श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्।।3.43।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।3.43।। व्याख्या-- इन्द्रियाणि पराण्याहुः--शरीर अथवा विषयोंसे इन्द्रियाँ पर हैं। तात्पर्य यह है कि इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका ज्ञान होता है पर विषयोंके द्वारा इन्द्रियोंका ज्ञान नहीं होता। इन्द्रियाँ विषयोंके बिना भी रहती हैं पर इन्द्रियोंके बिना विषयोंकी सत्ता सिद्ध नहीं होती। विषयोंमें यह सामर्थ्य नहीं कि वे इन्द्रियोंको प्रकाशित करें, प्रत्युत इन्द्रियाँ विषयोंको प्रकाशित करती हैं। इन्द्रियाँ वही रहती हैं, पर विषय बदलते रहते हैं। इन्द्रियाँ व्यापक हैं और विषय व्याप्य हैं अर्थात् विषय इन्द्रियोंके अन्तर्गत आते हैं, पर इन्द्रियाँ विषयोंके अन्तर्गत नहीं आतीं। विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ सूक्ष्म हैं। इसलिये विषयोंकी अपेक्षा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक और सूक्ष्म हैं।

'इन्द्रियेभ्यः परं मनः'-- इन्द्रियाँ मनको नहीं जानतीं, पर मन सभी इन्द्रियोंको ही जानता है। इन्द्रियोंमें भी प्रत्येक इन्द्रिय अपने-अपने विषयको ही जानती है, अन्य इन्द्रियोंके विषयोंको नहीं; जैसे--कान केवल शब्दको जानते हैं, पर स्पर्श, रूप, रस और गंधको नहीं जानते; त्वचा केवल स्पर्शको जानती है, पर शब्द, रूप, रस और गन्धको नहीं जानती नेत्र केवल रूपको जानते हैं, पर शब्द, स्पर्श, रस और गन्धको नहीं जानते; रसना केवल रसको जानती है, पर शब्द स्पर्श रूप और गन्धको नहीं जानती और नासिका केवल गन्धको जानती है पर शब्द स्पर्श रूप और रसको नहीं जानती परन्तु मन पाँचों ज्ञानेन्द्रियोंको तथा उनके विषयोंको जानता है। इसलिये मन इन्द्रियोंसे श्रेष्ठ सबल प्रकाशक व्यापक और सूक्ष्म है।0'मनसस्तु परा बुद्धिः' मन बुद्धिको नहीं जानता पर बुद्धि मनको जानती है। मन कैसा है शान्त है या व्याकुल ठीक है या बेठीक इत्यादि बातोंको बुद्धि जानती है। इन्द्रियाँ ठीक काम करती हैं या नहीं इसको भी बुद्धि जानती है तात्पर्य है कि बुद्धि मनको तथा उसके संकल्पोंको भी जानती है और इन्द्रियोँको तथा उनके विषयोंको भी जानती है। इसलिये इन्द्रियोँसे पर जो मन है उस मनसे भी बुद्धि पर (श्रेष्ठ बलवान् प्रकाशक,व्यापर और सूक्ष्म) य:बुध्दे: परतस्तु स:'-- बुद्धिका स्वामी 'अहम्' है,स्क्षूलशरीर 'विषय'है, इन्दियाँ बहि:करण है और मन-बुध्दि अन्त:करण है। स्थूलशरीर इन्दियाँ पर (श्रेष्ठ,सबल, प्रकाशक,व्यापक और सूक्षम) है तथा इन्दि्योंसे बुध्दिसे भी पर अहम् है, जो कर्ता है।