अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।10.42।। व्याख्या --'अथवा'--यह अव्यय-पद देकर भगवान् अर्जुनसे मानो यह कह रहे हैं कि तुमने जो प्रश्न किया था, उसके अनुसार मैंने उत्तर दिया ही है; अब मैं अपनी तरफसे तेरे लिये एक विशेष महत्त्वकी सार बात बताता हूँ।
'बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन' -- भैया अर्जुन! तुम्हें इस प्रकार बहुत जाननेकी क्या जरूरत है? मैं घोड़ोंकी लगाम और चाबुक पकड़े तेरे सामने बैठा हूँ। दीखनेमें तो मैं छोटा-सा दीखता हूँ, पर मेरे इस शरीरके किसी एक अंशमें अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड महासर्ग और महाप्रलय -- दोनों अवस्थाओंमें मेरेमें स्थित हैं। उन सबको लेकर मैं तेरे सामने बैठा हूँ और तेरी आज्ञाका पालन करता हूँ! इसलिये जब मैं स्वयं तेरे सामने हूँ? तब तेरे लिये बहुत-सी बातें जाननेकी क्या जरूरत है?
'विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्' -- मैं इस सम्पूर्ण जगत्को एक अंशसे व्याप्त करके स्थित हूँ -- यह कहनेका तात्पर्य है कि भगवान्के किसी भी अंशमें अनन्त सृष्टियाँ विद्यमान हैं --'रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड' (मानस 1। 201)। परन्तु उन सृष्टियोंसे भगवान्का कोई अंश, भाग रुका नहीं है अर्थात् भगवान्के किसी अंशमें उन सब सृष्टियोंके रहनेपर भी वहाँ खाली जगह पड़ी है। जैसे, प्रकृतिका बहुत क्षुद्र अंश हमारी बुद्धि है। बुद्धिमें कई भाषाओंका, कई लिपियोंका, कई कलाओंका ज्ञान होनेपर भी हम ऐसा नहीं कह सकते कि हमारी बुद्धि अनेक भाषाओं आदिके ज्ञानसे भर गयी है; अतः अब दूसरी भाषा, लिपि आदि जाननेके लिये जगह नहीं रही। तात्पर्य है कि बुद्धिमें अनेक भाषाओं आदिका ज्ञान होनेपर भी बुद्धिमें जगह खाली ही रहती है और कितनी ही भाषाएँ आदि सीखनेपर भी बुद्धि भर नहीं सकती। इस प्रकार जब,प्रकृतिका छोटा अंश बुद्धि भी अनेक भाषाओं आदिके ज्ञानसे नहीं भरती, तो फिर प्रकृतिसे अतीत, अनन्त, असीम और अगाध भगवान्का कोई अंश अनन्त सृष्टियोंसे कैसे भर सकता है? वह तो बुद्धिकी अपेक्षा भी विशेषरूपसे खाली रहता है।
इस प्रकार , तत्, सत्' -- इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें 'विभूतियोग' नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।10।।
।।10.42।।अथवा हे अर्जुन इस उपर्युक्त प्रकारसे वर्णन किये हुए अधूरे विभूतिविस्तारके जाननेसे तेरा क्या ( प्रयोजन सिद्ध ) होगा? ( तू तो बस? ) यह सम्पूर्णतासे कहा जानेवाला अभिप्राय ही सुन ले -- मैं एक अंशसे अर्थात् सर्व भूतोंका आत्मरूप जो मेरा एक अवयव है उससे? इस सारे जगत्को विशेष रूपसे दृढ़तापूर्वक धारण करके स्थित हो रहा हूँ। ऐसा ही वेदमन्त्र भी कहते हैं कि समस्त भूत इस परमेश्वरका एक पाद है। इत्यादि।
10.42 अथवा or, बहुना (by) many, एतेन (by) this, किम् what, ज्ञातेन known, तव to thee, अर्जुन O Arjuna, विष्टभ्य supporting, अहम् I, इदम् this, कृत्स्नम् all, एकांशेन by one part, स्थितः exist, जगत् the world.
