श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अर्जुन उवाच

संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।

यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्िचतम्।।5.1।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

 5.1।। व्याख्या--'संन्यासं कर्मणां कृष्ण'--कौटुम्बिक स्नेहके कारण अर्जुनके मनमें युद्ध न करनेका भाव पैदा हो गया था। इसके समर्थनमें अर्जुनने पहले अध्यायमें कई तर्क और युक्तियाँ भी सामने रखीं। उन्होंने युद्ध करनेको पाप बताया (गीता 1। 45)। वे युद्ध न करके भिक्षाके अन्नसे जीवन-निर्वाह करनेको श्रेष्ठ समझने लगे (2। 5) और उन्होंने निश्चय करके भगवान्से स्पष्ट कह भी दिया कि मैं किसी भी स्थितिमें युद्ध नहीं करूँगा (2। 9)।प्रायः वक्ताके शब्दोंका अर्थ श्रोता अपने विचारके अनुसार लगाया करते हैं। स्वजनोंको देखकर अर्जुनके हृदयमें जो मोह पैदा हुआ, उसके अनुसार उन्हें युद्धरूप कर्मके त्यागकी बात उचित प्रतीत होने लगी। अतः भगवान्के शब्दोंको वे अपने विचारके अनुसार समझ रहे हैं कि भगवान् कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करके प्रचलित प्रणालीके अनुसार तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेकी ही प्रशंसा कर रहे हैं।

'पुनर्योगं च शंससि'--चौथे अध्यायके अड़तीसवें श्लोकमें भगवान्ने कर्मयोगीको दूसरे किसी साधनके बिना अवश्यमेव तत्त्वज्ञान प्राप्त होनेकी बात कही है। उसीको लक्ष्य करके अर्जुन भगवान्से कह रहे हैं कि कभी तो आप ज्ञानयोगकी प्रशंसा (4। 33) करते हैं और कभी कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं (4। 41)।

'यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्'--इसी तरहका प्रश्न अर्जुनने दूसरे अध्यायके सातवें श्लोकमें भी 'यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे' पदोंसे किया था। उसके उत्तरमें भगवान्ने दूसरे अध्यायके सैंतालीसवें-अड़तालीसवें श्लोकोंमें कर्मयोगकी व्याख्या करके उसका आचरण करनेके लिये कहा। फिर तीसरे अध्यायके दूसरे श्लोकमें अर्जुनने 'तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्'पदोंसे पुनः अपने कल्याणकी बात पूछी, जिसके उत्तरमें भगवान्ने तीसरे अध्यायके तीसवें श्लोकमें निष्काम, निर्मम और निःसंताप होकर युद्ध करनेकी आज्ञा दी तथा पैंतीसवें श्लोकमें अपने धर्मका पालन करनेको श्रेयस्कर बताया।

यहाँ उपर्युक्त पदोंसे अर्जुनने जो बात पूछी है, उसके उत्तरमें भगवान्ने कहा है कि कर्मयोग श्रेष्ठ है (5। 2) कर्मयोगी सुखपूर्वक संसार-बन्धनसे मुक्त हो जाता है (5। 3), कर्मयोगके बिना सांख्ययोगका साधन सिद्ध होना कठिन है; परन्तु कर्मयोगी शीघ्र ही ब्रह्मको प्राप्त कर लेता है (5। 6)। इस प्रकार कहकर भगवान् अर्जुनको मानो यह बता रहे हैं कि कर्मयोग ही तेरे लिये शीघ्रता और सुगमतापूर्वक ब्रह्मकी प्राप्ति करानेवाला है; अतः तू कर्मयोगका ही अनुष्ठान कर।अर्जुनके मनमें मुख्यरूपसे अपने कल्याणकी ही इच्छा थी। इसलिये वे बार-बार भगवान्के सामने श्रेयविषयक जिज्ञासा रखते हैं (2। 7 3। 2 5। 1)। कल्याणकी प्राप्तिमें इच्छाकी प्रधानता है। साधनकी सफलतामें देरीका कारण भी यही है कि कल्याणकी इच्छा पूरी तरह जाग्रत् नहीं हुई। जिन साधकोंमें तीव्र वैराग्य नहीं है, वे भी कल्याणकी इच्छा, जाग्रत् होनेपर कर्मयोगका साधन सुगमतापूर्वक कर सकते हैं (टिप्पणी प0 278)। अर्जुनके हृदयमें भोगोंसे पूरा वैराग्य नहीं है, पर उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है इसलिये वे कर्मयोगके अधिकारी हैं।पहले अध्यायके बत्तीसवें तथा दूसरे अध्यायके आठवें श्लोकको देखनेसे पता लगता है कि अर्जुन मृत्युलोकके राज्यकी तो बात ही क्या है, त्रिलोकीका राज्य भी नहीं चाहते। परन्तु वास्तवमें अर्जुन राज्य तथा भोगोंको सर्वथा नहीं चाहते हों, ऐसी बात भी नहीं है। वे कहते हैं कि युद्धमें कुटुम्बीजनोंको मारकर राज्य तथा विजय नहीं चाहता। इसका तात्पर्य है कि यदि कुटुम्बीजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो मैं उसे लेनेको तैयार हूँ। दूसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें अर्जुन यही कहते हैं कि गुरुजनोंको मारकर भोग भोगनाठीक नहीं है। इससे यह ध्वनि भी निकलती है कि गुरुजनोंको मारे बिना राज्य मिल जाय तो वह स्वीकार है। दूसरे अध्यायके छठे श्लोकमें अर्जुन कहते हैं कि कौन जीतेगा--इसका हमें पता नहीं और उन्हें मारकर हम जीना भी नहीं चाहते। इसका तात्पर्य है कि यदि हमारी विजय निश्चित हो तथा उनको मारे बिना राज्य मिलता हो तो मैं लेनेको तैयार हूँ। आगे दूसरे अध्यायके सैंतीसवें श्लोकमें भगवान् अर्जुनसे कहते हैं कि तेरे तो दोनों हाथोंमें लड्डू हैं; यदि युद्धमें तू मारा गया तो तुझे स्वर्ग मिलेगा और जीत गया तो राज्य मिलेगा। यदि अर्जुनके मनमें स्वर्ग और संसारके राज्यकी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं होती तो भगवान् शायद ही ऐसा कहते। अतः अर्जुनके हृदयमें प्रतीत होनेवाला वैराग्य वास्तविक नहीं है। परन्तु उनमें अपने कल्याणकी इच्छा है, जो इस श्लोकमें भी दिखायी दे रही है। 

