श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना।

श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः।।6.47।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।6.47।। व्याख्या--'योगिनामपि सर्वेषाम्'--जिनमें जडतासे सम्बन्ध-विच्छेद करनेकी मुख्यता है, जो कर्मयोग, सांख्ययोग, हठयोग, मन्त्रयोग, लययोग आदि साधनोंके द्वारा अपने स्वरूपकी प्राप्ति-(अनुभव-) में ही लगे हुए हैं, वे योगी सकाम तपस्वियों, ज्ञानियों और कर्मियोंसे श्रेष्ठ हैं। परन्तु उन सम्पूर्ण योगियोंमें भी केवल मेरे साथ सम्बन्ध जोड़नेवाला भक्तियोगी सर्वश्रेष्ठ है।

'यः श्रद्धावान्'--जो मेरेपर श्रद्धा और विश्वास करता है अर्थात् जिसके भीतर मेरी ही सत्ता और महत्ता है, ऐसा वह श्रद्धावान् भक्त मेरेमें लगे हुए मनसे मेरा भजन करता है।'मद्गतेनान्तरात्मना मां भजते'--मैं भगवान्का हूँ और भगवान् मेरे हैं--इस प्रकार जब स्वयंका भगवान्में अपनापन हो जाता है, तब मन स्वतः ही भगवान्में लग जाता है तल्लीन हो जाता है। जैसे विवाह होनेपर लड़कीका मन स्वाभाविक ही ससुरालमें लग जाता है, ऐसे ही भगवान्में अपनापन होनेपर भक्तका मन स्वाभाविक ही भगवान्में लग जाता है, मनको लगाना नहीं पड़ता। फिर खाते-पीते, उठते-बैठते, चलते-फिरते, सोते-जागते आदि सभी क्रियाओंमें मन भगवान्का ही चिन्तन करता है, भगवान्में ही लगा रहता है।जो केवल भगवान्का ही हो जाता है, जिसका अपना व्यक्तिगत कुछ नहीं रहता, उसकी साधन-भजन, जप-कीर्तन, श्रवण-मनन आदि सभी पारमार्थिक क्रियाएँ; खाना-पीना, चलना-फिरना, सोना-जागना आदि सभी शारीरिक क्रियाएँ और खेती, व्यापार, नौकरी आदि जीविका-सम्बन्धी क्रियाएँ भजन हो जाती हैं।अनन्यभक्तके भजनका स्वरूप भगवान्ने ग्यारहवें अध्यायके पचपनवें श्लोकमें बताया है कि वह भक्त मेरी प्रसन्नताके लिये ही सभी कर्म करता है, सदा मेरे ही परायण रहता है, केवल मेरा ही भक्त है, संसारका भक्त नहीं है, संसारकी आसक्तिको सर्वथा छोड़ देता है और सम्पूर्ण प्राणियोंमें वैरभावसे रहित हो जाता है।

'स मे युक्ततमो मतः'--संसारसे विमुख होकर अपना उद्धार करनेमें लगनेवाले जितने योगी (साधक) हो सकते हैं, वे सभी 'युक्त' हैं। जो सगुण-निराकारकी अर्थात् व्यापकरूपसे सबमें परिपूर्ण परमात्माकी शरण लेते हैं, वे सभी 'युक्ततर' हैं। परन्तु जो केवल मुझ सगुण भगवान्के ही शरण होते हैं, वे मेरी मान्यतामें 'युक्ततम' हैं।वह भक्त युक्ततम तभी होगा, जब कर्मयोग, ज्ञानयोग, भक्तियोग आदि सभी योग उसमें आ जायँगे।श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान्में तल्लीन हुए मनसे भजन करनेपर उसमें सभी योग आ जाते हैं। कारण कि भगवान् महायोगेश्वर हैं, सम्पूर्ण योगोंके महान् ईश्वर हैं, तो महायोगेश्वरके शरण होनेपर शरणागतका कौन-सा योग बाकी रहेगा? वह तो सम्पूर्ण योगोंसे युक्त हो जाता है। इसलिये भगवान् उसको युक्ततम कहते हैं।युक्ततम भक्त कभी योगभ्रष्ट हो ही नहीं सकता। कारण कि उसका मन भगवान्को नहीं छोड़ता, तो भगवान् भी उसको नहीं छोड़ सकते। अन्तसमयमें वह पीड़ा, बेहोशी आदिके कारण भगवान्को याद न कर सके, तो भगवान् उसको याद करते हैं (टिप्पणी प0 385); अतः वह योगभ्रष्ट हो ही कैसे सकता है? 