उस अहम्-(कर्ता-) में काम अर्थात् लौकिक इच्छा रहती है। अपनी सत्ता (होनापन) अर्थात् अपना स्वरूप चेतन निर्विकार और  सत्-चित्-आनन्दरुप  है। जब वह जड(प्रकृतिजन्य शरीर) के साथ तादात्म्य कर लेता है तबअहम् उत्पन्न होता है और स्वरूपकर्ता बन जाता है। इस प्रकार कर्तामें एक जडअंश होता है और एक चेतनअंश। जडअंशकी मुख्यतासे संसारकी तरफ और चेतनअंशकी मुख्यतासे परमात्माकी तरफ आकर्षण होता है (टिप्पणी प0 201)। तात्पर्य यह है कि उसमें जडअंशकी प्रधानतासे लौकिक (संसारकी) इच्छाएँ रहती हैं और चेतनअंशकी प्रधानतासे पारमार्थिक (परमात्माकी) इच्छा रहती है। जडअंश मिटनेवाला है इसलिये लौकिक इच्छाएँ मिटनेवाली हैं और चेतनअंश सदा रहनेवाला है इसलिये पारमार्थिक इच्छा पूरी होनेवाली है। इसलिये लौकिक इच्छाओं(कामनाओं) की निवृत्ति और पारमार्थिक इच्छा(संसारसे छूटनेकी इच्छा स्वरूपबोधकी जिज्ञासा और भगवत्प्रेमकी अभिलाषा) की पूर्ति होती है लौकिक इच्छाएँ उत्पन्न हो सकती हैं पर टिक नहीं सकतीं। परन्तु पारमार्थिक इच्छा दब सकती है पर मिट नहीं सकती। कारण कि लौकिक इच्छाएँ अवास्तविक और पारमार्थिक इच्छा वास्तविक है। इसलिये साधकको न तो लौकिक इच्छाओँकी पूर्तिकी आशा रखनी चाहिये और न पारमार्थिक इच्छाकी पूर्तिसे निराश ही होना चाहिये।वस्तुतः मूलमें इच्छा एक ही है जो अपने अंशी परमात्माकी है। परन्तु जडके सम्बन्धसे इस इच्छाके दो भेद हो जाते हैं और मनुष्य अपनी वास्तविक इच्छाकी पूर्ति परिवर्तनशील जड(संसार) के द्वारा करनेके लिये जडपदार्थोंकी इच्छाएँ करने लगता है जो उसकी भूल है। कारण कि लौकिक इच्छाएँपरधर्म और पारमार्थिक इच्छास्वधर्म है। परन्तु साधकमें लौकिक और पारमार्थिक दोनों इच्छाएँ रहनेसे द्वन्द्व पैदा हो जाता है। द्वन्द्व होनेसे साधकमें भजन ध्यान सत्सङ्ग आदिके समय तो पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् रहती है पर अन्य समयमें उसकी पारमार्थिक इच्छा दब जाती है और लौकिक (भोग एवं संग्रहकी) इच्छाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। लौकिक इच्छाओंके रहते हुए साधकमें साधन करनेका एक निश्चय स्थिर नहीं रह सकता। पारमार्थिक इच्छा जाग्रत् हुए बिना साधककी उन्नति नहीं होती। जब साधकका एकमात्र परमात्मप्राप्ति करनेका दृढ़ उद्देश्य हो जाता है तब यह द्वन्द्व मिट जाता है और साधकमें एक पारमार्थिक इच्छा ही प्रबल रह जाती है। एक ही पारमार्थिक इच्छा प्रबल रहनेसे साधक सुगमतापूर्वक परमात्मप्राप्ति कर लेता है (गीता 5। 3)। इसलिये लौकिक और पारमार्थिक इच्छाका द्वन्द्व मिटाना साधकके लिये बहुत आवश्यक है।शुद्ध स्वरूपमें अपने अंशी परमात्माकी ओर स्वतः एक आकर्षण या रुचि विद्यमान रहती है जिसकोप्रेम कहते हैं। जब वह संसारके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है तब वहप्रेम दब जाता है औरकाम उत्पन्न हो जाता है। जबतककाम रहता है तबतकप्रेम जाग्रत् नहीं होता। जबतकप्रेम जाग्रत् नहीं होता तबतककाम का सर्वथा नाश नहीं होता। जडअंशकी मुख्यतासे जिसमें सांसारिक भोगोंकी इच्छा (काम) रहती है उसीमें चेतनअंशकी मुख्यतासे परमात्माकी इच्छा भी रहती है। अतः वास्तवमेंकाम का निवास जडअंशमें ही है पर वह भी चेतनके सम्बन्धसे ही है। चेतनका सम्बन्ध छूटते हीकाम का नाश हो जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि चेतनद्वारा जडसे सम्बन्धविच्छेद करते ही जडचेतनके तादात्म्यरूपअहम् का नाश हो जाता है औरअहम् का नाश होते हीकाम नष्ट हो जाता है।