आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च।।3.39।।
श्रीमद् भगवद्गीता
3.39।। व्याख्या--'एतेन'-- सैंतीसवें श्लोकमें भगवान्ने पाप करवानेमें मुख्य कारण 'काम' अर्थात् कामनाको बताया था। उसी कामनाके लिये यहाँ 'एतेन'पद आया है।
'दुष्पूरेणानलेन च'-- जैसे अग्निमें घीकी सुहाती-सुहाती (अनुकूल) आहुति देते रहनेसे अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही रहती है, ऐसे ही कामनाके अनुकूल भोग भोगते रहनेसे कामना कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है (टिप्पणी प0 194)। जो भी वस्तु सामने आती रहती है, कामना अग्निकी तरह उसे खाती रहती है।भोग और संग्रहकी कामना कभी पूरी होती ही नहीं। जितने ही भोग-पदार्थ मिलते हैं, उतनी ही उनकी भूख बढ़ती है। कारण कि कामना जडकी ही होती है, इसलिये जडके सम्बन्धसे वह कभी मिटती नहीं प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती है। सुन्दरदासजी लिखते हैं--
जो दस बीस पचास सत होइ हजार तो लाख मँगैगी।
कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य पृथ्वीपति होन की चाह जगैगी।।
स्वर्ग पतालको राज करौ तृष्ना अघकी अति आग लगैगी।
सुन्दर एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कभी न भगैगी।।
जैसे, सौ रुपये मिलनेपर हजार रुपयोंकी भूख पैदा होती है, तो इससे सिद्ध हुआ कि नौ सौ रुपयोंका घाटाहुआ है। हजार रुपये मिलनेपर फिर सीधे दस हजार रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है तो यह नौहजार रुपयोंका घाटा हुआ है। दस हजार रुपये मिलनेपर फिर सीधे एक लाख रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है, तो यह नब्बे हजार रुपयोंका घाटा हुआ है। लाख रुपये मिलनेपर फिर दस लाख रुपयोंसे सन्तोष नहीं होता, प्रत्युत सीधे करोड़ रुपयोंकी भूख पैदा हो जाती है, तो सिद्ध हुआ कि निन्यानबे लाख रुपयोंका घाटा हुआ है। इस प्रकार वहम तो यह होता है कि लाभ बढ़ गया, पर वास्तवमें घाटा ही बढ़ा है। जितना धन मिलता है, उतनी ही दरिद्रता (धनकी भूख) बढ़ती है। वास्तवमें दरिद्रता उसकी मिटती है, जिसे धनकी भूख नहीं है।
'चाह गयी चिन्ता मिटी, मनुआँ बेपरवाह'।
जिनको कछू न चाहिये, सो साहनपति साह।।
वास्तवमें धन उतनी बाधक नहीं है, जितनी बाधक उसकी कामना है। धनकी कामना चाहे धनीमें हो या निर्धनमें, दोनोंको वह परमात्मप्राप्तिसे वञ्चित रखती है। कामना किसीकी भी कभी पूरी नहीं होती; क्योंकि यह पूरी होनेवाली चीज ही नहीं है। कामनासे रहित तो कामनाके मिटनेपर ही हो सकते हैं।
'कामरूपेण'--जडके सम्बन्धसे होनेवाले सुखकी चाहको 'काम' कहते हैं। नाशवान् संसारसे थोड़ी भी महत्त्वबुद्धिका होना 'काम' है।अप्राप्तको प्राप्त करनेकी चाह 'कामना' है। अन्तःकरणमें जो अनेक सूक्ष्म कामनाएँ दबी रहती हैं उनको 'वासना' कहते हैं। वस्तुओंकी आवश्यकता प्रतीत होना 'स्पृहा' है। वस्तुमें उत्तमता और प्रियता दीखना 'आसक्ति' है। वस्तु मिलनेकी सम्भावना रखना 'आशा' है। और अधिक वस्तु मिल जाय--यह 'लोभ' या 'तृष्णा' है। वस्तुकी इच्छा अधिक बढ़नेपर 'याचना' होती है। ये सभी 'काम'के ही रूप हैं।