तात्पर्य है कि जो संसारसे सर्वथा विमुख होकर भगवान्के ही परायण हो गया है, जिसको अपने बलका, उद्योगका, साधनका सहारा, विश्वास और अभिमान नहीं है ,ऐसे भक्तको भगवान् योगभ्रष्ट नहीं होने देते; क्योंकि वह भगवान्पर ही निर्भर होता है। जिसके अन्तःकरणमें संसारका महत्त्व है तथा जिसको अपने पुरुषार्थका सहारा, विश्वास और अभिमान है, उसीके योगभ्रष्ट होनेकी सम्भावना रहती है। कारण कि अन्तःकरणमें भोगोंका महत्त्व होनेपर परमात्माका ध्यान करते हुए भी मन संसारमें चला जाता है। इस प्रकार अगर प्राण छूटते समय मन संसारमें चला जाय, तो वह योगभ्रष्ट हो जाता है। अगर अपने बलका सहारा, विश्वास और अभिमान न हो, तो मन संसारमें जानेपर भी वह योगभ्रष्ट नहीं होता। कारण कि ऐसी अवस्था आनेपर (मन संसारमें जानेपर) वह भगवान्को पुकारता है। अतः ऐसे भगवान्पर निर्भर भक्तका चिन्तन भगवान् स्वयं करते हैं, जिससे वह योगभ्रष्ट नहीं होता; प्रत्युत भगवान्को प्राप्त हो जाता है।यहाँ भक्तियोगीको सर्वश्रेष्ठ बतानेसे यह सिद्ध होता है कि दूसरे जितने योगी हैं, उनकी पूर्णतामें कुछ-न-कुछ कमी रहती होगी? संसारका सम्बन्ध-विच्छेद होनेसे सभी योगी बन्धनसे सर्वथा मुक्त हो जाते हैं, निर्विकार हो जाते हैं और परम सुख, परम शान्ति, परम आनन्दका अनुभव करते हैं--इस दृष्टिसे तो किसीकी भी पूर्णतामें कोई कमी नहीं रहती। परन्तु जो अन्तरात्मासे भगवान्में लग जाता है, भगवान्के साथ ही अपनापन कर लेता है, उसमें भगत्वप्रेम प्रकट हो जाता है। वह प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान है तथा सापेक्ष वृद्धि, क्षति और पूर्तिसे रहित है। ऐसा प्रेम प्रकट होनेसे ही भगवान्ने उसको सर्वश्रेष्ठ माना है।पाँचवें अध्यायके आरम्भमें अर्जुनने पूछा कि सांख्ययोग और योग--इन दोनोंमें श्रेष्ठ कौन-सा है ?तो भगवान्ने अर्जुनके प्रश्नके अनुसार वहाँपर कर्मयोगको श्रेष्ठ बताया। परन्तु अर्जुनके लिये कौन-सा योग श्रेष्ठ है, यह बात नहीं बतायी। उसके बाद सांख्ययोग और कर्मयोगकी साधना कैसी चलती है--इसका विवेचन करके छठे अध्यायके आरम्भमें कर्मयोगकी विशेष महिमा कही। जो तत्त्व (समता) कर्मयोगसे प्राप्त होता है, वही तत्त्व ध्यानयोगसे भी प्राप्त होता है--इस बातको लेकर ध्यानयोगका वर्णन किया। ध्यानयोगमें मनकी चञ्चलता बाधक होती है--इस बातको लेकर अर्जुनने मनके विषयमें प्रश्न किया। इसका उत्तर भगवान्ने संक्षेपसे दे दिया। फिर अर्जुनने पूछा कि योगका साधन करनेवाला अगर अन्तसमयमें योगसे विचलितमना हो जाय, तो उसकी क्या दशा होती है? इसके उत्तरमें भगवान्ने योगभ्रष्टकी गतिका वर्णन किया और छियालीसवें श्लोकमें योगीकी विशेष महिमा कहकर अर्जुनको योगी बननेके लिये स्पष्टरूपसे आज्ञा दी। परन्तु मेरी मान्यतामें कौन-सा योग श्रेष्ठ है--यह बात भगवान्ने यहाँतक स्पष्टरूपसे नहीं कही। अब यहाँ अन्तिम श्लोकमें भगवान् अपनी मान्यताकी बात अपनी ही तरफसे (अर्जुनके पूछे बिना ही) कहते हैं कि मैं तो भक्तियोगीको श्रेष्ठ मानता हूँ--'स मे युक्ततमो मतः'। परन्तु ऐसा स्पष्टरूपसे कहनेपर भी अर्जुन भगवान्की बातको पकड़ नहीं पाये। इसलिये अर्जुन आगे बारहवें अध्यायके आरम्भमें पुनः प्रश्न करेंगे कि आपकी भक्ति करनेवाले और अविनाशी निराकारकी उपासना करनेवालोंमें श्रेष्ठ कौन-सा है? तो उत्तरमें भगवान् अपने भक्तको ही श्रेष्ठ बतायेंगे, जैसा कि यहाँ बताया है (टिप्पणी प0 386)

