श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।

 

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।6.47।। सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।

Sanskrit Commentary By Sri Madhusudan Saraswati

।।6.47।।इदानीं सर्वयोगिश्रेष्ठं योगिनं वदन्नध्यायमुपसंहरति योगिनां वसुरुद्रादित्यादिक्षुद्रदेवताभक्तानां सर्वेषामपि मध्ये मयि भगवति वासुदेवे पुण्यपरिपाकविशेषाद्गतेन प्रीतिवशान्निविष्टेन मद्गतेनान्तरात्मनान्तःकरणेन प्राग्भवीयसंस्कारपाटवात्साधुसङ्गाच्च मद्भजन एव श्रद्धावानतिशयेन श्रद्दधानः सन् भजते सेवते सततं चिन्तयति यो मां नारायणमीश्वरेश्वरं सगुणं निर्गुणं वा मनुष्योऽयमीश्वरान्तरसाधारणोऽयमित्यादिभ्रमं हित्वा स एव मद्भक्तो योगी युक्ततमः सर्वेभ्यः समाहितचित्तेभ्यो युक्तेभ्यः श्रेष्ठो मे मम परमेश्वरस्य सर्वज्ञस्य मतो निश्चितः। समानेऽपि योगाभ्यासक्लेशे समानेऽपिभजनायासे मद्भक्तिशून्येभ्यो मद्भक्तस्यैव श्रेष्ठत्वात्त्वं मद्भक्तः परमो युक्ततमोऽनायासेन भवितुं शक्ष्यसीति भावः। तदनेनाध्यायेन कर्मयोगस्य बुद्धिशुद्धिहेतोर्मर्यादां दर्शयता ततश्च कृतसर्वकर्मसंन्यासस्य साङ्गं योगं विवृण्वता मनोनिग्रहोपायं चाक्षेपनिरासपूर्वकमुपदिशता योगभ्रष्टस्य पुरुषार्थशून्यताशङ्कां च शिथिलयता कर्मकाण्डं त्वंपदार्थनिरूपणं च समापितम्। अतःपरं श्रद्धावान्भजते यो मामिति सूत्रितं भक्तियोगं भजनीयं च भगवन्तं वासुदेवं तत्पदार्थं निरूपयितुमग्रिममध्यायषट्कमारभ्यत इति शिवम्।

Sanskrit Commentary By Sri Vallabhacharya

।।6.47।।योगिनामपि सर्वेषां मध्ये मत्पुष्टिभक्तिपरायणः श्रेष्ठः। यन्निरुद्धं मय्येव चित्तं फलादौ च समं योगेऽपेक्षितं युक्तं तथाभूतेनान्तरात्मा श्रद्धावान् श्रीमदाचार्यवर्योपदेशवाक्येष्वास्तिक्यबुद्धिमान् सन् मां वासुदेवं भजते सेवते यः स मे युक्ततमो मतः। अतो योगफलितशरणभक्तिमान् भवेति गूढाभिसन्धिः। अतएवोक्तमाचार्यरत्नैः साङ्ख्ययोगौ निरूप्यादौ मोहमुत्सार्य फाल्गुने। भक्तिपीयूषपातारं कृतवानिति संग्रहः। उक्तमध्यायषट्केऽपि स्वधर्मकरणं मतम्। विवेकेन च धैर्येण साङ्ख्ये योगे च भक्तितः। सूत्रवदिदमुक्तम्।

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।6.47।। व्याख्या--'योगिनामपि सर्वेषाम्'--जिनमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी मुख्यता है, जो कर्मयोग, सांख्ययोग, हठयोग, मन्त्रयोग, लययोग आदि साधनोंके द्वारा अपने स्वरूपकी प्राप्ति-(अनुभव-) में ही लगे हुए हैं, वे योगी सकाम तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे श्रेष्ठ हैं। परन्तु उन सम्पूर्ण योगियोंमें भी केवल मेरे साथ सम्बन्ध जोड़नेवाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है।

