श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।

स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।3.35।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

 3.35।। व्याख्या--'श्रेयान् (टिप्पणी प0 182) स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्'--अन्य वर्ण, आश्रम आदिका धर्म (कर्तव्य) बाहरसे देखनेमें गुणसम्पन्न हो, उसके पालनमें भी सुगमता हो, पालन करनेमें मन भी लगता हो, धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी मिलती हो और जीवनभर सुख-आरामसे भी रह सकते हों, तो भी उस परधर्मका पालन अपने लिये विहित न होनेसे परिणाममें भय-(दुःख-) को देनेवाला है।इसके विपरीत अपने वर्ण, आश्रम आदिका धर्म बाहरसे देखनेमें गुणोंकी कमीवाला हो उसके पालनमें भी कठिनाई हो, पालन करनेमें मन भी न लगता हो, धन-वैभव, सुख-सुविधा, मान-बड़ाई आदि भी न मिलती हो और उसका पालन करनेमें जीवन-भर कष्ट भी सहना पड़ता हो, तो भी उस स्वधर्मका निष्कामभावसे पालन करना परिणाममें कल्याण करनेवाला है। इसलिये मनुष्यको किसी भी स्थितिमें अपने धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये, प्रत्युत निष्काम, निर्मम और अनासक्त होकर स्वधर्मका ही पालन करना चाहिये।मनुष्यके लिये स्वधर्मका पालन स्वाभाविक है, सहज है। मनुष्यका 'जन्म' कर्मोंके अनुसार होता है और जन्मके अनुसार भगवान्ने 'कर्म' नियत किये हैं, (गीता 18। 41)। अतः अपने-अपने नियत कर्मोंका पालन करनेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे मुक्त हो जाता है अर्थात् उसका कल्याण हो जाता है (गीता 18। 45)। अतः दोषयुक्त दीखनेपर भी नियत कर्म अर्थात् स्वधर्मका त्याग नहीं करना चाहिये (गीता 18। 48)।

अर्जुन युद्ध करनेकी अपेक्षा भिक्षाका अन्न खाकर जीवननिर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझते हैं (गीता 2। 5)। परंतु यहाँ भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि भिक्षाके अन्नसे जीवननिर्वाह करना भिक्षुकके लिये स्वधर्म होते हुए भी तेरे लिये परधर्म है; क्योंकि तू गृहस्थ क्षत्रिय है, भिक्षुक नहीं। पहले अध्यायमें भी जब अर्जुनने कहा कि युद्ध करनेसे पाप ही लगेगा--'पापमेवाश्रयेत्' (1। 36) तब भी भगवान्ने कहा कि धर्ममय युद्ध न करनेसे तू स्वधर्म और कीर्तिको खोकर पापको प्राप्त होगा (2। 33)। फिर भगवान्ने बताया कि जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान समझकर युद्ध करनेसे अर्थात् राग-द्वेषसे रहित होकर अपने कर्तव्य-(स्वधर्म-) का पालन करनेसे पाप नहीं लगता। (2। 38) आगे अठारहवें अध्यायमें भी भगवान्ने यही बात कही है कि स्वभावनियत स्वधर्मरूप कर्तव्यको करता हुआ मनुष्य पापको प्राप्त नहीं होता। (18। 47) तात्पर्य यह है कि स्वधर्मके पालनमें राग-द्वेष रहनेसे ही पाप लगता है, अन्यथा नहीं। राग-द्वेषसे रहित होकर स्वधर्मका भलीभाँति आचरण करनेसे 'समता'-(योग-) का अनुभव होता है और समताका अनुभव होनेपर दुःखोंका नाश हो जाता है (गीता 6। 23)। इसलिये भगवान् बार-बार अर्जुनको राग-द्वेषसे रहित होकर युद्धरूप स्वधर्मका पालन करनेपर जोर देते हैं।भगवान् अर्जुनको मानो यह समझाते हैं कि क्षत्रिय-कुलमें जन्म होनेके कारण क्षात्रधर्मके नाते युद्ध करना तुम्हारा स्वधर्म (कर्तव्य) है; अतः युद्धमें जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान देखना है; और युद्धरूप क्रियाका सम्बन्ध अपने साथ नहीं है-- ऐसा समझकर केवल कर्मोंकी आसक्ति मिटानेके लिये कर्म करना है। शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, पदार्थ आदि अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये ही हैं।वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार अपने-अपने कर्तव्यका निःस्वार्थभावसे पालन करना ही 'स्वधर्म' है। आस्तिकजन जिसे 'धर्म' कहते हैं, उसीका नाम कर्तव्य' है। स्वधर्मका पालन करना अथवा अपने कर्तव्यका पालन करना एक ही बात है।

