तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदन्तमिदं वचः।।2.10।।
श्रीमद् भगवद्गीता
2.10।। व्याख्या-- तमुवाच हृषीकेषशः ৷৷. विषीदन्तमिदं वचः-- अर्जुनने बड़ी शूरवीरता और उत्साहपूर्वक योद्धाओंको देखनेके लिये भगवान्से दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा करनेके लिये कहा था। अब वहींपर अर्थात् दोनों सेनाओंके बीचमें अर्जुन विषादमग्न हो गये! वास्तवमें होना यह चाहिये था कि वे जिस उद्देश्यसे आये थे, उस उद्देश्यके अनुसार युद्धके लिये खड़े हो जाते। परन्तु उस उद्देश्यको छोड़कर अर्जुन चिन्ता-शोकमें फँस गये। अतः अब दोनों सेनाओंके बीचमें ही भगवान् शोकमग्न अर्जुनको उपदेश देना आरम्भ करते हैं।
'प्रहसन्निव'-- (विशेषतासे हँसते हुएकी तरह-) का तात्पर्य है कि अर्जुनके भाव बदलनेको देखकर अर्थात् पहले जो युद्ध करनेका भाव था, वह अब विषादमें बदल गया--इसको देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। दूसरी बात, अर्जुनने पहले (2। 7 में) कहा था कि मैं आपके शरण हूँ, मेरेको शिक्षा दीजिये अर्थात् मैं युद्ध करूँ या न करूँ, मेरेको क्या करना चाहिये-- इसकी शिक्षा दीजिये; परन्तु यहाँ मेरे कुछ बोले बिना अपनी तरफसे ही निश्चय कर लिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'--यह देखकर भगवान्को हँसी आ गयी। कारण कि शरणागत होनेपर 'मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ' आदि कुछ भी सोचनेका अधिकार नहीं रहता। उसको तो इतना ही अधिकार रहता है कि शरण्य जो काम कहता है, वही काम करे। अर्जुन भगवान्के शरण होनेके बाद 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' ऐसा कहकर एक तरहसे शरणागत होनेसे हट गये। इस बातको लेकर भगवान्को हँसी आ गयी। 'इव' का तात्पर्य है कि जोरसे हँसी आनेपर भी भगवान् मुस्कराते हुए ही बोले।
जब अर्जुनने यह कह दिया कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' तब भगवान्को यहीं कह देना चाहिये था कि जैसी तेरी मर्जी आये, वैसा कर--'यथेच्छसि तथा कुरु'(18। 63)। परन्तु भगवान्ने यही समझा कि मनुष्य जब चिन्ता-शोकसे विकल हो जाता है, तब वह अपने कर्तव्यका निर्णय न कर सकनेके कारण कभी कुछ, तो कभी कुछ बोल उठता है। यही दशा अर्जुनकी हो रही है। अतः भगवान्के हृदयमें अर्जुनके प्रति अत्यधिक स्नेह होनेके कारण कृपालुता उमड़ पड़ी। कारण कि भगवान् साधकके वचनोंकी तरफ ध्यान न देकर उसके भावकी तरफ ही देखते हैं। इसलिये भगवान् अर्जुनके 'मैं युद्ध नहीं करूँगा' इस वचनकी तरफ ध्यान न देकर (आगेके श्लोकसे) उपदेश आरम्भ कर देते हैं।
जो वचनमात्रसे भी भगवान्के शरण हो जाता है भगवान् उसको स्वीकार कर लेते हैं। भगवान्के हृदयमें प्राणियोंके प्रति कितनी दयालुता है!