Commentary:
The Lord concludes Having established or pervaded this whole world with one fragment of Myself, I remain.This verse is based on the declaration in the Purusha Sukta (RigVeda10.90.3) that One arter of Him is all the cosmos the three arters are the divine transcendent Reality.I exist supporting this whole world by one part, by one limit, or by one foot. One part of Myself constitutes all beings.All beings form His foot (Taittiriya Aranyaka 3.12). The whole world is one Pada or foot of the Lord. Amsa (part) or Pada (foot) is mere Kalpana or imagination or account of our own ignorance,or limiting adjunct. In reality Brahman is without any such parts or limbs and is formless.Arjuna has now a knowledge of the glories of the Lord. He is fit to behold the magnificent cosmic form of the Lord. Lord Krishna prepares Arjuna for this grand vision by giving him a description of His glories.Arjuna says O Lord, I now realise that the whole world is filled by Thee. I now wish to behold the whole universe in Thee with my eye of intuition.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita, the science of the Eternal, the scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krishna and Arjuna, ends the tenth discourse entitledThe Yoga of the Divine Glories.
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।।10.42।। यद्यपि मित्रता और स्नेह के उत्स्फूर्त भावावेश में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अपनी विभूति (समष्टि रूप) और योग ( व्यष्टि रूप) को वर्णन करने का वचन दिया था? परन्तु एकएक उदाहरण देते समय उन्होंने अपने को इस कार्य के लिए सर्वथा असमर्थ पाया। अनन्त तत्त्व के अनन्त विस्तार का वर्णन कैसे संभव हो सकता है असमर्थता के कारण उन्हें विषाद है किन्तु पुन अपने शिष्य के प्रति अत्यन्त प्रेम के कारण? भगवान् श्रीकृष्ण सम्पूर्ण अध्याय का सार इस अन्तिम श्लोक में बताते हैं।इस बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है वास्तव मे देखा जाय? तो अनन्त तत्त्व को प्रत्येक परिच्छिन्न रूप में दर्शाने का प्रयत्न व्यर्थ ही है? क्योंकि वह असंभव है। मिट्टी को समस्त विद्यमान घटों में तथा जल को सम्पूर्ण तरंगों में एकएक करके दिखाना असंभव है। केवल इतना ही किया जा सकता है कि कुछ उदाहरणों के द्वारा विद्यार्थियों को तत्त्व का दर्शन करने की कला को सिखाया जाय। गणित के अध्यापन में इसी पद्धति का उपयोग किया जाता है।मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ वेदान्त में जगत् शब्द में वे समस्त अनुभव समाविष्ट है? जो हम अपनी इन्द्रियों? मन और बुद्धि के द्वारा प्राप्त करते हैं। संक्षेप में जिन वस्तुओं को हम दृश्य रूप में जानते हैं? वे सभी जगत् शब्द की परिभाषा में आते हैं। इसमें दृश्य पदार्थ? भावनाएं? विचार और उनको ग्रहण करने वाली इन्द्रियादि उपाधियाँ भी सम्मिलित हैं।इस श्लोक की दूसरी पंक्ति में भगवान् श्रीकृष्ण आत्मस्वरूप की दृष्टि से कहते हैं कि यह सम्पूर्ण जगत् उनके एक अंश मात्र में धारण किया हुआ है। इस कथन का एक और दार्शनिक अभिप्राय यह है कि सत्य का अधिकांश भाग इस जगत् तथा उसके विकारों से सर्वथा निर्लिप्त है यद्यपि सर्वत्र समान रूप से व्याप्त अखण्ड सत्य में इस प्रकार अंशों का भेद नहीं किया जा सकता? तथापि लौकिक परिच्छिन्न भाषा के शब्दों द्वारा पारमार्थिक सत्य को निर्देशित करने की यह एक औपनिषदीय पद्धति है।conclusion तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे,श्रीकृष्णार्जुनसंवादे विभूतियोगो नाम दशमोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का विभूतियोग नामक दंसवा अध्याय समाप्त होता है।
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।।