अहम् में जो जडअंश है उसमेंकाम रहता है इसकी प्रबल युक्ति यह है कि दृश्यरूपसे दीखनेवाला संसार उसे देखनेवाली इन्द्रियाँ तथा बुद्धि और उसे देखनेवाला स्वयं भोक्ता इन तीनोंमें जातीय (धातुगत) एकताके बिना भोक्ताका भोग्यकी ओर आकर्षण हो ही नहीं सकता। कारण कि आकर्षण सजातीयतामें ही होता है विजातीयतामें नहीं जैसे नेत्रोंका रूपके प्रति ही आकर्षण होता है शब्दके प्रति नहीं। यही बात सब इन्द्रियोंमें लागू होती है। बुद्धिका भी समझनेके विषय(विवेकविचार) में आकर्षण होता है शब्दादि विषयोंमें नहीं (यदि होता है तो इन्द्रियोंको साथमें लेनेसे ही होता है)। ऐसे ही स्वयं(चेतन) की परमात्मासे तात्त्विक एकता है इसलियेस्वयंका परमात्माकी ओर आकर्षण होता है। यह तात्त्विक एकता जडअंशका सर्वथा त्याग करनेसे अर्थात् जडसे माने हुए सम्बन्धका सर्वथा विच्छेद करनेसे ही अनुभवमें आती है। अनुभवमें आते हीप्रेम जाग्रत् हो जाता है। प्रेममें जडता(असत्) का अंश भी शेष नहीं रहता अर्थात् जडताका अत्यन्त अभाव हो जाता है।प्रकृतिके कार्य महत्तत्त्व(समष्टि बुद्धि) का अत्यन्त सूक्ष्म अंशकारणशरीर हीअहम् का जडअंश है। इस कारणशरीरमें हीकाम रहता है। कारणशरीरके तादात्म्यसेकाम स्वयंमें दीखता है। तादात्म्य मिटनेपर जिसमेंकाम का लेश भी नहीं है ऐसे अपने शुद्ध स्वरूपका अनुभव हो जाता है। स्वरूपका अनुभव हो जानेपरकाम सर्वथा निवृत्त हो जाता है।'एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा'पहले शरीरसे पर इन्द्रियाँ इन्द्रियोंसे पर मन मनसे पर बुद्धि और बुद्धिसे परकाम को बताया गया। अब उपर्युक्त पदोंमें बुद्धिसे परकाम को जाननेके लिये कहनेका अभिप्राय यह है कि यहकामअहममें रहता है। अपने वास्तविक स्वरूपमेंकाम नहीं है। यदि स्वरूपमेंकाम होता तो कभी मिटता नहीं। नाशवान् जडके साथ तादात्म्य कर लेनेसे हीकाम उत्पन्न होता है। तादात्म्यमें भीकाम रहता तो जडमें ही है पर दीखता है स्वरूपमें। इसलिये बुद्धिसे परे रहनेवाले इसकाम को जानकर उसका नाश कर देना चाहिये। 'संस्तभ्यात्मानमात्मना' बुद्धिसे परेअहम् में रहनेवालेकामको मारनेका उपाय है अपने द्वारा अपनेआपको वशमें करना अर्थात् अपना सम्बन्ध केवल अपने शुद्ध स्वरूपके साथ अथवा अपने अंशी भगवान्के साथ रखना जो वास्तवमें है। छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें उद्धरेदात्मनात्मानम् पदसे और छठे श्लोकमें 'येनात्मैवात्मनाजितः पदोंसे भी यही बात कही गयी है। स्वरूप (स्वयं) साक्षात् परमात्माका अंश है और शरीरइन्द्रियाँमनबुद्धि संसारके अंश हैं। जब स्वरूप अपने अंशी परमात्मासे विमुख होकर प्रकृति(संसार) के सम्मुख हो जाता है तब उसमें कामनाएँ उत्पन्न हो जाती हैं। कामनाएँ अभावसे उत्पन्न होती हैं और अभाव संसारके सम्बन्धसे होता है क्योंकि संसार अभावरूप ही है नासतो विद्यते भावः (गीता 2। 16)। संसारसे सम्बन्धविच्छेद होते ही कामनाओंका नाश हो जाता है क्योंकि स्वरूपमें अभाव नहीं है नाभावो विद्यते सतः (गीता 2। 16)।