कर्तव्य उसे कहते हैं, जिसको सुगमतापूर्वक कर सकते हैं, जो अवश्य करनेयोग्य है और जिसको करनेपर प्राप्तव्यकी प्राप्ति अवश्य होती है। धर्मका पालन करना सुगम होता है; क्योंकि वह कर्तव्य होता है। यह नियम है कि केवल अपने धर्मका ठीक-ठीक पालन करनेसे मनुष्यको वैराग्य हो जाता है--'धर्म तें बिरति' ৷৷. (मानस 3। 16। 1)। केवल कर्तव्यमात्र समझकर धर्मका पालन करनेसे कर्मोंका प्रवाह प्रकृतिमें चला जाता है और इस तरह अपने साथ कर्मोंका सम्बन्ध नहीं रहता।वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार सभी मनुष्योंका अपना-अपना कर्तव्य (स्वधर्म) कल्याणप्रद है। परन्तु दूसरे वर्ण, आश्रम आदिका कर्तव्य देखनेसे अपना कर्तव्य अपेक्षाकृत कम गुणोंवाला दीखता है; जैसे--ब्राह्मणके कर्तव्य--(शम, दम, तप, क्षमा आदि-) की अपेक्षा क्षत्रियके कर्तव्य-(युद्ध करना आदि-) में अहिंसादि गुणोंकी कमी दीखती है। इसलिये यहाँ 'विगुणः' पद देनेका भाव यह है कि दूसरोंके कर्तव्यसे अपने कर्तव्यमें गुणोंकीकमी दीखनेपर भी अपना कर्तव्य ही कल्याण करनेवाला है। अतः किसी भी अवस्थामें अपने कर्तव्यका त्यगा नहीं करना चाहिये।वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार बाहरसे तो कर्म अलग-अलग (घोर या सौम्य) प्रतीत होते हैं, पर परमात्मप्राप्तिरूप उद्देश्य एक ही होता है। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य न रहनेसे तथा अन्तःकरणमें प्राकृत पदार्थोंका महत्त्व रहनेसे ही कर्म घोर या सौम्य प्रतीत होते हैं।

'स्वधर्मे निधनं श्रेयः'--स्वधर्म-पालनमें यदि सदा सुख-आराम, धन-सम्पत्ति, मान-बड़ाई, आदर-सत्कार आदि ही मिलते तो वर्तमानमें धर्मात्माओंकी टोलियाँ देखनेमें आतीं। परन्तु स्वधर्मका पालन सुख अथवा दुःखको देखकर नहीं किया जाता प्रत्युत भगवान् अथवा शास्त्रकी आज्ञाको देखकर निष्कामभावसे किया जाता है। इसलिये स्वधर्म अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन करते हुए यदि कोई कष्ट आ जाय तो वह कष्ट भी उन्नति करनेवाला होता है। वास्तवमें वह कष्ट नहीं, अपितु तप होता है। उस कष्टसे तपकी अपेक्षा भी बहुत जल्दी उन्नति होती है। कारण कि तप अपने लिये किया जाता है और कर्तव्य दूसरोंके लिये। जानकर किये गये तपसे उतना लाभ नहीं होता, जितना लाभ स्वतः आये हुए कष्टरूप तपसे होता है। जिन्होंने स्वधर्म-पालनमें कष्ट सहन किया और जो स्वधर्मका पालन करते हुए मर गये वे धर्मात्मा पुरुष अमर हो गये। लौकिक दृष्टिसे भी जो कष्ट आनेपर भी अपने धर्म-(कर्तव्य-) पर डटा रहता है, उसकी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है। जैसे, देशको स्वतन्त्र बनानेके लिये जिन पुरुषोंने कष्ट सहे, बार-बार जेल गये और फाँसीपर लटकाये गये, उनकी आज भी बहुत प्रशंसा और महिमा होती है। इसके विपरीत बुरे कर्म करके जेल जानेवालोंकी सब जगह निन्दा होती है। तात्पर्य यह निकला कि निष्कामभावपूर्वक अपने धर्मका पालन करते हुए कष्ट आ जाय अथवा मृत्युतक भी हो जाय, तो भी उससे लोकमें प्रशंसा और परलोकमें कल्याण ही होता है।स्वधर्मका पालन करनेवाले मनुष्यकी दृष्टि धर्मपर रहती है। धर्मपर दृष्टि रहनेसे उसका धर्मके साथ सम्बन्ध रहता है। अतः धर्म-पालन करते हुए यदि मृत्यु भी हो जाय, तो उसका उद्धार हो जाता है।