'यः श्रद्धावान्'--जो मेरेपर श्रद्धा और विश्वास करता है अर्थात् जिसके भीतर मेरी ही सत्ता और महत्ता है, ऐसा वह श्रद्धावान् भक्त मेरेमें लगे हुए मनसे मेरा भजन करता है।'मद्गतेनान्तरात्मना मां भजते'--मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं--इस प्रकार जब स्वयंका भगवान्में अपनापन हो जाता है, तब मन स्वतः ही भगवान्में लग जाता है तल्लीन हो जाता है। जैसे विवाह होनेपर लड़कीका मन स्वाभाविक ही ससुरालमें लग जाता है, ऐसे ही भगवान्में अपनापन होनेपर भक्तका मन स्वाभाविक ही भगवान्में लग जाता है, मनको लगाना नहीं पड़ता। फिर खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते आदि सभी क्रियाओंमें मन भगवान्का ही चिन्तन करता है, भगवान्में ही लगा रहता है।जो केवल भगवान्का ही हो जाता है, जिसका अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं रहता, उसकी साधन-भजन, जप-कीर्तन, श्रवण-मनन आदि सभी पारमार्थिक क्रियाएँ; खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि सभी शारीरिक क्रियाएँ और खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका-सम्बन्धी क्रियाएँ भजन हो जाती हैं।अनन्यभक्तके भजनका स्वरूप भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें बताया है कि वह भक्त मेरी प्रसन्नताके लिये ही सभी कर्म करता है, सदा मेरे ही परायण रहता है, केवल मेरा ही भक्त है, संसारका भक्त नहीं है, संसारकी आसक्तिको सर्वथा छोड़ देता है और सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित हो जाता है।

'स मे युक्ततमो मतः'--संसारसे विमुख होकर अपना उद्धार करनेमें लगनेवाले जितने योगी (साधक) हो सकते हैं, वे सभी 'युक्त' हैं। जो सगुण-निराकारकी अर्थात् व्यापकरूपसे सबमें परिपूर्ण परमात्माकी शरण लेते हैं, वे सभी 'युक्ततर' हैं। परन्तु जो केवल मुझ सगुण भगवान्के ही शरण होते हैं, वे मेरी मान्यतामें 'युक्ततम' हैं।वह भक्त युक्ततम तभी होगा, जब कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि सभी योग उसमें आ जायँगे।श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्में तल्लीन हुए मनसे भजन करनेपर उसमें सभी योग आ जाते हैं। कारण कि भगवान् महायोगेश्वर हैं, सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर हैं, तो महायोगेश्वरके शरण होनेपर शरणागतका कौन-सा योग बाकी रहेगा? वह तो सम्पूर्ण योगोंसे युक्त हो जाता है। इसलिये भगवान् उसको युक्ततम कहते हैं।युक्ततम भक्त कभी योगभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। कारण कि उसका मन भगवान्को नहीं छोड़ता, तो भगवान् भी उसको नहीं छोड़ सकते। अन्तसमयमें वह पीड़ा, बेहोशी आदिके कारण भगवान्को याद न कर सके, तो भगवान् उसको याद करते हैं (टिप्पणी प0 385); अतः वह योगभ्रष्ट हो ही कैसे सकता है? 

तात्पर्य है कि जो संसारसे सर्वथा विमुख होकर भगवान्के ही परायण हो गया है, जिसको अपने बलका, उद्योगका, साधनका सहारा, विश्वास और अभिमान नहीं है ,ऐसे भक्तको भगवान् योगभ्रष्ट नहीं होने देते; क्योंकि वह भगवान्पर ही निर्भर होता है। जिसके अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है तथा जिसको अपने पुरुषार्थका सहारा, विश्वास और अभिमान है, उसीके योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है। कारण कि अन्तःकरणमें भोगोंका महत्त्व होनेपर परमात्माका ध्यान करते हुए भी मन संसारमें चला जाता है। इस प्रकार अगर प्राण छूटते समय मन संसारमें चला जाय, तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। अगर अपने बलका सहारा, विश्वास और अभिमान न हो, तो मन संसारमें जानेपर भी वह योगभ्रष्ट नहीं होता। कारण कि ऐसी अवस्था आनेपर (मन संसारमें जानेपर) वह भगवान्को पुकारता है। अतः ऐसे भगवान्पर निर्भर भक्तका चिन्तन भगवान् स्वयं करते हैं, जिससे वह योगभ्रष्ट नहीं होता; प्रत्युत भगवान्को प्राप्त हो जाता है।यहाँ भक्तियोगीको सर्वश्रेष्ठ बतानेसे यह सिद्ध होता है कि दूसरे जितने योगी हैं, उनकी पूर्णतामें कुछ-न-कुछ कमी रहती होगी? संसारका सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे सभी योगी बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, निर्विकार हो जाते हैं और परम सुख, परम शान्ति, परम आनन्दका अनुभव करते हैं--इस दृष्टिसे तो किसीकी भी पूर्णतामें कोई कमी नहीं रहती। परन्तु जो अन्तरात्मासे भगवान्में लग जाता है, भगवान्के साथ ही अपनापन कर लेता है, उसमें भगत्वप्रेम प्रकट हो जाता है। वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि, क्षति और पूर्तिसे रहित है। ऐसा प्रेम प्रकट होनेसे ही भगवान्ने उसको सर्वश्रेष्ठ माना है।पाँचवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने पूछा कि सांख्ययोग और योग--इन दोनोंमें श्रेष्ठ कौन-सा है ?तो भगवान्ने अर्जुनके प्रश्नके अनुसार वहाँपर कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया। परन्तु अर्जुनके लिये कौन-सा योग श्रेष्ठ है, यह बात नहीं बतायी। उसके बाद सांख्ययोग और कर्मयोगकी साधना कैसी चलती है--इसका विवेचन करके छठे अध्यायके आरम्भमें कर्मयोगकी विशेष महिमा कही। जो तत्त्व (समता) कर्मयोगसे प्राप्त होता है, वही तत्त्व ध्यानयोगसे भी प्राप्त होता है--इस बातको लेकर ध्यानयोगका वर्णन किया। ध्यानयोगमें मनकी चञ्चलता बाधक होती है--इस बातको लेकर अर्जुनने मनके विषयमें प्रश्न किया। इसका उत्तर भगवान्ने संक्षेपसे दे दिया। फिर अर्जुनने पूछा कि योगका साधन करनेवाला अगर अन्तसमयमें योगसे विचलितमना हो जाय, तो उसकी क्या दशा होती है? इसके उत्तरमें भगवान्ने योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन किया और छियालीसवें श्लोकमें योगीकी विशेष महिमा कहकर अर्जुनको योगी बननेके लिये स्पष्टरूपसे आज्ञा दी। परन्तु मेरी मान्यतामें कौन-सा योग श्रेष्ठ है--यह बात भगवान्ने यहाँतक स्पष्टरूपसे नहीं कही। अब यहाँ अन्तिम श्लोकमें भगवान् अपनी मान्यताकी बात अपनी ही तरफसे (अर्जुनके पूछे बिना ही) कहते हैं कि मैं तो भक्तियोगीको श्रेष्ठ मानता हूँ--'स मे युक्ततमो मतः'। परन्तु ऐसा स्पष्टरूपसे कहनेपर भी अर्जुन भगवान्की बातको पकड़ नहीं पाये। इसलिये अर्जुन आगे बारहवें अध्यायके आरम्भमें पुनः प्रश्न करेंगे कि आपकी भक्ति करनेवाले और अविनाशी निराकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-सा है? तो उत्तरमें भगवान् अपने भक्तको ही श्रेष्ठ बतायेंगे, जैसा कि यहाँ बताया है (टिप्पणी प0 386)

