श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

 2.2।। व्याख्या--'अर्जुन'-- यह सम्बोधन देनेका तात्पर्य है कि तुम स्वच्छ, निर्मल अन्तःकरणवाले हो। अतः तुम्हारे स्वभावमें कालुष्य--कायरताका आना बिलकुल विरुद्ध बात है। फिर यह तुम्हारेमें कैसे आ गयी?
 'कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्'-- भगवान् आश्चर्य प्रकट करते हुए अर्जुनसे कहते हैं कि ऐसे युद्धके मौकेपर तो तुम्हारेमें शूरवीरता, उत्साह आना चाहिये था, पर इस बेमौकेपर तुम्हारेमें यह कायरता कहाँसे आ गयी!
आश्चर्य दो तरहसे होता है--अपने न जाननेके कारण और दूसरेको चेतानेके लिए। भगवान्का यहाँ जो

आश्चर्य-पूर्वक बोलना है, वह केवल अर्जुनको चेतानेके लिये ही है, जिससे अर्जुनका ध्यान अपने कर्तव्यपर चला जाय। 'कुतः'  कहनेका तात्पर्य यह है कि मूलमें यह कायरतारूपी दोष तुम्हारेमें (स्वयंमें) नहीं है। यह तो आगन्तुक दोष है, जो सदा रहनेवाला नहीं है।'समुपस्थितम्' कहनेका तात्पर्य है कि यह कायरता केवल तुम्हारे भावोंमें और वचनोंमें ही नहीं आयी है; किन्तु तुम्हारी क्रियाओंमें भी आ गयी है। यह तुम्हारेपर अच्छी तरहसे छा गयी है, जिसके कारण तुम धनुष-बाण छोड़कर रथके मध्यभागमें बैठ गये हो।

'अनार्यजुष्टम्' (टिप्पणी प0 38.2)--समझदार श्रेष्ठ मनुष्योंमें जो भाव पैदा होते हैं, वे अपने कल्याणके उद्देश्यको लेकर ही होते हैं। इसलिये श्लोकके उत्तरार्धमें भगवान् सबसे पहले उपर्युक्त पद देकर कहते हैं कि तुम्हारेमें जो कायरता आयी है, उस कायरताको श्रेष्ठ पुरुष स्वीकार नहीं करते। कारण कि तुम्हारी इस कायरतामें अपने कल्याणकी बात बिलकुल नहीं है। कल्याण चाहनेवाले श्रेष्ठ मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनोंमें अपने कल्याणका ही उद्देश्य रखते हैं। उनमें अपने कर्तव्यके प्रति कायरता उत्पन्न नहीं होती। परिस्थितिके अनुसार उनको जो कर्तव्य प्राप्त हो जाता है, उसको वे कल्याणप्राप्तिके उद्देश्यसे उत्साह और तत्परतापूर्वक साङ्गोपाङ्ग करते हैं। वे तुम्हारे-जैसे कायर होकर युद्धसे या अन्य किसी कर्तव्य-कर्मसे उपरत नहीं होते। अतः युद्धरूपसे प्राप्त कर्तव्य-कर्मसे उपरत होना तुम्हारे लिये कल्याणकारक नहीं है।
 'अस्वर्ग्यम्'--कल्याणकी बात सामने न रखकर अगर सांसारिक दृष्टिसे भी देखा जाय, तो संसारमें स्वर्गलोग ऊँचा है। परन्तु तुम्हारी यह कायरता स्वर्गको देनेवाली भी नहीं है अर्थात् कायरतापूर्वक युद्धसे निवृत्त होनेका फल स्वर्गकी प्राप्ति भी नहीं हो सकता।
 'अकीर्तिकरम्'--अगर स्वर्गप्राप्तिका भी लक्ष्य न हो, तो अच्छा माना जानेवाला पुरुष वही काम करता है, जिससे संसारमें कीर्ति हो। परन्तु तुम्हारी यह जो कायरता है यह इस लोकमें भी कीर्ति (यश) देनेवाली नहीं है, प्रत्युत अपकीर्ति (अपयश) देनेवाली है। अतः तुम्हारेमें कायरताका आना सर्वथा ही अनुचित है।