 शङ्का  स्वधर्मका पालन करते हुए मरनेसे कल्याण ही होता है, इसे कैसे मानें?

 समाधान  गीता साक्षात् भगवान्की वाणी है; अतः इसमें शङ्काकी सम्भावना ही नहीं है। दूसरे, यह चर्म-चक्षुओंका प्रत्यक्ष विषय नहीं है, प्रत्युत श्रद्धा-विश्वासका विषय है। फिर भी इस विषयमें कुछ बातें बतायी जाती है

1 जिस विषयका हमें पता नहीं है, उसका पता शास्त्रसे ही लगता है (टिप्पणी प0 184.1)। शास्त्रमें आया है कि जो धर्मकी रक्षा करता है उसकी रक्षा (कल्याण) धर्म करता है-- 'धर्मो रक्षति रक्षितः' (मनुस्मृति 8। 15)। अतः जो धर्मका पालन करता है, उसके कल्याणका भार धर्मपर और धर्मके उपदेष्टा भगवान् वेदों, शास्त्रों, ऋषियों-मुनियों आदिपर होता है तथा उन्हींकी शक्तिसे उसका कल्याण होता है। जैसे हमारे शास्त्रोंमें आया है कि पातिव्रत-धर्मका पालन करनेके स्त्रीका कल्याण हो जाता है, तो वहाँ पातिव्रत-धर्मकी आज्ञा देनेवाले भगवान्, वेद, शास्त्र आदिकी शक्तिसे ही कल्याण होता है, पतिकी शक्तिसे नहीं। ऐसे ही धर्मका पालन करनेके लिये भगवान्, वेद, शास्त्रों, ऋषि-मुनियों और संत-महात्माओंकी आज्ञा है, इसलिये धर्म-पालन करते हुए मरनेपर उनकी शक्तिसे कल्याण हो जाता है, इसमें किञ्चिन्मात्र भी संदेह नहीं है।

2-- पुराणों और इतिहासोंसे भी सिद्ध होता है कि अपने धर्मका पालन करनेवालेका कल्याण होता है। जैसे, राजा हरिश्चन्द्र अनेक कष्ट, निन्दा, अपमान आदिके आनेपर भी अपने 'सत्य'-धर्मसे विचलित नहीं हुए; अतः इसके प्रभावसे वे समस्त प्रजाको साथ लेकर परमधाम गये (टिप्पणी प0 184.2) और आज भी उनकीबहुत प्रशंसा और महिमा है।

3 वर्तमान समयमें पुनर्जन्म-सम्बन्धी अनेक सत्य घटनाएँ देखने, सुनने और पढ़नेमें आती है, जिनसे मृत्युके बाद होनेवाली सद्गति-दुर्गतिका पता लगता है (टिप्पणी प0 184.3)

4 निःस्वार्थभावसे अपने कर्तव्यका ठीक-ठीक पालन करनेपर आस्तिककी तो बात ही क्या, परलोकको न माननेवाले नास्तिकके भी चित्तमें सात्त्विक प्रसन्नता आ जाती है। यह प्रसन्नता कल्याणका द्योतक है; क्योंकिकल्याणका वास्तविक स्वरूप 'परमशान्ति' है। अतः अपने अनुभवसे भी सिद्ध होता है कि अकर्तव्यका सर्वथा त्याग करके कर्तव्यका पालन करनेसे कल्याण होता है।