विशेष बात

कर्मयोगी, ज्ञानयोगी आदि सभी युक्त हैं अर्थात् सभी संसारसे विमुख हैं और समता-(चेतन-तत्त्व-) के सम्मुख हैं। उनमें भी भक्तियोगी-(भक्त) को सर्वश्रेष्ठ बतानेका तात्पर्य है कि यह जीव परमात्माका अंश है, पर संसारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर यह बँध गया है। जब यह संसार-शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धको छोड़ देता है, तब यह स्वाधीन और सुखी हो जाता है। इस स्वाधीनताका भी एक भोग होता है। यद्यपि इस स्वाधीनतामें पदार्थों, व्यक्तियों, क्रियाओँ, परिस्थितियों आदिकी कोई पराधीनता नहीं रहती, तथापि इस स्वाधीनताको लेकर जो सुख होता है अर्थात् मेरेमें दुःख नहीं है, संताप नहीं है लेशमात्र भी कोई इच्छा नहीं है--यह जो सुखका भोग होता है, यह स्वाधीनतामें भी परिच्छिन्नता (पराधीनता) है। इसमें संसारके साथ सूक्ष्म सम्बन्ध बना हुआ है। इसलिये इसको 'ब्रह्मभूत अवस्था' कहा गया है (गीता 18। 54)।जबतक सुखके अनुभवमें स्वतन्त्रता मालूम देती है, तबतक सूक्ष्म अहंकार रहता है। परन्तु इसी स्थितिमें (ब्रह्मभूत अवस्थामें) स्थित रहनेसे वह अहंकार भी मिट जाता है। कारण कि प्रकृति और उसके कार्यके साथ सम्बन्ध न रखनेसे प्रकृतिका अंश 'अहम्' अपने-आप शान्त हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगी, ज्ञानयोगी भी अन्तमें समय पाकर अहंकारसे रहित हो जाते हैं। परन्तु भक्तियोगी तो आरम्भसे ही भगवान्का हो जाता है। अतः उसका अहंकार आरम्भमें ही समाप्त हो जाता है! ऐसी बात गीतामें भी देखनेमें आती है कि जहाँ सिद्ध कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगीके लक्षणोंका वर्णन हुआ है, वहाँ कर्मयोगी और ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें तो करुणा और कोमलता देखनेमें नहीं आती, पर भक्तोंके लक्षणोंमें देखनेमें आती है। इसलिये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें तो 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च' (12। 13)--ये पद आये हैं, पर सिद्ध कर्मयोगी और ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें ऐसे पद नहीं आये हैं। तात्पर्य है कि भक्त पहलेसे ही छोटा होकर चलता है (टिप्पणी प0 387), अतः उसमें नम्रता, कोमलता, भगवान्के विधानमें प्रसन्नता आदि विलक्षण बातें साधनावस्थामें ही आ जाती हैं और सिद्धावस्थामें वे बातें विशेषतासे आ जाती हैं। इसलिये भक्तमें सूक्ष्म अहंकार भी नहीं रहता। इन्हीं कारणोंसे भगवान्ने भक्तको सर्वश्रेष्ठ कहा है।शान्ति, स्वाधीनता आदिका रस चिन्मय होते हुए भी 'अखण्ड' है। परन्तु भक्तिरस चिन्यम होते हुए भी 'प्रतिक्षण वर्धमान' है अर्थात् वह नित्य नवीनरूपसे बढ़ता ही रहता है, कभी घटता नहीं, मिटता नहीं और पूरा होता नहीं। ऐसे रसकी, प्रेमानन्दकी भूख भगवान्को भी है। भगवान्की इस भूखकी पूर्ति भक्त ही करता है। इसलिये भगवान् भक्तको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।इसमें एक बात और समझनेकी है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग--इन दोनोंमें तो साधककी अपनी निष्ठा (स्थिति) होती है, पर भक्तकी अपनी कोई स्वतन्त्र निष्ठा नहीं होती। भक्त तो सर्वथा भगवान्के ही आश्रित रहता है भगवान्पर ही निर्भर रहता है, भगवान्की प्रसन्नतामें ही प्रसन्न रहता है--'तत्सुखे सुखित्वम्।' उसको अपने उद्धारकी भी चिन्ता नहीं होती। हमारा क्या होगा? इधर उसका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसे भगवन्निष्ठ भक्तका सारा भार, सारी देखभाल भगवान्पर ही आती है--'योगक्षेमं वहाम्यहम्।' 