'ज्ञानिनो नित्यवैरिणा'-- यहाँ 'ज्ञानिनः' पद साधनमें लगे हुए विवेकशील साधकोंके लिये आया है। कारण कि विवेकशील साधक ही इस कामरूप वैरीको पहचानता है और उसका नाश करता है। साधन न करने-वाले दूसरे लोग तो उसे पहचानते ही नहीं प्रत्युत इसे सुखदायी समझते हैं।भगवान् कहते हैं कि यह काम विवेकशील साधकोंका नित्य वैरी है। कामना उत्पन्न होते ही विवेकशील साधकको विचार आता है कि अब कोई-न-कोई आफत आयेगी! कामनामें संसारका महत्त्व और आश्रय रहता है, जो पारमार्थिक मार्गमें महान् बाधक है। विवेकी साधकको कामना आरम्भसे ही चुभती रहती है। परिणाममें तो कामना सबको दुःख देती ही है। इसलिये यह साधककी नित्य (निरन्तर) वैरी है।भोगोंमें लगे हुए अज्ञानियोंको यह कामना मित्रके समान मालूम देती है; क्योंकि कामनाके कारण ही भोगोंमें सुख प्रतीत होता है। कामना न हो तो भोगपदार्थ सुख नहीं दे सकते। परन्तु परिणाममें उन्हें दुःख, सन्ताप, कैद, नरक आदि प्राप्ति होते ही हैं। इसलिये वास्तवमें यह कामना अज्ञानियोंकी भी नित्य वैरी है। परन्तु अज्ञानियोंको जागृति नहीं रहती, जब कि विवेकशील साधकोंको जागृति रहती है।
'आवृतं ज्ञानम्'-- विवेक प्राणिमात्रमें है। पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर योनियोंमें यह विवेक विकसित नहीं होता और केवल जीवन-निर्वाहतक सीमित रहता है। परन्तु मनुष्यमें यदि कामना न हो तो यह विवेक विकसित हो सकता है; क्योंकि कामनाके कारण ही मनुष्यका विवेक ढका रहता है। विवेक ढका रहनेसे मनुष्य अपने लक्ष्य परमात्मप्राप्तिकी ओर बढ़ नहीं सकता, क्योंकि कामना उसे चिन्मय-तत्त्वकी ओर नहीं जाने देती, प्रत्युत जड-तत्त्वमें ही लगाये रखती है।अपने प्रचि कोई अप्रिय एवं असत्य बोले तो वह बुरा लगता है और प्रिय एवं सत्य बोले तो अच्छा लगताहै। इसका अर्थ यह हुआ कि अच्छे-बुरे, सद्गुण-दुर्गुण, कर्तव्य-अकर्तव्य आदिका ज्ञान अर्थात् विवेक सभी मनुष्योंमें रहता है। परन्तु ऐसा होनेपर भी वह अप्रिय और असत्य बोलता है, अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, तो इसका कारण यही है कि कामनाने उसका विवेक ढक दिया है।कामनाके कारण ही 'त्याग में सुख है'--यह ज्ञान काम नहीं करता। मनुष्यको प्रतीत तो ऐसा होता है कि अनुकूल भोग-पदार्थके मिलनेसे सुख होता है, पर वास्तवमें सुख उसके त्यागसे होता है। यह सभीका अनुभव है कि जाग्रत् और स्वप्नमें भोग-पदार्थोंसे सम्बन्ध रहनेपर सुख और दुःख दोनों होते हैं, पर सुषुप्ति-(गाढ़ निद्रा-) में भोग-पदार्थोंकी किञ्चित् भी स्मृति न रहनेपर सुख ही होता है, दुःख नहीं। इसलिये गाढ़ निद्रासे जागनेपर वह कहता है कि'मैं बड़े सुखसे सोया'। इसके सिवाय जाग्रत् और स्वप्नसे थकावट आती है, जब कि सुषुप्तिसे थकावट दूर होती है और ताजगी आती है। इससे सिद्ध होता है कि भोग-पदार्थोंके त्यागमें ही सुख है।