मार्मिक बात

स्वयं परमात्माका अंश होनेसे वास्तवमें स्वधर्म है--अपना कल्याण करना, अपनेको भगवान्का मानना और भगवान्के सिवाय किसीको भी अपना न मानना, अपनेको जिज्ञासु मानना, अपनेको सेवक मानना। कारण कि ये सभी सही धर्म हैं,, खास स्वयंके धर्म हैं, मन-बुद्धिके धर्म नहीं हैं। बाकी वर्ण, आश्रम, शरीर आदिको लेकर जितने भी धर्म हैं, वे अपने कर्तव्य-पालनके लिये स्वधर्म होते हुए भी परधर्म ही हैं। कारण कि वे सभी धर्म माने हुए हैं और स्वयंके नहीं हैं। उन सभी धर्मोंमें दूसरोंके सहारेकी आवश्यकता होती है अर्थात् उनमें परतन्त्रता रहती है परन्तु जो अपना असली धर्म है, उसमें किसीकी सहायताकी आवश्यकता नहीं होती अर्थात् उसमें स्वतन्त्रता रहती है। इसलिये प्रेमी होता है तो स्वयं होता है, जिज्ञासु होता है तो स्वयं होता है और सेवक होता है तो स्वयं होता है। अतः प्रेमी प्रेम होकर प्रेमास्पदके साथ एक हो जाता है, जिज्ञासु जिज्ञासा होकर ज्ञातव्य-तत्त्वके साथ एक हो जाता है और सेवक सेवा होकर सेव्यके साथ एक हो जाता है। ऐसे ही साधक-मात्र साधनासे एक होकर साध्यस्वरूप हो जाता है।परमात्मप्राप्ति चाहनेवाले साधकको धन, मान, बड़ाई, आदर, आराम आदि पानेकी इच्छा नहीं होती। इसलिये धन-मानादिके न मिलनेपर उसे कोई चिन्ता नहीं होती और यदि प्रारब्धवश ये मिल जायँ तो उसे कोई प्रसन्नता नहीं होती। कारण कि उसका ध्येय केवल परमात्माको प्राप्त करना ही होता है, धन-मानादिको प्राप्त करना नहीं। इसलिये कर्तव्यरूपसे प्राप्त लौकिक कार्य भी उसके द्वारा सुचारु-रूपसे और पवित्रतापूर्वक होते हैं। परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य होनेसे उसके सभी कर्म परमात्माके लिये ही होते हैं। जैसे, धन-प्राप्तिका ध्येय होनेपर व्यापारी आरामका त्याग करता है और कष्ट सहता है और जैसे डाक्टरद्वारा फोड़ेपर चीरा लगाते समय 'इसका परिणाम अच्छा होगा' इस तरफ दृष्टि रहनेसे रोगीका अन्तःकरण प्रसन्न रहता है, ऐसे ही परमात्म-प्राप्तिका लक्ष्य रहनेसे संसारमें पराजय, हानि, कष्ट आदि प्राप्त होनेपर भी साधकके अन्तःकरणमें स्वाभाविक प्रसन्नता रहती है। अनुकूल-प्रतिकूल आदि मात्र परिस्थितियाँ उसके लिये साधन-सामग्री होती हैं।

जब साधक अपना कल्याण करनेका ही दृढ़ निश्चय करके स्वधर्म-(अपने स्वाभाविक कर्म-) के पालनमें तत्परतापूर्वक लग जाता है, तब कोई कष्ट, दुःख, कठिनाई आदि आनेपर भी वह स्वधर्मसे विचलित नहीं होता। इतना ही नहीं, वह कष्ट, दुःख आदि उसके लिये तपस्याके रूपमें तथा प्रसन्नताको देनेवाला होता है।शरीरको 'मैं 'और 'मेरा' माननेसे ही संसारमें राग-द्वेष होते हैं। रागद्वेषके रहनेपर मनुष्यको स्वधर्म-परधर्मका ज्ञान नहीं होता। अगर शरीर 'मैं' (स्वरूप) होता तो 'मैं' के रहते हुए शरीर भी रहता और शरीरके न रहनेपरमैं भी न रहता। अगर शरीर 'मेरा' होता तो इसे पानेके बाद और कुछ पानेकी इच्छा न रहती। अगर इच्छा रहती है तो सिद्ध हुआ कि वास्तवमें 'मेरी' (अपनी) वस्तु अभी नहीं मिली और मिली हुई वस्तु (शरीरादि) 'मेरी' नहीं है। शरीरको साथ लाये नहीं, साथ ले जा सकते नहीं, उसमें इच्छानुसार परिवर्तन कर सकते नहीं, फिर वह 'मेरा' कैसे ?इस प्रकार 'शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं' इसका ज्ञान (विवेक) सभी साधकोंमेंरहता है। परन्तु इस ज्ञानको महत्त्व न देनेसे उनके राग-द्वेष नहीं मिटते। अगर शरीरमें कभी मैं-पन और मेरा-पन दीख भी जाय, तो भी साधकको उसे महत्त्व न देकर अपने विवेकको ही महत्त्व देना चाहिये अर्थात् 'शरीर मैं नहीं और मेरा नहीं' इसी बातपर दृढ़ रहना चाहिये। अपने विवेकको महत्त्व देनेसे वास्तविक तत्त्वका बोध हो जाता है। बोध होनेपर राग-द्वेष नहीं रहते। राग-द्वेषके न रहनेपर अन्तःकरणमें स्वधर्म-परधर्मका ज्ञान स्वतः प्रकट होता है और उसके अनुसार स्वतः चेष्टा होती है।