परमात्मासे विमुख होकर संसारसे अपना सम्बन्ध माननेपर भी जीवकी वास्तविक इच्छा (आवश्यकता या भूख) अपने अंशी परमात्माको प्राप्त करनेकी ही होती है।मैं सदा जीता रहूँ मैं सब कुछ जान जाऊँ मैं सदाके लिये सुखी हो जाऊँ इस रूपमें वह वास्तवमें सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्माकी ही इच्छा करता है पर संसारसे सम्बन्ध माननेके कारण वह भूलसे इन इच्छाओंको संसारसे ही पूरी करना चाहता है यहीकाम है। इसकामकी पूर्ति तो कभी हो ही नहीं सकती। इसलिये इसकामका नाश तो करना ही पड़ेगा।जिसने संसारसे अपना सम्बन्ध जोड़ा है वही उसे तोड़ भी सकता है। इसलिये भगवान्ने अपने द्वारा ही संसारसे अपना सम्बन्धविच्छेद करकेकाम को मारनेकी आज्ञा दी है।अपने द्वारा ही अपनेआपको वशमें करनेमें कोई अभ्यास नहीं है क्योंकि अभ्यास संसार(शरीर इन्द्रियाँ मन और बुद्धि) की सहायतासे ही होता है। इसलिये अभ्यासमें संसारके सम्बन्धकी सहायता लेनी पड़ती है। वास्तवमें अपने स्वरूपमें स्थिति अथवा परमात्माकी प्राप्ति संसारकी सहायतासे नहीं होती प्रत्युत संसारके त्याग(सम्बन्धविच्छेद) से अपनेआपसे होती है।मार्मिक बात जब चेतन अपना सम्बन्ध जडके साथ मान लेता है तब उसमें संसार(भोग) की भी इच्छा होती है और परमात्माकी भी। जडसे सम्बन्ध माननेपर जीवसे यही भूल होती है कि वह सत्चित्आनन्दस्वरूप परमात्माकी इच्छा अभिलाषाको संसारसे ही पूरी करनेके लिये सांसारिक पदार्थोंकी इच्छा करने लगता है। परिणामस्वरूप उसकी ये दोनों ही इच्छाएँ (स्वरूपबोधके बिना) कभी मिटती नहीं। संसारको जाननेके लिये अलग होना और परमात्माको जाननेके लिये परमात्मासे अभिन्न होना आवश्यक है क्योंकि वास्तवमेंस्वयं की संसारसे भिन्नता और परमात्मासे अभिन्नता है। परन्तु संसारकी इच्छा करनेसेस्वयं संसारसे अपनी अभिन्नता या समीपता मान लेता है जो कभी सम्भव नहीं और परमात्माकी इच्छा करनेसेस्वयं परमात्मासे अपनी भिन्नता या दूरी (विमुखता) मान लेता है पर इसकी सम्भावना ही नहीं। हाँ सांसारिक इच्छाओंको मिटानेके लिये पारमार्थिक इच्छा करना बहुत उपयोगी है। यदि पारमार्थिक इच्छा तीव्र हो जाय तो लौकिक इच्छाएँ स्वतः मिट जाती हैं। लौकिक इच्छाएँ सर्वथा मिटनेपर पारमार्थिक इच्छा पूरी हो जाती है अर्थात् नित्यप्राप्त परमात्माका अनुभव हो जाता है (टिप्पणी प0 203.1। कारण कि वास्तवमें परमात्मा सदासर्वत्र विद्यमान है पर लौकिक इच्छाएँ रहनेसे उनका अनुभव नहीं होता। जहि शत्रुं महाबाहो कारूपँ दुरासदम् महाबाहो का अर्थ है बड़ी और बलवान् भुजाओंवाला अर्थात् शूरवीर। अर्जुनको महाबाहो अर्थात् शूरवीर कहकर भगवान् यह लक्ष्य कराते हैं कि तुम इसकामरूप शत्रुका दमन करनेमें समर्थ हो।संसारसे सम्बन्ध रखते हुएकाम का नाश करना बहुत कठिन है। यहकाम बड़ोंबड़ोंके भी विवेकको ढककर उन्हें कर्तव्यसे च्युत कर देता है जिससे उनका पतन हो जाता है। इसलिये भगवान्ने इसे दुर्जय शत्रु कहा है।काम को दुर्जय शत्रु कहनेका तात्पर्य इससे अधिक सावधान रहनेमें है इसे दुर्जय समझकर निराश होनेमें नहीं।