'हृषीकेश' कहनेका तात्पर्य है कि भगवान् अन्तर्यामी हैं अर्थात् प्राणियोंके भीतरी भावोंको जाननेवाले हैं। भगवान् अर्जुनके भीतरी भावोंको जानते हैं कि अभी तो कौटुम्बिक मोहके वेगके कारण और राज्य मिलनेसे अपना शोक मिटता न दीखनेके कारण यह कह रहा है कि 'मैं युद्ध नहीं करूँगा'; परन्तु जब इसको स्वयं चेत होगा ,तब यह बात ठहरेगी नहीं और मैं जैसा कहूँगा, वैसा ही यह करेगा।
'इदं वचः उवाच' पदोंमें केवल 'उवाच' कहनेसे ही काम चल सकता था; क्योंकि 'उवाच' के अन्तर्गत ही 'वचः' पदका अर्थ आ जाता है। अतः 'वचः' पद देना पुनरूक्तिदोष दीखता है। परन्तु वास्तवमें यह पुनरुक्तिदोष नहीं है, प्रत्युत इसमें एक विशेष भाव भरा हुआ है। अभी आगेके श्लोकसे भगवान् जिस रहस्यमय ज्ञानको प्रकट करके उसे सरलतासे, सुबोध भाषामें समझाते हुए बोलेंगे, उसकी तरफ लक्ष्य करनेके लिये यहाँ 'वचः' दिया गया है।
सम्बन्ध -- शोकाविष्ट अर्जुनको शोकनिवृत्तिका उपदेश देनेके लिये भगवान् आगेका प्रकरण कहते हैं।
।।2.10।।यहाँ दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकम् इस श्लोकसे लेकर न योत्स्य इति गोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह इस श्लोकतकके ग्रन्थकी व्याख्या यों कर लेनी चाहिये कि यह प्रकरण प्राणियोंके शोक मोह आदि जो संसारके बीजभूत दोष है उनकी उत्पत्तिका कारण दिखलानेके लिये है।
क्योंकि कथं भीष्ममहं संख्ये इत्यादि श्लोकोंद्वारा अर्जुनने इसी तरह राज्य गुरु पुत्र मित्र सुहृद स्वजन सम्बन्धी और बान्धवोंके विषयमें यह मेरे हैं मैं इनका हूँ इस प्रकार अज्ञानजनित स्नेहविच्छेद आदि कारणोंसे होनेवाले अपने शोक और मोह दिखाये हैं।
यद्यपि ( वह अर्जुन ) स्वयं ही पहले क्षात्रधर्मरूप युद्धमें प्रवृत्त हुआ था तो भी शोकमोहके द्वारा विवेकविज्ञानके दब जानेपर ( वह ) उस युद्धसे रुक गया और भिक्षाद्वारा जीवननिर्वाह करना आदि दूसरोंके धर्मका आचरण करनेके लिये प्रवृत्त हो गया।
इसी तरह शोकमोह आदि दोषोंसे जिनका चित्त घिरा हुआ हो ऐसे सभी प्राणियोंसे स्वधर्मका त्याग और निषिद्ध धर्मका सेवन स्वाभाविक ही होता है।
यदि वे स्वधर्मपालनमें लगे हुए हों तो भी उनके मन वाणी और शरीरादिकी प्रवृत्ति फलाकांक्षापूर्वक और अहंकारसहित ही होती है।
ऐसा होनेसे पुण्यपाप दोनों बढ़ते रहनेके कारण अच्छेबुरे जन्म और सुखदुःखोंकी प्राप्तिरूप संसार निवृत्त नहीं हो पाता अतः शोक और मोह यह दोनों संसारके बीजरूप हैं।
इन दोनोंकी निवृत्ति सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक आत्मज्ञानके अतिरिक्त अन्य उपायसे नहीं हो सकती। अतः उसका ( आत्मज्ञानका ) उपदेश करने की इच्छावाले भगवान् वासुदेव सब लोगोंपर अनुग्रह करने के लिये अर्जुनको निमित्त बनाकर कहने लगे अशोच्यान् इत्यादि।
इसपर कितने ही टीकाकार कहते हैं कि केवल सर्वकर्मसंन्यासपूर्वक आत्मज्ञाननिष्ठामात्रसे ही कैवल्यकी ( मोक्षकी ) प्राप्ति नहीं हो सकती किंतु अग्निहोत्रादि श्रौतस्मार्तकर्मोंसहित ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति होती है यही सारी गीताका निश्चित अभिप्राय है।
इस अर्थमें वे प्रमाण भी बतलाते हैं जैसे अथ चेत्त्वमिमं धम्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि कर्मण्येवाधिकारस्ते कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम् इत्यादि।
