श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

 2.60।। व्याख्या-- 'यततो ह्यपि ৷৷. प्रसभं मनः'-- (टिप्पणी प0 98.1) जो स्वयं यत्न करता है, साधन करता है, हरेक कामको विवेक-पूर्वक करता है, आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करता है, दूसरोंका हित हो दूसरोंको सुख पहुँचे, दूसरोंका कल्याण हो--ऐसा भाव रखता है और वैसी क्रिया भी करता है, जो स्वयं कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य ,सार-असारको जानता है और कौन-कौन-से कर्म करनेसे उनका क्या-क्या परिणाम होता है--इसको भी जाननेवाला है, ऐसे विद्वान पुरुषके लिय यहाँ 'यततो ह्यपि पुरुषस्य विपश्चितः' पद आये हैं। प्रयत्न करनेवाले ऐसे विद्वान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं विषयोंकी तरफ खींच लेती हैं, अर्थात् वह विषयोंकी तरफ खिंच जाता है आकृष्ट हो जाता है। इसका कारण यह है कि जबतक बुद्धि सर्वथा परमात्म-तत्त्वमें प्रतिष्ठित (स्थित) नहीं होती, बुद्धिमें संसारकी यत्किञ्चित् सत्ता रहती है, विषयेन्द्रिय-सम्बन्धसे सुख होता है, भोगे हुए भोगोंके संस्कार रहते हैं, तबतक साधनपरायण बुद्धिमान् विवेकी पुरुषकी भी इन्द्रियाँ सर्वथा वशमें नहीं होतीं। इन्द्रियोंके विषय सामने आनेपर भोगे हुए भोगोंके संस्कारओंके
कारण इन्द्रियाँ मन-बुद्धिको जबर्दस्ती विषयोंकी तरफ खींच ले जाती हैं। ऐसे अनेक ऋषियोंके उदाहरण भी आते हैं, जो विषयोंके सामने आनेपर विचलित हो गये। अतः साधकको अपनी इन्द्रियोंपर कभी भी मेरी इन्द्रियाँ वशमें है', ऐसा विश्वास नहीं करना चाहिये  (टिप्पणी प0 98.2)  और कभी भी यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि 'मैं जितेन्द्रिय हो गया हूँ।'

सम्बन्ध-- पूर्वश्लोकमें यह बताया कि रसबुद्धि रहनेसे यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी इन्द्रियाँ उसके मनको हर लेती हैं जिससे उसकी बुद्धि परमात्मामें प्रतिष्ठित नहीं होती। अतः रसबुद्धिको दूर कैसे किया जाय इसका उपाय आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.60।।यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धिकी स्थिरता चाहनेवाले पुरुषोंको पहले इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लेना चाहिये क्योंकि उनको वशमें न करनेसे दोष बतलाते हैं

हे कौन्तेय जिससे की प्रयत्न करनेवाले विचारशील बुद्धिमान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उस विषयाभिमुख हुए पुरुषको क्षुब्ध कर देती हैं व्याकुल कर देती हैं और व्याकुल करके ( उस ) केवल प्रकाशको ही देखनेवाले विद्वान्के विवेकविज्ञानयुक्त मनको ( भी ) बलात्कारसे विचलित कर देती हैं।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.60।। अब तक के अपने प्रवचन में भगवान् श्रीकृष्ण ने ज्ञानी पुरुष के इन्द्रिय संयम की सार्मथ्य पर विशेष बल दिया है। भारत में दर्शनशास्त्र के सिद्धान्तों को अव्यावहारिक होने पर स्वीकारा नहीं जाता। अत गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को उन साधनों का भी उपदेश देते हैं जिनके अभ्यास से वह भी स्थितप्रज्ञ के पूर्णत्व को प्राप्त कर सकता है।
सत्त्व (विवेकशीलता) रज (क्रियाशीलता ) और तम (निष्क्रियता) इन तीन गुणों का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति के अन्तकरण पर पड़ता है। तमोगुण के आवरण तथा रजोगुण के विक्षेप के कारण जब सत्त्व गुण भी दूषित हो जाता है तब अनेक दुखों को हमें भोगना पड़ता है। यदि इन्द्रियों पर पूर्ण संयम न हो तो वे मन को विषयों की ओर बलपूर्वक खींच ले जायेंगी जिसका एक मात्र परिणाम होगा दुख। इस श्लोक में स्वीकार किया गया है कि ऐसी स्थिति किसी बुद्धिमान साधक की भी कभीकभी होती है। यह वाक्य भयभीत करने या किसी को निरुत्साहित करने के लिए नहीं समझना चाहिए। अर्जुन को केवल इस बात की सावधानी रखने को कहा गया है कि वह कभी अपने मन का बुद्धि पर आधिपत्य स्थापित न होने दे। सावधानी की यह सूचना अत्यन्त समयोचित है।
अध्यात्म साधना का अभ्यास करने वाले अनेक साधकों के पतन का कारण एक ही है। कुछ वर्षों तक तो वे संयम के प्रति सजग रहते हैं जिसके फलस्वरूप उन्हें आनन्द भी मिलता है। तत्पश्चात् स्वयं पर अत्यधिक विश्वास के कारण तप के प्रति उनकी जागरूकता कम हो जाती है और तब स्वाभाविक ही इन्द्रियाँ बलपूर्वक मन को विषयों में खींच ले जाती हैं और साधक की शान्ति को नष्ट कर देती हैं।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.60।। हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.60।। हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।