विशेष बात

कर्मयोगी, ज्ञानयोगी आदि सभी युक्त हैं अर्थात् सभी संसारसे विमुख हैं और समता-(चेतन-तत्त्व-) के सम्मुख हैं। उनमें भी भक्तियोगी-(भक्त) को सर्वश्रेष्ठ बतानेका तात्पर्य है कि यह जीव परमात्माका अंश है, पर संसारके साथ अपना सम्बन्ध मानकर यह बँध गया है। जब यह संसार-शरीरके साथ माने हुए सम्बन्धको छोड़ देता है, तब यह स्वाधीन और सुखी हो जाता है। इस स्वाधीनताका भी एक भोग होता है। यद्यपि इस स्वाधीनतामें पदार्थों, व्यक्तियों, क्रियाओँ, परिस्थितियों आदिकी कोई पराधीनता नहीं रहती, तथापि इस स्वाधीनताको लेकर जो सुख होता है अर्थात् मेरेमें दुःख नहीं है, संताप नहीं है लेशमात्र भी कोई इच्छा नहीं है--यह जो सुखका भोग होता है, यह स्वाधीनतामें भी परिच्छिन्नता (पराधीनता) है। इसमें संसारके साथ सूक्ष्म सम्बन्ध बना हुआ है। इसलिये इसको 'ब्रह्मभूत अवस्था' कहा गया है (गीता 18। 54)।जबतक सुखके अनुभवमें स्वतन्त्रता मालूम देती है, तबतक सूक्ष्म अहंकार रहता है। परन्तु इसी स्थितिमें (ब्रह्मभूत अवस्थामें) स्थित रहनेसे वह अहंकार भी मिट जाता है। कारण कि प्रकृति और उसके कार्यके साथ सम्बन्ध न रखनेसे प्रकृतिका अंश 'अहम्' अपने-आप शान्त हो जाता है। तात्पर्य है कि कर्मयोगी, ज्ञानयोगी भी अन्तमें समय पाकर अहंकारसे रहित हो जाते हैं। परन्तु भक्तियोगी तो आरम्भसे ही भगवान्का हो जाता है। अतः उसका अहंकार आरम्भमें ही समाप्त हो जाता है! ऐसी बात गीतामें भी देखनेमें आती है कि जहाँ सिद्ध कर्मयोगी, ज्ञानयोगी और भक्तियोगीके लक्षणोंका वर्णन हुआ है, वहाँ कर्मयोगी और ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें तो करुणा और कोमलता देखनेमें नहीं आती, पर भक्तोंके लक्षणोंमें देखनेमें आती है। इसलिये सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंमें तो 'अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च' (12। 13)--ये पद आये हैं, पर सिद्ध कर्मयोगी और ज्ञानयोगीके लक्षणोंमें ऐसे पद नहीं आये हैं। तात्पर्य है कि भक्त पहलेसे ही छोटा होकर चलता है (टिप्पणी प0 387), अतः उसमें नम्रता, कोमलता, भगवान्के विधानमें प्रसन्नता आदि विलक्षण बातें साधनावस्थामें ही आ जाती हैं और सिद्धावस्थामें वे बातें विशेषतासे आ जाती हैं। इसलिये भक्तमें सूक्ष्म अहंकार भी नहीं रहता। इन्हीं कारणोंसे भगवान्ने भक्तको सर्वश्रेष्ठ कहा है।शान्ति, स्वाधीनता आदिका रस चिन्मय होते हुए भी 'अखण्ड' है। परन्तु भक्तिरस चिन्यम होते हुए भी 'प्रतिक्षण वर्धमान' है अर्थात् वह नित्य नवीनरूपसे बढ़ता ही रहता है, कभी घटता नहीं, मिटता नहीं और पूरा होता नहीं। ऐसे रसकी, प्रेमानन्दकी भूख भगवान्को भी है। भगवान्की इस भूखकी पूर्ति भक्त ही करता है। इसलिये भगवान् भक्तको सर्वश्रेष्ठ मानते हैं।इसमें एक बात और समझनेकी है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग--इन दोनोंमें तो साधककी अपनी निष्ठा (स्थिति) होती है, पर भक्तकी अपनी कोई स्वतन्त्र निष्ठा नहीं होती। भक्त तो सर्वथा भगवान्के ही आश्रित रहता है भगवान्पर ही निर्भर रहता है, भगवान्की प्रसन्नतामें ही प्रसन्न रहता है--'तत्सुखे सुखित्वम्।' उसको अपने उद्धारकी भी चिन्ता नहीं होती। हमारा क्या होगा? इधर उसका ध्यान ही नहीं जाता। ऐसे भगवन्निष्ठ भक्तका सारा भार, सारी देखभाल भगवान्पर ही आती है--'योगक्षेमं वहाम्यहम्।' 