( वे यह भी कहते हैं कि ) हिंसा आदिसे युक्त होनेके कारण वैदिक कर्म अधर्मका कारण है ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिये क्योंकि गुरु भ्राता और पुत्रादिकी हिंसा ही जिसका स्वरूप है ऐसा अत्यन्त क्रूर युद्धरूप क्षात्रकर्म भी स्वधर्म माना जानेके कारण अधर्मका हेतु नहीं है ऐसा कहनेवाले तथा उसके न करनेमें ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि इस प्रकार दोष बतलानेवाले भगवान्का यह कथन तो पहले ही सुनिश्चित हो जाता है कि जीवनपर्यन्त कर्म करें इत्यादि श्रुतिवाक्योंद्वारा वर्णित पशु आदिकी हिंसारूप कर्मोंको करना अधर्म नहीं है।
परंतु वह ( उन लोगोंका कहना ) ठीक नहीं है क्योंकि भिन्नभिन्न दो बुद्धियोंके आश्रित रहनेवाली ज्ञाननिष्ठा और कर्मनिष्ठाका अलगअलग वर्णन है।
अशोच्यान् इस श्लोकसे लेकर स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इस श्लोकके पहलेके प्रकरणसे भगवान्ने जिस परमार्थआत्मतत्त्वका निरूपण किया है वह सांख्य है तद्विषयक जो बुद्धि है अर्थात् आत्मामें जन्मादि छहों विकारोंका अभाव होनेके कारण आत्मा अकर्ता है इस प्रकारका जो निश्चय उक्त प्रकरणके अर्थका विवेचन करनेसे उत्पन्न होता है वह सांख्यबुद्धि है वह जिन ज्ञानियोंके लिये उचित होती है ( जो उसके अधिकारी हैं ) वे सांख्ययोगी हैं।
इस ( उपर्युक्त ) बुद्धिके उत्पन्न होनेसे पहलेपहले आत्माका देहादिसे पृथक्पन कर्तापन और भोक्तापन माननेकी अपेक्षा रखनेवाला जो धर्मअधर्मके विवेकसे युक्त मार्ग है मोक्षसाधनोंका अनुष्ठान करनेके लिये चेष्टा करना ही जिसका स्वरूप है उसका नाम योग है और तद्विषयक जो बुद्धि है वह योगबुद्धि है वह जिन कर्मियोंके लिये उचित होती है ( जो उसके अधिकारी हैं ) वे योगी हैं।
इसी प्रकार भगवान्ने एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु इस श्लोकसे अलगअलग दो बुद्धियाँ दिखलायी हैं।
उन दोनों बुद्धियोंमेंसे सांख्यबुद्धिके आश्रित रहनेवाली सांख्ययोगियोंकी ज्ञानयोगसे ( होनेवाली ) निष्ठाको पुरा वेदात्मना मया प्रोक्ता इत्यादि वचनोंसे अलग कहेंगे।
तथा योगबुद्धिके आश्रित रहनेवाली कर्मयोगसे ( होनेवाली ) निष्ठाको कर्मयोगेन योगिनाम् इत्यादि वचनोंसे अलग कहेंगे।
कर्तापनअकर्तापन और एकताअनेकताजैसी भिन्नभिन्न बुद्धिके आश्रित रहनेवाले जो ज्ञान और कर्म हैं उन दोनोंका एक पुरुषमें होना असम्भव माननेवाले भगवान्ने ही स्वयं उपर्युक्त प्रकारसे सांख्यबुद्धि और योगबुद्धिका आश्रय लेकर अलगअलग दो निष्टाएँ कही हैं।
जिस प्रकार ( गीताशास्त्रमें ) इन दोनों निष्ठाओंका अलगअलग वर्णन है वैसे ही शतपथ ब्राह्मणमें भी दिखलाया गया है। ( वहाँ ) इस आत्मलोकको ही चाहनेवाले वैराग्यशील ब्राह्मण संन्यास लेते हैं इस प्रकार सर्वकर्मसंन्यासका विधान करके उसी वाक्यके शेष वाक्यसे कहा है कि जिन हमलोगोंका यह आत्मा ही लोक है ( वे हम ) सन्ततिसे क्या ( सिद्ध ) करेंगे।
वहीं यह भी कहा है कि प्राकृत आत्मा अर्थात् अज्ञानी मनुष्य धर्मजिज्ञासाके बाद और विवाहसे पहले तीनों लोकोंकी प्राप्तिके साधनरूप पुत्रकी तथा दैव और मानुष ऐसे दो प्रकारके धनकी इच्छा करने लगा। इनमें पितृलोककी प्राप्तिका साधनरूप कर्म तो मानुष धन है और देवलोककी प्राप्तिका साधनरूप विद्या देवधन है।
इस तरह ( उपर्युक्त श्रुतिमें ) अविद्या और कामनावाले पुरुषके लिये ही श्रौतादि सम्पूर्ण कर्म बताये गये हैं।