किसी एक कामनाकी उत्पत्ति पूर्ति अपूर्ति और निवृत्ति होती है इसलिये मात्र कामनाएँ उत्पन्न और नष्ट होनेवाली हैं। परन्तुस्वयं निरन्तर रहता है और कामनाओंके उत्पन्न तथा नष्ट होनेको जानता है। अतः कामनाओंसे वह सुगमतापूर्वक सम्बन्धविच्छेद कर सकता है क्योंकि वास्तवमें सम्बन्ध है ही नहीं। इसलिये साधकको कामनाओंसे कभी घबराना नहीं चाहिये। यदि साधकका अपने कल्याणका पक्का उद्देश्य है (टिप्पणी प0 203.2) तो वहकामको सुगमतापूर्वक मार सकता है।कामनाओंके त्यागमें अथवा परमात्माके प्राप्तिमें सब स्वतन्त्र अधिकारी योग्य और समर्थ हैं। परन्तु कामनाओंकी पूर्तिमें कोई भी स्वतन्त्र अधिकारी योग्य और समर्थ नहीं है। कारण कि कामना पूरी होनेवाली है ही नहीं। परमात्माने मानवशरीर अपनी प्राप्तिके लिये ही दिया है। अतः कामनाका त्याग करना कठिन नहीं है। सांसारिक भोगपदार्थोंको महत्त्व देनेके कारण ही कामनाका त्याग कठिन मालूम देता है। सुख(अनुकूलता) की कामनाको मिटानेके लिये ही भगवान् समयसमयपर दुःख (प्रतिकूलता) भेजते हैं कि सुखकी कामना मत करो कामना करोगे तो दुःख पाना ही पड़ेगा। सांसारिक पदार्थोंकी कामनावाला मनुष्य दुःखसे कभी बच ही नहीं सकता यह नियम है क्योंकि संयोगजन्य भोग ही दुःखके हेतु हैं (गीता 5। 22)।स्वयं(स्वरूप) में अनन्त बल है। उसकी सत्ता ओर बलको पाकर ही बुद्धि मन और इन्द्रियाँ सत्तावान् एवं बलवान् होते हैं। परन्तु जडसे सम्बन्ध जोड़नेके कारण वह अपने बलको भूल रहा है और अपनेको बुद्धि मन और इन्द्रियोंके अधीन मान रहा है। अतएवकामरूप शत्रुको मारनेके लिये अपनेआपको जानना और अपने बलको पहचानना बड़ा आवश्यक है।काम जडके सम्बन्धसे और जडमें ही होता है। तादात्म्य होनेसे वह स्वयंमें प्रतीत होता है। जडका सम्बन्ध न रहे तोकाम है ही नहीं। इसलिये यहाँकाम को मारनेका तात्पर्य वस्तुतःकाम का सर्वथा अभाव बतानेमें ही है। इसके विपरीत यदिकाम अर्थात् कामनाकी सत्ताको मानकर उसे मिटानेकी चेष्टा करें तो कामनाका मिटना कठिन है। कारण कि वास्तवमें कामनाकी स्वतन्त्र सत्ता है ही नहीं। कामना उत्पन्न होती है और उत्पन्न होनेवाली वस्तु नष्ट होगी ही यह नियम है। यही कामना न करें तो पहलेकी कामनाएँ अपनेआप नष्ट हो जायँगी। इसलिये कामनाको मिटानेका तात्पर्य है नयी कामना न करना।