श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात्स्मृतिविभ्रमः।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।2.63।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

 2.63।।  व्याख्या-- 'ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते'-- भगवान्के परायण न होनेसे, भगवान्का चिन्तन न होनेसे विषयोंका ही चिन्तन होता है। कारण कि जीवके एक तरफ परमात्मा है और एक तरफ संसार है। जब वह परमात्माका आश्रय छोड़ देता है, तब वह संसारका आश्रय लेकर संसारका ही चिन्तन करता है; क्योंकि संसारके सिवाय चिन्तनका कोई दूसरा विषय रहता ही नहीं। इस तरह चिन्तन करते-करते मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति, राग, प्रियता पैदा हो जाती है। आसक्ति पैदा होनेसे मनुष्य उन विषयोंका सेवन करता है। विषयोंका सेवन चाहे मानसिक हो चाहे शारीरिक हो, उससे जो सुख होता है, उससे विषयोंमें प्रियता पैदा होती है। प्रियतासे उस विषयका बार-बार चिन्तन होने लगता है। अब उस विषयका सेवन क,रे चाहे न करे, पर विषयोंमें राग पैदा हो ही जाता है--यह नियम है।
  'सङ्गात्संजायते कामः'-- विषयोंमें राग पैदा होनेपर उन विषयोंको (भोगोंको) प्राप्त करनेकी कामना पैदा हो जाती है कि वे भोग, वस्तुएँ मेरेको मिलें।
 'कामात्क्रोधोऽभिजायते'-- कामनाके अनुकूल पदार्थोंके मिलते रहनेसे 'लोभ' पैदा हो जाता है और कामनापूर्तिकी सम्भावना हो रही है, पर उसमें कोई बाधा देता है, तो उसपर 'क्रोध' आ जाता है।
कामना एक ऐसी चीज है, जिसमें बाधा पड़नेपर क्रोध पैदा हो ही जाता है। वर्ण, आश्रम, गुण, योग्यता आदिको लेकर अपनेमें जो अच्छाईका अभिमान रहता है, उस अभिमानमें भी अपने आदर, सम्मान आदिकी कामना रहती है; उस कामनामें किसी व्यक्तिके द्वारा बाधा पड़नेपर भी क्रोध पैदा हो जाता है।
'कामना' रजोगुणी वृत्ति है, 'सम्मोह' तमोगुणी वृत्ति है और 'क्रोध' रजोगुण तथा तमोगुणके बीचकी वृत्ति है।
कहीं भी किसी भी बातको लेकर क्रोध आता है तो उसके मूलमें कहीं-न-कहीं राग अवश्य होता है। जैसे, नीति-न्यायसे विरुद्ध काम करनेवालेको देखकर क्रोध आता है, तो नीति-न्यायमें राग है। अपमान-तिरस्कार करनेवालेपर क्रोध आता है, तो मान-सत्कारमें राग है। निन्दा करनेवालेपर क्रोध आता है, तो प्रशंसामें राग है। दोषारोपण करनेवालेपर क्रोध आता है, तो निर्दोषताके अभिमानमें राग है; आदिआदि।
 'क्रोधाद्भवति सम्मोहः'-- क्रोधसे सम्मोह होता है अर्थात् मूढ़ता छा जाती है। वास्तवमें देखा जाय तो काम क्रोध लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है जैसे

(1) कामसे जो सम्मोह होता है, उसमें विवेकशक्ति ढक जानेसे मनुष्य कामके वशीभूत होकर न करनेलायक कार्य भी कर बैठता है।

(2) क्रोधसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्य अपने मित्रों तथा पूज्यजनोंको भी उलटी-सीधी बातें कह बैठता है और न करनेलायक बर्ताव भी कर बैठता है।

(3) लोभसे जो सम्मोह होता है उसमें मनुष्यको सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म आदिका विचार नहीं रहता, और वह कपट करके लोगोंको ठग लेता है।

(4) ममतासे जो सम्मोह होता है, उसमें समभाव नहीं रहता, प्रत्युत पक्षपात पैदा हो जाता है।