उन सब ( कर्मों ) से निवृत्त होकर संन्यास ग्रहण करते हैं इस कथनसे केवल आत्मलोकको चाहनेवाले निष्कामी पुरुषके लिये संन्यासका ही विधान किया है।
यदि ( इसपर भी यह बात मानी जायगी कि ) भगवान्को श्रौतकर्म और ज्ञानका समुच्चय इष्ट है तो यह उपर्युक्त विभक्त विवेचन अयोग्य ठहरेगा।
तथा ( ऐसा मान लेनेसे ) ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते इत्यादि जो अर्जुन का प्रश्न है वह भी नहीं बन सकता।
यदि ज्ञान और कर्मका एक पुरुषद्वारा एक साथ किया जाना असम्भव और कर्मकी अपेक्षा ज्ञानका श्रेष्ठत्व भगवान्ने पहले न कहा होता तो इस तरह अर्जुन बिना सुनी हुई बातका झूठे ही भगवान्में अध्यारोप कैसे करता कि ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः।
यदि सभीके लिये ज्ञान और कर्मका समुच्चय कहा होता तो अर्जुनके लिये भी वह कहा ही गया था फिर दोनोंका समुचित उपदेश होते हुए यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् इस प्रकार दोनोंमेंसे एकके ही सम्बन्धमें प्रश्न कैसे होता
क्योंकि पित्तकी शान्ति चाहनेवालेको वैद्यके द्वारा यह उपदेश दिया जानेपर कि मधुर और शीत पदार्थ सेवन करना चाहिये रोगोका यह प्रश्न नहीं बन सकता कि उन दोनोंमेंसे किसी एकको ही पित्तकी शान्तिका उपाय बतलाइये।
यदि ऐसी कल्पना की जाय कि भगवान्द्वारा कहे हुए वचन न समझनेके कारण अर्जुनने प्रश्न किया है तो फिर भगवान्को प्रश्नके अनुरूप ही यह उत्तर देना चाहिये था कि मैंने तो ज्ञान और कर्मका समुच्चय बतलाया है तू ऐसा भ्रान्त क्यों हो रहा है
परंतु प्रश्नसे विपरीत दूसरा ही उत्तर देना कि मैंने दो निष्ठाएँ पहले कही हैं ( उपर्युक्त कल्पनाके ) उपयुक्त नहीं है।
इसके सिवा यदि केवल स्मार्तकर्मके साथ ही ज्ञानका समुच्चय माना जाय तो भी विभक्त वर्णन आदि सब उपयुक्त नहीं ठहरते।
तथा ऐसा माननेसे युद्धरूप स्मार्तकर्म क्षत्रियका स्वधर्म है यह जाननेवाले अर्जुनका इस प्रकार उलाहना देना भी नहीं बन सकता कि तत् किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि।
सुतरां यह सिद्ध हुआ कि गीताशास्त्रमें किञ्चिन्मात्र भी श्रौत या स्मार्त किसी भी कर्मके साथ आत्मज्ञानका समुच्चय कोई भी नहीं दिखा सकता।
अज्ञानसे या आसक्ित आदि दोषोंसे कर्ममें लगे हुए जिस पुरुषको यज्ञसे दानसे या तपसे अन्तःकरण शुद्ध होकर परमार्थतत्त्वविषयक ऐसा ज्ञान प्राप्त हो जाता है कि यह सब एक ब्रह्म ही है और वह अकर्ता है।
उसके कर्ममें कर्म और फल दोनों ही यद्यपि निवृत्त हो चुकते हैं तो भी लोकसंग्रहके लिये पहलेकी भाँति यत्नपूर्वक कर्मोंमें लगे रहनेवाले पुरुषका जो प्रवृत्तिरूप कर्म दिखलायी देता है वह वास्तवमें कर्म नहीं है जिससे कि ज्ञानके साथ उसका समुच्चय हो सके।
जैसे भगवान् वासुदेवद्वारा किये हुए क्षात्रकर्मोंका मोक्षकी सिद्धिके लिये ज्ञानके साथ समुच्चय नहीं होता वैसे ही फलेच्छा और अहंकारके अभावकी समानता होनेके कारण ज्ञानीके कर्मोंका भी ( ज्ञानके साथ समुच्चय नहीं होता )।
क्योंकि आत्मज्ञानी न तो ऐसा ही मानता है कि मैं करता हूँ और न उन कर्मोंका फल ही चाहता है।
इसके सिवा जैसे कामसाधनरूप अग्निहोत्रादि कर्मोंका अनुष्ठान करने के लिये सकाम अग्निहोत्रादिमें लगे हुए स्वर्गादिकी कामनावाले अग्निहोत्रीकी कामना यदि आधा कर्म कर चुकनेपर नष्ट हो जाय और फिर भी उसके द्वारा वही अग्निहोत्रादि कर्म होता रहे तो भी वह काम्यकर्म नहीं होता ( वैसे ही ज्ञानीके कर्म भी कर्म नहीं हैं )।