धनकी कामना होते ही धन मनके द्वारा पकड़ा जाता है। जब बाहरसे धन प्राप्त हो जाता है, तब मनसे पकड़े हुए धनका त्याग हो जाता है और सुखकी प्रतीति होती है। अतः वास्तवमें सुखकी प्रतीति बाहरसे धन मिलनेपर नहीं हुई, प्रत्युत मनसे पकड़े हुए धनके त्यागसे ही हुई है है। यदि धनके मिलनेसे ही सुख होता तो उस धनके रहते हुए कभी दुःख नहीं आता; परन्तु उस धनके रहते हुए भी दुःख आ जाता है।जब मनुष्य किसी वस्तुकी कामना करता है, तब वह पराधीन हो जाता है। जैसे, उसके मनमें घड़ीकी कामना पैदा हुई। कामना पैदा होते ही उसको घड़ीके अभावका दुःख होने लगता है तो यह घड़ीकी पराधीनता है। वह सोचता है कि यदि रुपये मिल जायँ तो अभी घड़ी खरीद लूँ अर्थात् रुपयोंके होनेसे अपनेको स्वाधीन और न होनेसे अपनेको पराधीन मानता है। यह मान्यता बिलकुल गलत है। वास्तवमें रुपये मिलनेपर घड़ीकी पराधीनता तो नहीं रही, पर रुपयोंकी पराधीनता तो हो ही गयी; क्योंकि रुपये भी 'पर' हैं 'स्व' नहीं। जैसे वस्तुकी कामना होनेसे वह वस्तुके पराधीन हुआ, ऐसे ही रुपयोंकी कामना होनेसे रुपयोंके पराधीन हुआ। पराधीनता तो वैसी-की-वैसी ही रही! परन्तु कामनासे विवेक ढका जानेके कारण मनुष्यको वस्तुकी पराधीनताका तो अनुभव होता है, पर रुपयोंकी पराधीनताका अनुभव नहीं होता, प्रत्युत रुपयोंके कारण वह स्वाधीनताका अनुभव करता है। जो पराधीनता स्वाधीनताके रूपमें दिखायी देती है, उस पराधीनतासे छूटना बड़ा कठिन होता है।संसारमात्र क्षणभङ्गुर है। शरीर, धन, जमीन, मकान आदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएँ हैं, वे सब-की-सब प्रतिक्षण विनाशकी ओर जा रही हैं और हमारेसे वियुक्त भी हो रही हैं। परन्तु भोग भोगते समय उनकी क्षणभङ्गुरताका ज्ञान नहीं रहता। पदार्थको नित्य और स्थिर माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता। साधारण मनुष्योंकी बात ही क्या है, साधक भी भोगोंको नित्य और स्थिर माननेपर ही उनमें फँसता है। इसका कारण कामनाद्वारा विवेक ढका जाना ही है।
विशेष बात
मनुष्यको सदाके लिये महान् बनानेके उद्देश्यसे भगवान् कामनाको 'नित्यवैरी' बताकर उससे बचनेके लिये सावधान करते हैं; क्योंकि कामना ही सम्पूर्ण पापों और दुःखोंका कारण है। एक मनुष्य अपनी स्त्रीको ढूँढ रहा था। लोगोंने पूछा--तुम्हारी स्त्रीका नाम क्या है? उसने कहा--फजीती। फिर पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है? उसने कहा-- बदमाश। लोगोंने कहा--घबराओ मत, बड़ी पतिव्रता स्त्री है, अपने-आप आ जायगी! कारण कि बदमाशको फजीती (बदनामी) अवश्य मिलती है। इसी प्रकार संसारके नाशवान् भोगोंकी कामना करनेवाले मनुष्यके पास दुःख अपने-आप आते हैं।