अगर काम, क्रोध, लोभ और ममता इन चारोंसे ही सम्मोह होता है, तो फिर भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधका ही नाम क्यों लिया? इसमें गहराईसे देखा जाय तो काम, लोभ और ममता--इनमें तो अपने सुखभोग और स्वार्थकी वृत्ति जाग्रत रहती है, पर क्रोधमें दूसरोंका अनिष्ट करनेकी वृत्ति जाग्रत् रहती है। अतः क्रोधसे जो सम्मोह होता है, वह काम, लोभ और ममतासे पैदा हुए सम्मोहसे भी भयंकर होता है। इस दृष्टिसे भगवान्ने यहाँ केवल क्रोधसे ही सम्मोह होना बताया है।
 'सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः'-- मूढ़ता छा जानेसे स्मृति नष्ट हो जाती है अर्थात् शास्त्रोंसे, सद्विचारोंसे जो निश्चय किया था कि 'अपनेको ऐसा काम करना है, ऐसा साधन करना है, अपना उद्धार करना है' उसकी स्मृति नष्ट हो जाती है, उसकी याद नहीं रहती।
 'स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशः'-- स्मृति नष्ट होनेपर बुद्धिमें प्रकट होनेवाला विवेक लुप्त हो जाता है अर्थात् मनुष्यमें नया विचार करनेकी शक्ति नहीं रहती।
 'बुद्धिनाशात्प्रणश्यति'-- विवेक लुप्त हो जानेसे मनुष्य अपनी स्थितिसे गिर जाता है। अतः इस पतनसे बचनेके लिये सभी साधकोंको भगवान्के परायण होनेकी बड़ी भारी आवश्यकता है।
यहाँ विषयोंका ध्यान करनेमात्रसे राग, रागसे काम, कामसे क्रोध, क्रोधसे सम्मोह, सम्मोहसे स्मृतिनाश, स्मृतिनाशसे बुद्धिनाश और बुद्धिनाशसे पतन--यह जो क्रम बताया है, इसका विवेचन करनेमें तो देरी लगती है, पर इन सभी वृत्तियोंके पैदा होनेमें और उससे मनुष्यका पतन होनेमें देरी नहीं लगती। बिजलीके करेंटकी तरह ये सभी वृत्तियाँ तत्काल पैदा होकर मनुष्यका पतन करा देती हैं।

सम्बन्ध-- अब भगवान् आगेके श्लोकमें स्थितप्रज्ञ कैसे चलता है?'-- इस चौथे प्रश्नका उत्तर देते हैं।