'परधर्मो भयावहः'--यद्यपि परधर्मका पालन वर्तमानमें सुगम दीखता है, तथापि परिणाममें वह सिद्धान्तसे भयावह है। यदि मनुष्य 'स्वार्थभाव' का त्याग करके परहितके लिये स्वधर्मका पालन करे, तो उसके लिये कहीं कोई भय नहीं है।

 शङ्का   अठारहवें अध्यायके बयालीसवें, तैंतालीसवें और चौवालीसवें श्लोकमें क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके स्वाभाविक कर्मोंका वर्णन करके भगवान्ने सैंतालीसवें श्लोकके पूर्वार्धमें भी यही बात '(श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्)' कही है। अतः जब यहाँ (प्रस्तुत श्लोकमें) दूसरेके स्वाभाविक कर्मको भयावह कहा गया है, तब अठारहवें अध्यायके बयालीसवें श्लोकमें कहे ब्राह्मणके 'स्वाभाविक कर्म' भी दूसरों-(क्षत्रियादि) के लिये भयावह होने चाहिये, जब कि शास्त्रोंमें सभी मनुष्योंको उनका पालन करनेकी आज्ञा दी गयी है।

 समाधान-- मनका निग्रह, इन्द्रियोंका दमन आदि तो 'सामान्य' धर्म है (गीता 13। 711 16। 13) जिनका पालन सभीको करना चाहिये; क्योंकि ये सभी के स्वधर्म हैं। ये सामान्य धर्म ब्राह्मणके लिये 'स्वाभाविक कर्म' इसलिये हैं कि इनका पालन करनेमें उन्हें परिश्रम नहीं होता; परन्तु दूसरे वर्णोंको इनका पालन करनेमें थोड़ा परिश्रम हो सकता है। स्वाभाविक कर्म और सामान्य धर्म--दोनों ही 'स्वधर्म' के अन्तर्गत आते हैं। सामान्य धर्मके सिवाय अपने स्वाभाविक कर्ममें पाप दीखते हुए भी वास्तवमें पाप नहीं होता; जैसे--केवल अपना कर्तव्य समझकर (स्वार्थ, द्वेष आदिके बिना) शूरवीरतापूर्वक युद्ध करना क्षत्रियका स्वाभाविक कर्म होनेसे इसमें पाप दीखते हुए भी वास्तवमें पाप नहीं होता--'स्वाभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम्' (गीता 18। 47)।सामान्य धर्मके सिवाय दूसरेका स्वाभाविक कर्म (परधर्म) भयावह है; क्योंकि उसका आचरण शास्त्र-निषिद्ध और दूसरेकी जीविकाको छीननेवाला है। दूसरेका धर्म भयावह इसलिये है कि उसका पालन करनेसे पाप लगता है और वह स्थान-विशेष तथा योनि-विशेष नरकरूप भयको देनेवाला होता है। इसलिये भगवान् अर्जुनसे मानो यह कहते हैं कि भिक्षाके अन्नसे जीवन-निर्वाह करना दूसरोंकी जीविकाका हरण करनेवाला तथा क्षत्रियके लिये निषिद्ध होनेके कारण तेरे लिये श्रेयस्कर नहीं है, प्रत्युत तेरे लिये युद्धरूपसे स्वतः प्राप्त स्वाभाविक कर्मका पालन ही श्रेयस्कर है।