इस प्रकाऱँ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें आत्मसंयमयोग नामका छठा अध्याय पूर्ण हुआ।।6।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Dhanpati

।।6.47।।योगिनामन्यदेवताध्यानयुक्तानामपि सर्वेषां मध्ये मद्गतेन मयि वासुदेवे समाहितेनान्तरात्मनान्तःकरणेन श्रद्धावान्वासुदेवान्न परं किंचिदिति श्रद्दधानः सन् यो मां भजते सेवते स मेऽतिशयेन यक्तो युक्ततमः सर्वोत्तमो ध्यानयोगी मतोऽभिप्रेतः। अतस्त्वमेतादृशो ध्यानयोगी भवेत्याशयः। तदनेने षष्ठाध्यायेन कर्मयोगस्य संन्यासहेतोर्मर्यादारुपं साङ्ग ध्यानयोगं मनोनिग्रहोपायं योगभ्रष्टस्य दुर्गत्यभावेन सुगत्या मोक्षाप्तिं वासुदेवभजनस्य श्रैष्ठ्यं च दर्शयताऽनेन साधनेन शुद्धत्वंपदार्थोभिज्ञस्य वाक्यार्थज्ञानान्मोक्ष िति प्रसाधितम्।।ईशाराधनतत्परेण मनसा कर्मादिसंतन्वता कर्तृत्वादिविवर्जितेन निगमैर्लब्धा विशुद्धात्मता। येनाप्तं परमैकतां सुखधनां स्वं नौमि तं शाश्वतं प्रत्यञ्चं परमार्थतो भ्रमवशाज्जीवं स्वरुपाच्च्युतम्।इति श्रीपरमहंसपरिव्राजकाचार्यश्रीबालस्वामिश्रीपादशिष्यदत्तवंशावतंसरामकुमारसुनुधनपतिविदुषा विरचितायां श्रीगीताभाष्योत्कर्षदीपिकायां षष्ठोऽध्यायः समाप्तः।।6।।

Sanskrit Commentary By Sri Neelkanth

।।6.47।।समाप्तः कर्मप्रधानस्त्वंपदार्थविवेकः। अतःपरमुपासनाप्राधान्येन तत्पदार्थं निरूपयितुकामस्तदुपासनां महाफलत्वेन स्तौति योगिनामिति। दैवमेवापरे यज्ञमित्यादिना चतुर्थाध्यायप्रोक्ता द्वादशयोगास्तद्वतां योगिनां सर्वेषां मध्ये यो मद्गतेन मयि वासुदेवे समर्पितेनान्तरात्मना चित्तेन श्रद्धावान्सन् मां भजते स मे मम युक्ततमोऽतिशयेन युक्तः श्लाघ्यो मतोऽभिप्रेतः। तस्मान्मद्भक्तो भवेति भावः।