतानां भगवद्भक्तानां सुशकोपासने प्रवृत्ता अतो युक्तातमा इति वस्तुवृत्त्याऽभिप्रेतस्य श्रेष्ठतमत्वस्यासिद्धेः स्पष्टत्वात्।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।12.2।।निर्गुणस्य दुष्प्रापत्वोक्त्यैव श्रेष्ठत्वं सूचयन् सगुणप्राशस्त्यं च शब्दतो दर्शयन् श्रीभगवानुवाच -- मयीति। मयि सगुणे ब्रह्मणि मन आवेश्य प्रवेश्य ये नित्ययुक्ताः सदोद्युक्ता मां परमेश्वरमुपासते चिन्तयन्ति श्रद्धया आस्तिक्यबुद्ध्या परया सात्विक्या अवश्यं परमात्मायमाराधितोऽस्मांस्तारयिष्यतीत्येवं निश्चयरूपया श्रद्धया उपेतास्ते मे ममज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् इति ज्ञानिनमात्मत्वेनैव पश्यतो मूर्खेष्वपि कारुण्यात्पक्षपातवतः सर्वज्ञस्य युक्ततमा मताः।