सम्बन्ध--अब भगवान् अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हैं।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।5.1।।केवल संन्यास करनेमात्रसे ही सिद्धिको प्राप्त नहीं होता है इस वचनसे ज्ञानसहित संन्यासको ही सिद्धिका साधन माना है साथ ही कर्मयोगका भी विधान किया है इसलिये ज्ञानरहित संन्यास कल्याणकर हैअथवा कर्मयोग इन दोनोंकी विशेषता जाननेकी इच्छासे अर्जुन बोला आप पहले तो शास्त्रोक्त बहुत प्रकारके अनुष्ठानरूप कर्मोंका त्याग करनेके लिये कहते हैं अर्थात् उपदेश करते हैं और फिर उनके अनुष्ठानकी अवश्यकर्तव्यतारूप योगको भी बतलाते हैं। इसलिये मुझे यह शङ्का होती है कि इनमेंसे कौनसा श्रेयस्कर है। कर्मोंका अनुष्ठान करना कल्याणकर है अथवा उनका त्याग करना जो श्रेष्ठतर हो उसीका अनुष्ठान करना चाहिये इसलिये इन कर्मसंन्यास और कर्मयोगमें जो श्रेष्ठ हो अर्थात् जिसका अनुष्ठान करनेसे आप यह मानते हैं कि मुझे कल्याणकी प्राप्ति होगी उस भलीभाँति निश्चय किये हुए एक ही अभिप्रायको अलग करके कहिये क्योंकि एक पुरुषद्वारा एक साथ दोनोंका अनुष्ठान होना असम्भव है।

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।5.1।। अर्जुन के इस प्रश्न से स्पष्ट होता है कि अनजाने में ही वह अपनी नैराश्य अवस्था से बहुत कुछ मुक्त हुआ भगवान् के उपदेश को ध्यानपूर्वक श्रवण करके विचार भी करने लगा था। स्वभाव से क्रियाशील होने के कारण अर्जुन को कर्मयोग रुचिकर तथा स्वीकार्य था। परन्तु अनेक स्थानों पर श्रीकृष्ण द्वारा अन्य यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान अथवा कर्मसंन्यास को अधिक श्रेष्ठ प्रतिपादित करने से अर्जुन के मन में सन्देह उत्पन्न हुआ और यही कारण था कि वह स्वयं के लिए किसी मार्ग का निश्चय नहीं कर सका। अत इसका निश्चय कराना ही अर्जुन के प्रश्न का प्रयोजन है।और एक बात यह भी है कि मानसिक उन्माद का रोगी उस रोग के प्रभाव से कुछ मुक्त होने पर भी शीघ्र ही पूर्ण आत्मविश्वास नहीं जुटा पाता। यह सबका अनुभव है कि भयंकर स्वप्न से जागे हुए व्यक्ति को पुन संयमित होकर निद्रा अवस्था में आने के उपक्रम में कुछ समय लग जाता है। अर्जुन की ठीक ऐसी ही स्थिति थी। मानसिक तनाव एवं उन्माद की स्थिति से बाहर आने पर भी अपने सारथी श्रीकृष्ण के उपदेश को पूर्णरूप से समझने तथा विचार करने में वह स्वयं को असमर्थ पा रहा था। अर्जुन इस निष्कर्ष पर पहुँचा था कि भगवान् उसके सामने कर्मयोग तथा कर्मसंन्यास के रूप में दो विकल्प प्रस्तुत कर रहे हैं। अत वह श्रीकृष्ण से यह जानना चाहता है कि उसके आत्मकल्याण के लिये इन दोनों में से कौन सा एक निश्चित मार्ग अनुकरणीय है। इस अध्याय का प्रयोजन यह बताने का है कि ये दो मार्ग विकल्प रूप नहीं है और न ही परस्पर पूरक होते हुये युगपत अनुष्ठेय हैं।कर्मयोग तथा कर्मसंन्यास इनका इसी क्रम में आचरण करना है और न कि एक साथ दोनों का। यही इस अध्याय का विषय है।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।5.1।। अर्जुन बोले -- हे कृष्ण ! आप कर्मोंका स्वरूपसे त्याग करनेकी और फिर कर्मयोगकी प्रशंसा करते हैं। अतः इन दोनों साधनोंमें जो एक निश्चितरूपसे कल्याणकारक हो, उसको मेरे लिये कहिये।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।5.1।। अर्जुन ने कहा हे --  कृष्ण ! आप कर्मों के संन्यास की और फिर योग (कर्म के आचरण) की प्रशंसा करते हैं। इन दोनों में एक जो निश्चय पूर्वक श्रेयस्कर है, उसको मेरे लिए कहिये।।