शरीरादि सांसारिक पदार्थोंकोमैंमेरा औरमेरे लिये माननेसे ही अपनेआपमें कमीका अनुभव होता है पर मनुष्य भूलसे उस कमीकी पूर्ति भी सांसारिक पदार्थोंसे ही करना चाहता है। इसलिये वह उन पदार्थोंकी कामना करता है। परन्तु वास्तवमें आजतक सांसारिक पदार्थोंसे किसीकी भी कमीकी पूर्ति हुई नहीं होगी नहीं और हो सकती भी नहीं। कारण कि स्वयं अविनाशी है और पदार्थ नाशवान् हैं। स्वयं अविनाशी होकर भी नाशवान्की कामना करनेसे लाभ तो कोई होता नहीं और हानि कोईसी भी बाकी रहती नहीं। इसलिये भगवान् कामनाको शत्रु बताते हुए उसे मार डालनेकी आज्ञा देते हैं।कर्मयोगके द्वारा इस कामनाका नाश सुगमतासे हो जाता है। कारण कि कर्मयोगका साधक संसारकी छोटीसेछोटी अथवा बड़ीसेबड़ी प्रत्येक क्रिया परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य रखकर दूसरोंके लिये ही करता है कामनाकी पूर्तिके लिये नहीं। वह प्रत्येक क्रिया निष्कामभावसे एवं दूसरोंके हित और सुखके लिये ही करता है अपने लिये कभी कुछ नहीं करता। उसके पास जो समय समझ सामग्री और सामर्थ्य है वह सब अपनी नहीं है प्रत्युत मिली हुई है और बिछुड़ जायगी। इसलिये वह उसे अपनी कभी न मानकर निःस्वार्थभावसे (संसारकी ही मानकर) संसारकी ही सेवामें लगा देता है। उसे पूरीकीपूरी संसारकी सेवामेंलगा देता है अपने पास बचाकर नहीं रखता। अपना न माननेसे ही वह पूरीकीपूरी सेवामें लगती हैअन्यथा नहीं।कर्मयोगी अपने लिये कुछ करता ही नहीं अपने लिये कुछ चाहता ही नहीं और अपना कुछ मानता ही नहीं। इसलिये उसमें कामनाओंका नाश सुगमतापूर्वक हो जाता है। कामनाओंका सर्वथा नाश होनेपर उसके उद्देश्यकी पूर्ति हो जाती है और वह अपनेआपमें ही अपनेआपको पाकर कृतकृत्य ज्ञातज्ञातव्य और प्राप्तप्राप्तव्य हो जाता है अर्थात् उसके लिये कुछ भी करना जानना और पाना शेष नहीं रहता।इस प्रकार ँ़ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ है।।3।
 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.43।।इस प्रकार बुद्धिसे अति श्रेष्ठ आत्माको जानकर और आत्मासे ही आत्माको स्तम्भन करके अर्थात् शुद्ध मनसे अच्छी प्रकार आत्माको समाधिस्थ करके हे महाबाहो इस कामरूप दुर्जय शत्रुका त्याग कर अर्थात् जो दुःखसे वशमें किया जाता है उस अनेक दुर्विज्ञेय विशेषणोंसे युक्त कामका त्याग कर दे।