  स्वधर्म और परधर्मसम्बन्धी मार्मिक बात

परमात्मा और उनका अंश (जीवात्मा) 'स्वयं' है तथा प्रकृति और उसका कार्य (शरीर और संसार) 'अन्य' है। स्वयंका धर्म 'स्वधर्म' और अन्यका धर्म 'परधर्म' कहलाता है। अतः सूक्ष्म दृष्टिसे देखा जाय तो निर्विकारता, निर्दोषता, अविनाशिता, नित्यता, निष्कामता, निर्ममता आदि जितने स्वयंके धर्म हैं वे सब 'स्वधर्म' हैं। उत्पन्न होना, उत्पन्न होकर रहना, बदलना, बढ़ना, क्षीण होना तथा नष्ट होना (टिप्पणी प0 186) एवं भोग और संग्रहकी इच्छा, मान-बड़ाईकी इच्छा आदि जितने शरीरके, संसारके धर्म हैं, वे सब 'परधर्म' हैं-- 

'संसारधर्मैरविमुह्यमानः'(श्रीमद्भा0 11। 2। 49) स्वयंमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता, इसलिये उसका नाश नहीं होता; परन्तु शरीरमें निरन्तर परिवर्तन होता है, इसलिये उसका नाश होता है। इस दृष्टिसे स्वधर्म अविनाशी और परधर्म नाशवान् है।त्याग (कर्मयोग), बोध (ज्ञानयोग) और प्रेम (भक्ति-योग) --ये तीनों ही स्वतःसिद्ध होनेसे स्वधर्म हैं। स्वधर्ममें अभ्यासकी जरूरत नहीं है; क्योंकि अभ्यास शरीरके सम्बन्धसे होता है और शरीरके सम्बन्धसे होनेवाला सब परधर्म है।योगी होना स्वधर्म है और भोगी होना परधर्म है। निर्लिप्त रहना स्वधर्म है और लिप्त होना परधर्म है। सेवा करना स्वधर्म है और कुछ भी चाहना परधर्म है। प्रेमी होना स्वधर्म है और रागी होना परधर्म है। निष्काम, निर्मम और अनासक्त होना स्वधर्म है एवं कामना, ममता और आसक्ति करना परधर्म है। तात्पर्य है कि प्रकृतिके सम्बन्धके बिना (स्वयंमें) होनेवाला सब कुछ 'स्वधर्म' है और प्रकृतिके सम्बन्धसे होनेवाला सब कुछ 'परधर्म' है। स्वधर्म चिन्मय-धर्म और परधर्म जडधर्म है।परमात्माका अंश (शरीरी) 'स्व' है और प्रकृतिका अंश (शरीर) 'पर' है।'स्व' के दो अर्थ होते हैं--एक तो 'स्वयं' और दूसरा 'स्वकीय' अर्थात् परमात्मा। इस दृष्टिसे अपने स्वरूपबोधकी इच्छा तथा स्वकीय परमात्माकी इच्छा-- दोनों ही 'स्वधर्म' हैं।पुरुष-(चेतन-) का धर्म है--स्वतःसिद्ध स्वभाविक स्थिति और प्रकृति-(जड-) का धर्म है-- स्वतःसिद्ध स्वभाविक परिवर्तनशीलता। पुरुषका धर्म 'स्वधर्म' और प्रकृतिका धर्म 'परधर्म' है।मनुष्यमें दो प्रकारकी इच्छाएँ रहती हैं-- 'सांसारिक' अर्थात् भोग एवं संग्रहकी इच्छा और 'पारमार्थिक' अर्थात् अपने कल्याणकी इच्छा। इसमें भोग और संग्रहकी इच्छा 'परधर्म' अर्थात् शरीरका धर्म है; क्योंकि असत् शरीरके साथ सम्बन्ध जोड़नेसे ही भोग और संग्रहकी इच्छा होती है। अपने कल्याणकी इच्छा 'स्वधर्म' है; क्योंकि परमात्माका ही अंश होनेसे स्वयंकी इच्छा परमात्माकी ही है, संसारकी नहीं।