कुर्वन्नपि न लिप्यते न करोति न लिप्यते इत्यादि वचनोंसे भगवान् भी जगहजगह यही बात दिखलाते हैं।
इसके सिवा जो पूर्वैः पूर्वतरं कृतम् कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः इत्यादि वचन हैं उनको विभागपूर्वक समझना चाहिये।
पू0 वह किस प्रकार समझें
उ0 यदि वे पूर्वमें होनेवाले जनकादि तत्त्ववेत्ता होकर भी लोकसंग्रहके लिये कर्मोंमें प्रवृत्त थे तब तो यह अर्थ समझना चाहिये कि गुण ही गुणोंमें बरत रहे हैं इस ज्ञानसे ही वे परम सिद्धिको प्राप्त हुए अर्थात् कर्मसंन्यासकी योग्यता प्राप्त होनेपर भी कर्मोंका त्याग नहीं किया कर्म करतेकरते ही परम सिद्धिको प्राप्त हो गये।
यदि वे जनकादि तत्त्वज्ञानी नहीं थे तो ऐसी व्याख्या करनी चाहिये कि वे ईश्वरके समर्पण किये हुए साधनरूप कर्मोंद्वारा चित्तशुद्धिरूप सिद्धिको अथवा ज्ञानोत्पत्तिरूप सिद्धिको प्राप्त हुए।
यही बात भगवान् कहेंगे कि ( योगी ) अन्तःकरणकी शुद्धिके लिये कर्म करते हैं।
तथा स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः ऐसा कहकर फिर उस सिद्धिप्राप्त पुरुषके लिये सिद्धिं प्राप्तो यथा ब्रह्म इत्यादि वचनोंसे ज्ञाननिष्ठा कहेंगे।
सुतरां गीताशास्त्रमें निश्चय किया हुआ अर्थ यही है कि केवल तत्त्वज्ञानसे ही मुक्ित होती है कर्मसहित ज्ञानसे नहीं।
जैसा यह भगवान्का अभिप्राय है वैसा ही प्रकरणके अनुसार विभागपूर्वक उनउन स्थानोंपर हम आगे दिखलायेंगे।
2.10 तम् to him, उवाच spoke, हृषीकेशः Hrishikesha, प्रहसन् smiling, इव as it were, भारत O Bharata, सेनयोः of the armies, उभयोः (of) both, मध्ये in the middle, विषीदन्तम् despondent, इदम् this, वचः word.
Commentary:
No commentary.
।।2.10।। इस प्रकार धर्म और अधर्म शुभ और अशुभ इन दो सेनाओं के संव्यूहन के मध्य अर्जुन (जीव) पूर्ण रूप से अपने सारथी भगवान् श्रीकृष्ण (सूक्ष्म विवेकवती बुद्धि) की शरण में आत्मसमर्पण करता है जो पाँच अश्वों (पंच ज्ञानेन्द्रियों) द्वारा चालित रथ (देह) अपने पूर्ण नियन्त्रण में रखते हैं।
ऐसे दुखी और भ्रमित व्यक्ति जीव अर्जुन को श्रीकृष्ण सहास्य उसकी अन्तिम विजय का आश्वासन देने के साथ ही गीता के आत्ममुक्ति का आध्यात्मिक उपदेश भी करते हैं जिसके ज्ञान से सदैव के लिये मनुष्य के शोक मोह की निवृत्ति हो जाती है।
उपनिषद् के रूपक को ध्यान में रखकर यदि हम संजय द्वारा चित्रित दृश्य का वर्णन उपर्युक्त प्रकार से करें तो इसमें हमें सनातन पारमार्थिक सत्य के दर्शन होंगे। जब जीव (अर्जुन) विषादयुक्त होकर शरीर में (देह) स्थित हो जाता है और सभी स्वार्थ पूर्ण कर्मों के साधनों (गाण्डीव) को त्यागकर इन्द्रियों को (श्वेत अश्व) मन की लगाम के द्वारा संयमित करता है तब सारथि (शुद्ध बुद्धि) जीव को धर्म शक्ति की सहायता से वह दैवी सार्मथ्य और मार्गदर्शन प्रदान करता है जिससे अधर्म की बलवान सेना को भी परास्त कर जीव सम्पूर्ण विजय को प्राप्त करता है।
।।2.10।। हे भरतवंशोद्भव धृतराष्ट्र! दोनों सेनाओंके मध्यभागमें विषाद करते हुए उस अर्जुनके प्रति हँसते हुए-से भगवान् हृषीकेश यह (आगे कहे जानेवाले) वचन बोले।
।।2.10।। हे भारत (धृतराष्ट्र) ! दोनों सेनाओं के बीच में उस शोकमग्न अर्जुन को भगवान् हृषीकेश ने हँसते हुए से यह वचन कहे।।