मनुष्य दुःखोंसे तो बचना चाहता है, पर दुःखोंके कारण 'काम'-(कामना-) को नहीं छोड़ता। कामनाके रहते हुए स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता-- 'काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं' (मानस 7। 90। 1)। भगवान् 'अनलेन दुष्पूरेण' पदोंसे यह बताते हैं कि भोग-पदार्थोंसे कामना कभी पूरी नहीं होती। ज्यों-ज्यों भोग-पदार्थ मिलते हैं, त्यों-ही-त्यों उनकी कामना बढ़ती है और ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है त्यों-ही-त्यों अभावका अधिक अनुभव होता है एवं अभावको मिटानेके लिये मनुष्य पाप-कर्मोंमें प्रवृत्त होता है। जैसे, धनकी कामना उत्पन्न होनेपर मनुष्य धनकी प्राप्तिमें न्याय-अन्यायका विचार नहीं करता। फिर कामना बढ़नेपर (द्वितीयावस्थामें) वह चोरी, डाके आदिमें भी लग जाता है। फिर और अधिक कामना बढ़नेपर (तृतीयावस्थामें) वह धनके लिये दूसरोंको जानेसे भी मार डालता है। इस प्रकार नाशवान् सुखकी कामना करनेवाला मनुष्य अपने लोक और परलोक--दोनोंको महान् दुःखरूप बना लेता है।
सम्बन्ध-- किसी शत्रुको नष्ट करनेके लिये उसके रहनेके स्थानोंकी जानकारी होनी आवश्यक है, इसलिये भगवान् आगेके श्लोकमें ज्ञानियोंके नित्यवैरी 'काम' के रहनेके स्थान बताते हैं?
।।3.39।।जिसका ( उपर्युक्त श्लोकमें ) इदम् शब्दसे संकेत किया गया है जो कामसे आच्छादित है वह कौन है सो कहा जाता है ज्ञानीके ( विवेकीके ) इस कामरूप नित्य वैरीसे ज्ञान ढका हुआ है। ज्ञानी ही पहलेसे जानता है कि इसके द्वारा मैं अनर्थोंमें नियुक्त किया गया हूँ। इससे वह सदा दुखी भी होता है। इसलिये यह ज्ञानीका ही नित्य वैरी है मूर्खका नहीं क्योंकि वह मूर्ख तो तृष्णाके समय उसको मित्रके समान समझता है। फिर जब उसका परिणामरूप दुःख प्राप्त होता है तब समझता है कि तृष्णाके द्वारा मैं दुखी किया गया हूँ पहले नहीं जानता इसलिये यह काम ज्ञानीका ही नित्य वैरी है। कैसे कामके द्वारा ( ज्ञान आच्छादित है इसपर कहते हैं ) कामना इच्छा ही जिसका स्वरूप है जो अति कष्टसे पूर्ण होता है तथा जो अनल है भोगोंसे कभी भी तृप्त नहीं होता ऐसे कामनारूप वैरीद्वारा (ज्ञान आच्छादित है )।
।।3.39।। यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि उस कामरूप शत्रु के द्वारा यह ज्ञान अर्थात् विवेक सार्मथ्य आच्छादित हो जाती है। आत्मानात्म नित्यानित्य और सत्यासत्य में जिस विवेक सार्मथ्य के कारण सब प्राणियों में मनुष्य को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है उसी बुद्धि की क्षमता को यह आवृत कर देता है। यह काम दुष्पूर अर्थात् इसका पूर्ण होना असम्भव ही होता है।अब भगवान् उस काम के निवास स्थान बताते हैं जिसके ज्ञान से शत्रु को नष्ट करना सरल होगा
।।3.39।। और हे कुन्तीनन्दन ! इस अग्निके समान कभी तृप्त न होनेवाले और विवेकियोंके नित्य वैरी इस कामके द्वारा मनुष्यका विवेक ढका हुआ है।
।।3.39।। हे कौन्तेय ! अग्नि के समान जिसको तृप्त करना कठिन है ऐसे कामरूप, ज्ञानी के इस नित्य शत्रु द्वारा ज्ञान आवृत है।।