स्वधर्मका पालन करनेमें मनुष्य स्वतन्त्र है; क्योंकि अपना कल्याण करनेमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि आदिकी आवश्यकता नहीं है, प्रत्युत इनसे विमुख होनेकी आवश्यकता है। परंतु परधर्मका पालन करनेमें मनुष्य परतन्त्र है; क्योंकि इसमें शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, देश, काल, वस्तु, व्यक्ति आदिकी आवश्यकता है। शरीरादिकी सहायताके बिना परधर्मका पालन हो ही नहीं सकता।स्वयं परमात्माका अंश है और शरीर संसारका अंश है। जब मनुष्य परमात्माको अपना मान लेता है, तब यह उसके लिये 'स्वधर्म' हो जाता है, और जब शरीर-संसारको अपना मान लेता है, तब यह उसके लिये 'परधर्म' हो जाता है, जो कि शरीर-धर्म है। जब मनुष्य शरीरसे अपना सम्बन्ध न मानकर परमात्मप्राप्तिके लिये साधन करता है, तब वह साधन उसका 'स्वधर्म' होता है। नित्यप्राप्त परमात्माका अथवा अपने स्वरूपका अनुभव करानेवाले सब साधन 'स्वधर्म' हैं और संसारकी ओर ले जानेवाले सब कर्म 'परधर्म' हैं। इस दृष्टिसे कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग-- तीनों ही योगमार्ग मनुष्यमात्रके 'स्वधर्म' हैं। इसके विपरीत शरीरसे अपना सम्बन्ध मानकर भोग और संग्रहमें लगना मनुष्यमात्रका 'परधर्म' है।स्थूल, सूक्ष्म और कारण-- तीनों शरीरोंसे किये जानेवाले तीर्थ, व्रत, दान, तप, चिन्तन, ध्यान, समाधि आदि समस्त शुभ-कर्म सकामभावसे अर्थात् अपने लिये करनेपर 'परधर्म' हो जाते हैं और निष्कामभावसे अर्थात् दूसरोंके लिये करनेपरस्वधर्म हो जाते हैं। कारण कि स्वरूप निष्काम है और सकामभाव प्रकृतिके सम्बन्धसे आता है। इसलिये कामना होनेसे परधर्म होता है। स्वधर्म मुक्त करनेवाला और परधर्म बाँधनेवाला होता है।मनुष्यका खास काम है-- परधर्मसे विमुख होना और स्वधर्मके सम्मुख होना। ऐसा केवल मनुष्य ही करसकता है। स्वधर्मकी सिद्धिके लिये ही मनुष्य-शरीर मिला है। परधर्म तो अन्य योनियोंमें तथा भोगप्रधान स्वर्गादि लोकोंमें भी है। स्वधर्ममें मनुष्यमात्र सबल, पात्र और स्वाधीन है तथा परधर्ममें मनुष्यमात्र निर्बल, अपात्र और पराधीन है। प्रकृतिजन्य वस्तुकी कामनासे अभावका दुःख होता है और वस्तुके मिलनेपर उस वस्तुकी पराधीनता होती है, जो कि 'परधर्म' है। परन्तु प्रकृतिजन्य वस्तुओंकी कामनाओंका नाश होनेपर अभाव है और पराधीनता सदाके लिये मिट जाती है, जो कि 'स्वधर्म' है। इस स्वधर्ममें स्थित रहते हुएकितना ही कष्ट आ जाय, यहाँतक कि शरीर भी छूट जाय, तो भी वह कल्याण करनेवाला है। परन्तु परधर्मके सम्बन्धमें सुख-सुविधा होनेपर भी वह भयावह अर्थात् बारम्बार जन्म-मरणमें डालनेवाला है।संसारमें जितने भी दुःख, शोक, चिन्ता आदि हैं, वे सब परधर्मका आश्रय लेनेसे ही हैं। परधर्मका आश्रय छोड़कर स्वधर्मका आश्रय लेनेसे सदैव, सर्वथा, सर्वदा रहनेवाले आनन्दकी प्राप्ति हो जाती है, जो कि स्वतःसिद्ध है।