 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.63।।क्रोधसे संमोह अर्थात् कर्तव्यअकर्तव्यविषयक अविवेक उत्पन्न होता है क्योंकि क्रोधी मनुष्य मोहित होकर गुरुको ( बड़ेको ) भी गोली दे दिया करता है।
मोहसे स्मृतिका विभ्रम होता है अर्थात् शास्त्र और आचार्यद्वारा सुने हुए उपदेशके संस्कारोंसे जो स्मृति उत्पन्न होती है उसके प्रकट होनेका निमित्त प्राप्त होनेपर वह प्रकट नहीं होती।
इस प्रकार स्मृतिविभ्रम होनेसे बुद्धिका नाश हो जाता है। अन्तःकरणमें कार्यअकार्यविषयक विवेचनकी योग्यताका न रहना बुद्धिका नाश कहा जाता है।
बुद्धिका नाश होनेसे ( यह मनुष्य ) नष्ट हो जाता है क्योंकि वह तबतक ही मनुष्य है जबतक उसका अन्तःकरण कार्यअकार्यके विवेचनमें समर्थ है ऐसी योग्यता न रहनेपर मनुष्य नष्टप्राय ( मनुष्यतासे हीन ) हो जाता है।
अतः उस अन्तःकरणकी ( विवेकशक्तिरूप ) बुद्धिका नाश होनेसे पुरुषका नाश हो जाता है। इस कथनका यह अभिप्राय है कि वह पुरुषार्थके अयोग्य हो जाता है।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।2.63।। इस श्लोक के आगे पाँच सुन्दर श्लोकों में श्रीकृष्ण हिन्दू मनोविज्ञान के अनुसार देवत्व की स्थिति से मनुष्य के पतन का कारण बताते हैं। इसका एक मात्र प्रयोजन है महाबाहु अर्जुन को सभी ओर से इन्द्रियों को वश में रखने के महत्व को समझाना। इन्द्रियों पर स्वामित्व रखने वाला पुरष ही हिन्दू शास्त्रों के अनुसार स्थितप्रज्ञ कहलाता है।
यह प्रकरण उन समस्त साधकों के आत्मचरित्र की रूपरेखा भी प्रस्तुत करता है जो दीर्घ काल तक साधनारत रहने के उपरान्त भी असफलता एवं निराशा की चट्टानों से टकराकर चूरचूर हो जाते हैं। वेदान्त के सच्चे साधक का पतन असम्भव है। असफल साधकों के उदाहरण कम नहीं हैं और उन सभी की असफलता का एक मात्र कारण विषयों के शिकार होना ही है। यह भी देखा गया है कि एक बार पतन होने पर वे फिर सम्हल नहीं पाते उनके लिये पतन का अर्थ है सम्पूर्ण नाश
पतन की सीढ़ी का यह बहुत सुन्दर वर्णन है। स्वयं के नाश की सीढ़ी का वर्णन इतना विस्तारपूर्वक इसलिये किया गया है कि हमारे जैसे साधक यह समझ सकें कि पुन अपने पूर्ण दिव्य स्वरूप को किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है।
जैसे छोटे से बीज से बड़े वृक्ष की उत्पत्ति होती है वैसे ही हमारे नाश का बीज है असद् विचार और मिथ्या कल्पनायेंे। विचार में रचना शक्ति है यह हमारा निर्माण अथवा नाश कर सकती है। निर्माण और विनाश उस शक्ति के सदुपयोग और दुरुपयोग पर निर्भर करते हैं। जब मनुष्य किसी विषय को सुन्दर और सुख का साधन समझकर उसका निरन्तर चिन्तन करता है तब उससे उत्पन्न होती है उस विषय में आसक्ति। इस आसक्ति के और अधिक बढ़ने पर वह उसकी उत्कट इच्छा या कामना का रूप लेती है जिसको पूर्ण किये बिना मनुष्य शान्ति से नहीं बैठ सकता। यदि कामना पूर्ति के मार्ग में कोई विघ्न आता है तो उस विघ्न की ओर होने वाली प्रतिक्रिया को कहते हैं क्रोध।
क्रोध का परिणाम यह होता है कि मनुष्य जहाँ जो वस्तु या गुण नहीं है उसे वहाँ देखने लग जाता है जिसे मोह नाम दिया गया है। मोह का अर्थ है अविवेक। मोह ही स्मृति के नाश का कारण है। क्रोध के आवेश में मनुष्य सभी सम्बन्ध भूलकर चाहें जैसा व्यवहार कर सकता है। श्रीशंकराचार्य लिखतें हैं कि क्रोधावेश में मनुष्य अपने पूज्य गुरु एवं मातापिता के ऋण को भूलकर उनका भी तिरस्कार करता है।
इस प्रकार असद् विचारों से प्रारम्भ होकर आसक्ति (संग) इच्छा क्रोध मोह और स्मृति के नाश तक जब मनुष्य का पतन हुआ तो अगली सीढ़ी है बुद्धि का नाश। बुद्धि में विवेक की वह सार्मथ्य है जिससे हम अच्छेबुरे धर्मअधर्म का निर्णय कर सकते हैं। निषिद्ध कर्मों को करते समय बुद्धि हमें उससे परावृत्त करने का प्रयत्न भी करती है। यदि यह बुद्धि ही नष्ट हो जाय तो मनुष्य का मनुष्यत्व ही नष्ट हुआ समझना चाहिये। बुद्धिनाश के बाद तो वह पशु से भी हीन व्यवहार करता है और फिर कभी जीवन में श्रेष्ठ और उच्च ध्येय को न समझ सकता है और न प्राप्त कर सकता है। यहाँ मनुष्य के ऩाश से तात्पर्य यह है कि अपने शुद्ध स्वरूप को पहचान कर वह मनुष्य जीवन के परमपुरुषार्थ मोक्ष को प्राप्त करने योग्य नहीं रह जाता।

विषयों के चिन्तन को यहाँ सभी अनर्थों का कारण बताया है। अब मोक्ष प्राप्ति का साधन बताते हैं

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.62 -- 2.63।। विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.63।। क्रोध से उत्पन्न होता है मोह और मोह से स्मृति विभ्रम। स्मृति के भ्रमित होने पर बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश होने से वह मनुष्य नष्ट हो जाता है।।