English Commentary By Swami Sivananda

3.43 एवम् thus, बुद्धेः than the intellect, परम् superior, बुद्ध्वा having known, संस्तभ्य restraining, आत्मानम् the self, आत्मना by the Self, जहि slay thou, शत्रुम् the enemy, महाबाहो O mightyarmed, कामरूपम् of the form of desire, दुरासदम् hard to coner.

Commentary:
Restrain the lower self by the higher Self. Subdue the lower mind by the higher mind. It is difficult to coner desire because it is of a highly complex and incomprehensible nature. But a man of discrimination and dispassion who does constant and intense Sadhana can coner it ite easily. Desire is the ality of Rajas. If you increase the Sattvic ality in you, you can coner desire. Rajas cannot stand before Sattva.Even though desire is hard to coner, it is not impossible. The simple and direct method is to appeal to the Indwelling Presence (God) through prayer and Japa.Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita, the science of the Eternal, the scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krishna and Arjuna, ends the third discourse entitledThe Yoga of Action.

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।3.43।। इस श्लोक के साथ न केवल यह अध्याय समाप्त होता है किन्तु अर्जुन द्वारा मांगी गयी निश्चित सलाह भी इसमें दी गई है। आत्मानुभव रूप ज्ञान के द्वारा ही हम आत्मअज्ञान को नष्ट कर सकते हैं। अज्ञान का ही परिणाम है इच्छा जिसके निवास स्थान हैं इन्द्रियाँ मन और बुद्धि। ध्यान के अभ्यास से जब हम अपना ध्यान बाह्य विषय शरीर मन और बुद्धि से विलग करके स्वस्वरूप में स्थिर करते हैं तब इच्छा की जननी बुद्धि ही समाप्त हो जाती है।शरीर मन आदि उपाधियों के साथ जब तक हमारा तादात्म्य बना रहता है तब तक हम अपने शुद्ध दिव्य स्वरूप को पहचान ही नहीं पाते। इतना ही नहीं बल्कि सदैव दुखी बद्ध परिच्छिन्न अहंकार को ही अपना स्वरूप समझते हैं। स्वस्वरूप के वैभव का साक्षात् अनुभव कर लेने पर हम अपने मन को पूर्णतया वश में रख सकेंगे। गौतम बुद्ध के समान ज्ञानी पुरुष का मन किसी भी प्रकार उसके अन्तकरण में क्षोभ उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि वह मन ज्ञानी पुरुष के पूर्ण नियन्त्रण में रहता है।यहाँ ध्यान देने की बात है कि गीता में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान जीवन की विधेयात्मक संरचना करने की शिक्षा देता है न कि जीवन की सम्भावनाओं की उपेक्षा अथवा उनका नाश। कामना एक पीड़ादायक घाव है जिसको ठीक करने के लिए ज्ञानरूपी लेप का उपचार यहाँ बताया गया है। इस ज्ञान के उपयोग से सभी अन्तरबाह्य परिस्थितियों के स्वामी बनकर हम रह सकते हैं। जो इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है वही साधक ईश्वरीय पुरुष ऋषि या पैगम्बर कहलाता हैconclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगाशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुन संवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णर्जुन संवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रस्वरूप श्रीभगवद्गीतोपनिषद् का कर्मयोग नामक तीसरा अध्याय समाप्त होता है।इस अध्याय का नाम है कर्मयोग। योग शब्द का अर्थ है आत्मविकास की साधना द्वारा अपर निकृष्ट वस्तु को पर और उत्कृष्ट वस्तु के साथ संयुक्त करना। जिस किसी साधना के द्वारा यह लक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है उसे ही योग कहते हैं।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.42 -- 3.43।। इन्द्रियोंको (स्थूलशरीरसे) पर (श्रेष्ठ, सबल, प्रकाशक, व्यापक तथा सूक्ष्म) कहते हैं। इन्द्रियोंसे पर मन है, मनसे भी पर बुद्धि है औऱ जो बुद्धिसे भी पर है वह (काम) है। इस तरह बुद्धिसे पर - (काम-) को जानकर अपने द्वारा अपने-आपको वशमें करके हे महाबाहो ! तू इस कामरूप दुर्जय शत्रुको मार डाल।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.43।। इस प्रकार बुद्धि से परे (शुद्ध) आत्मा को जानकर आत्मा (बुद्धि) के द्वारा आत्मा (मन) को वश में करके, हे महाबाहो ! तुम इस दुर्जेय (दुरासदम्) कामरूप शत्रु को मारो।।
 