भगवान्ने यहाँ  'अनार्यजुष्टम् अस्वर्ग्यम् और अकीर्तिकरम्'--ऐसा क्रम देकर तीन प्रकारके मनुष्य बताये हैं (1) जो विचारशील मनुष्य होते हैं वे केवल अपना कल्याण ही चाहते हैं। उनका ध्येय, उद्देश्य केवल कल्याणका ही होता है। (2) जो पुण्यात्मा मनुष्य होते हैं, वे शुभ-कर्मोंके द्वारा स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं। वे स्वर्गको ही श्रेष्ठ मानकर उसकी प्राप्तिका ही उद्देश्य रखते हैं। (3) जो साधारण मनुष्य होते हैं, वे संसारको ही आदर देते हैं। इसलिये वे संसारमें अपनी कीर्ति चाहते हैं और उस कीर्तिको ही अपना ध्येय मानते हैं।
उपर्युक्त तीनों पद देकर भगवान् अर्जुनको सावधान करते हैं कि तुम्हारा जो यह युद्ध न करनेका निश्चय है, यह विचारशील और पुण्यात्मा मनुष्योंके ध्येय--कल्याण और स्वर्गको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है, तथा साधारण मनुष्योंके ध्येय--कीर्तिको प्राप्त करानेवाला भी नहीं है। अतः मोहके कारण तुम्हारा युद्ध न करनेका निश्चय बहुत ही तुच्छ है, जो कि तुम्हारा पतन करनेवाला, तुम्हें नरकोंमें ले जानेवाला और तुम्हारी अपकीर्ति करनेवाला होगा।

सम्बन्ध -- कायरता आनेके बाद अब क्या करें? इस जिज्ञासाको दूर करनेके लिये भगवान् कहते हैं--

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.2।।No such translation is available. Translation starts from 2.10

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.2।। अपने आप को आर्य कहलाने वाले एक राजा को युद्धभूमि में इस प्रकार हतबुद्धि देखकर भगवान् को आश्चर्य हो रहा था। एक सच्चे आर्य अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष का स्वभाव तो यह होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी परिस्थिति में अपने मनसंयम से विचलित न होकर उन परिस्थितियों का कुशलता से सामना करता है और उनको अपने अनुकूल बना लेता है। समुचित शैली में जीवन यापन करके अत्यन्त प्रतिकूल और विषम परिस्थितियों को भी आनन्ददायक सफलता में परिवर्तित किया जा सकता है। यह सब मनुष्य की बुद्धिमत्ता पर निर्भर है कि वह अपने आप को जीवन के उत्थानपतन में सही दिशा में किस प्रकार ले जाता है। यहाँ भगवान् अर्जुन के आचरण को अनार्य कहते हैं। आर्य पुरुष जीवन के उच्च आदर्शों पवित्रता और गरिमा के आह्वान के प्रति सदैव जागरूक और प्रयत्नशील रहते हैं ।
अर्जुन की इस शोकाकुल अवस्था को देखकर श्रीकृष्ण को आश्चर्य इसलिये हो रहा था कि वे दीर्घ काल से अच्छी प्रकार जानते थे और इस प्रकार का शोकमोह अर्जुन के स्वभाव के सर्वथा विपरीत था। इसीलिये वे यहाँ कहते हैं तुमको इस विषमस्थल में৷৷.आदि।
हिन्दुओं का यह विश्वास है कि क्षत्रिय कुल में जन्मे हुये व्यक्ति का कर्तव्य है धर्म के लिये युद्ध करना और इस प्रकार यदि उसे रणभूमि में प्राण त्यागना पड़े तो उस वीर को स्वर्ग की प्राप्ति होती है।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.2।। श्रीभगवान् बोले (टिप्पणी प0 38.1) - हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.2।। श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ?  यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।