 सम्बन्ध-- 'स्वधर्म कल्याणकारक और परधर्म भयावह है'-- ऐसा जानते हए भी मनुष्य स्वधर्ममें प्रवृत्त क्यों नहीं होता? इसपर अर्जुन प्रश्न करते हैं।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.35।।रागद्वेषयुक्त मनुष्य तो शास्त्रके अर्थको भी उलटा मान लेता है और परधर्मको भी धर्म होनेके नाते अनुष्ठान करनेयोग्य मान बैठता है। परंतु उसका ऐसा मानना भूल है अच्छी प्रकार अनुष्ठान किये गये अर्थात् अंगप्रत्यंगोंसहित सम्पादन किये गये भी परधर्मकी अपेक्षा गुणरहित भी अनुष्ठान किया हुआ अपना धर्म कल्याणकर है अर्थात् अधिक प्रशंसनीय है। परधर्ममें स्थित पुरुषके जीवनकी अपेक्षा स्वधर्ममें स्थित पुरुषका मरण भी श्रेष्ठ है क्योंकि दूसरेका धर्म भयदायक है नरक आदि रूप भयका देनेवाला है।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।3.35।। धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। धार्मिकता सद्व्यवहार कर्तव्य सद्गुण आदि विभिन्न अर्थों में इसका प्रयोग किया गया है। धर्म की परिभाषा हम देख चुके हैं कि जिसके कारण वस्तु का अस्तित्व सिद्ध होता है वह उस वस्तु का धर्म कहलाता है।एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का भिन्नत्व उसके विचारों द्वारा निश्चित किया जाता है। इन विचारों का स्तर गुण दिशा आदि व्यक्ति की वासनाओं पर निर्भर करते हैं। यही है मनुष्य का स्वभाव अथवा धर्म। अत मनसंयम के इस प्रकरण में धर्म से तात्पर्य प्रत्येक व्यक्ति की वासनाओं से है।स्वधर्म और परधर्म यहाँ स्वधर्म का अर्थ किसी जाति विशेष में जन्म लेने पर प्राप्त होने वाले कर्तव्य से नहीं है। स्वधर्म का सही तात्पर्य है स्वयं की वासनायें। स्वयं की सहज और स्वाभाविक वासनाओं के अनुसार कार्य करने से ही जीवन में शांति और आनन्द सफलता और सन्तोष का अनुभव होता है। अत परधर्म का अर्थ है दूसरे के स्वभाव के अनुसार व्यवहार और कर्म करना जो भयावह होता है इसमें दो मत नहीं हो सकते।गीता में अर्जुन के स्वभाव को देखते हुये भगवान् उसे युद्ध करने का स्पष्ट उपदेश देते हैं। जन्मजात राजकुमार अर्जुन ने अपने विद्यार्थी जीवन में ही साहस और शूरवीरता का प्रदर्शन किया था और धनुर्विद्या में निपुणता भी प्राप्त की थी। अत युद्ध जैसा खतरनाक कर्म उसके स्वभाव के अनुकूल ही था। प्रथम अध्याय से यह स्पष्ट हो जाता है कि अर्जुन ने संभवत अपने प्रारम्भिक शिक्षणकाल में यह सुना और समझा था कि संन्यास और त्याग का अर्थात् ब्राह्मण का जीवन उसके जीवन से श्रेष्ठतर है। इसीलिये युद्धभूमि पलायन से गुफाओं में बैठकर ध्यानाभ्यास करने की उसकी इच्छा हो रही थी। श्रीकृष्ण उसे स्मरण दिलाते हैं कि स्वधर्म पालन में कुछ कमी रहने पर भी उसी का पालन उसके आत्मविकास के लिये श्रेयष्कर है। दूसरे व्यक्ति के श्रेष्ठ और दिव्य जीवन की अनुकृति मात्र से अर्जुन को लाभ नहीं होगा।यद्यपि समस्त अनर्थों का मूल कारण पहले बताया जा चुका है तथापि उसके और अधिक स्पष्टीकरण के लिए

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.35।। अच्छी तरह आचरणमें लाये हुए दूसरेके धर्मसे गुणोंकी कमीवाला अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्ममें तो मरना भी कल्याणकारक है और दूसरेका धर्म भयको देनेवाला है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.35।। सम्यक् प्रकार से अनुष्ठित परधर्म की अपेक्षा गुणरहित स्वधर्म का पालन श्रेयष्कर है;  स्वधर्म में मरण कल्याणकारक है (किन्तु) परधर्म भय को देने वाला है।।