English Translation By Swami Adidevananda

3.43 Thus, knowing that which is higher than the intellect and fixing the mind with the help of the intellect in Karma Yoga, O Arjuna, slay this enemy which wears the form of desire, and which is difficult to overcome.

English Translation By Swami Gambirananda

3.43 [The Ast, introdcues this verse with, 'Tatah kim, what follows from that?'-Tr.] Understanding the Self thus [Understanding৷৷.thus:that desires can be conered through the knowledge of the Self.] as superior to the intellect, and completely establishing (the Self) is spiritual absorption with the (help of) the mind, O mighty-armed one, vanish the enemy in the form of desire, which is difficult to subdue.

English Translation By Swami Sivananda

3.43 Thus knowing Him Who is superior to the intellect and restraining the self by the Self, slay thou, O mighty-armed Arjuna, the enemy in the form of desire, hard to coner.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

3.43 Buddhva, understanding; atmanam, the Self; evam, thus; as param, superior; buddheh, to the intellect; and samstabhya, completely establishing; atmana, with the mind, i.e. establishing (the Self) fully in spiritual absorption with the help of your own purified mind; O mighty-armed one, jahi, vanish; this satrum, enemy; kama-rupam, in the form of desire; which is durasadam, difficult to subdue-which can be got hold of with great difficulty, it being possessed of many inscrutable characteristics.

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

3.42-43 Indriyani etc. Evam etc. 'Because the sense-organs are different from the sense-objects that indicate the foe [in estion]; from them the mind is different; from that too different is the intellect; what is instrinsically different from the intellect also is the Self; so due to wrath, risen at the sense-organs, how can there be a disturbance in the mind, in the intellect or in the Self ?' Let one contemplate in this manner. This is what is meant here. This is intention of the experts of the Rahasya [literature] : The Supreme I-consciousness viz., the awareness 'All I am', which remains beyond the intellect, and the essence of which allows no difference-that is indeed the highest identity. Therefore no furstration (or cut) can be for That which is complete all around; hence wrath etc., do not rise [in It]. Therefore, taking hold of the Supreme Energy which in essence is Consciousness, you must slay the foe, the wrath which is ignorance in essence.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

3.43 Thus, understanding desire, which is higher than even the intellect, to be the fore antagonistic to Jnana Yoga, and establishing the mind by means of the intellect in Karma Yoga, slay, i.e., destroy this foe, in the shape of desire which is difficult to overcome.

English Translation By By Dr. S. Sankaranarayan

3.43. Thus being conscious : 'That is different from the intellect'; and steadying the self with the self; kill the foe that is of the form of desire and that is hard to approach.

English Translation by Shri Purohit Swami

3.43 Thus, O Mighty-in-Arms, knowing Him to be beyond the intellect and, by His help, subduing thy personal egotism, kill thine enemy, Desire, extremely difficult though it be."