इस प्रकाऱँ तत् सत् इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें आत्मसंयमयोग नामका छठा अध्याय पूर्ण हुआ।।6।।
 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।6.47।।रुद्र आदित्य आदि देवोंके ध्यानमें लगे हुए समस्त योगियोंसे भी जो योगी श्रद्धायुक्त हुआ मुझ वासुदेवमें अच्छी प्रकार स्थित किये हुए अन्तःकरणसे मुझे ही भजता है उसे मैं युक्ततम अर्थात् अतिशय श्रेष्ठ योगी मानता हूँ।

English Commentary By Swami Sivananda

6.47 योगिनाम् of Yogis, अपि even, सर्वेषाम् of all, मद्गतेन merged in Me, अन्तरात्मना with inner Self, श्रद्धावान् endowed with faith, भजते worships, यः who, माम् Me, सः he, मे to Me, युक्ततमः most devout, मतः is deemed.

Commentary:
Among all Yogis He who worships Me, the Absolute, is superior to those who worship the lesser gods such as the Vasus, Rudra, Aditya, etc.The inner self merged in Me The mind absorbed in Me, (Cf.VI.32),(This chapter is known by the names Atmasamyama Yoga and Adhyatma Yoga also.)Thus in the Upanishads of the glorious Bhagavad Gita, the science of the Eternal, the scripture of Yoga, the dialogue between Sri Krishna and Arjuna, ends the sixth discourse entitledThe Yoga of Meditation.

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।6.47।। पूर्व श्लोक में आध्यात्मिक साधनाओं का तुलनात्मक मूल्यांकन करके ध्यानयोग को सर्वश्रेष्ठ सिद्ध किया गया है। अब इस श्लोक में समस्त योगियों में भी सर्वश्रेष्ठ योगी कौन है इसे स्पष्ट किया गया है। ध्यानाभ्यास की प्रारम्भिक अवस्था में साधक को प्रयत्नपूर्वक ध्येय विषयक वृत्ति बनाये रखनी पड़ती है और मन को बारम्बार विजातीय वृत्ति से परावृत्त करना पड़ता है। स्वाभाविक ही है कि प्रारम्भ में ध्यान प्रयत्नपूर्वक ही होगा सहज नहीं। ध्येय (ध्यान का विषय) के स्वरूप तथा मन को स्थिर करने की विधि के आधार पर ध्यान साधना का विभिन्न प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है।इस दृष्टि से हमारी परम्परा में प्रतीकोपासना ईश्वर के सगुण साकार रूप का ध्यान गुरु की उपासना कुण्डलिनी पर ध्यान अथवा मन्त्र के जपरूप ध्यान आदि का उपदेश दिया गया है। इसी आधार पर कहा जाता है कि योगी भी अनेक प्रकार के होते हैं। यहाँ भगवान् स्पष्ट करते हैं कि उपर्युक्त योगियों में श्रेष्ठ और सफल योगी कौन है।जो श्रद्धावान् योगी मुझ से एकरूप हो गया है तथा मुझे भजता है वह युक्ततम है। यह श्लोक सम्पूर्ण योगशास्त्र का सार है और इस कारण इसके गूढ़ अभिप्राय को स्पष्ट करने के लिए अनेक ग्रंथों की रचना की जा सकती है। यही कारण है कि भगवान् आगामी सम्पूर्ण अध्याय में इस मन्त्र रूप श्लोक की व्याख्या करते हैं।इस अध्याय को समझने की दृष्टि से इस स्थान पर इतना ही जानना पर्याप्त होगा कि ध्यानाभ्यास का प्रयोजन मन को संगठित करने में उतना नहीं है जितना कि अन्तकरण को आत्मस्वरूप में लीन करके शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करने में है। यह कार्य वही पुरुष सफलतापूर्वक कर सकता है जो श्रद्धायुक्त होकर मेरा अर्थात् आत्मस्वरूप का ही भजन करता है।भजन शब्द के साथ अनेक अनावश्यक अर्थ जुड़ गये हैं और आजकल इसका अर्थ होता है कर्मकाण्ड अथवा पौराणिक पूजा का विशाल आडम्बर। ऐसी पूजा का न पुजारी के लिए विशेष अर्थ होता है और न उन भक्तों को जो पूजा कर्म को देखते हुए खड़े रहते हैं। कभीकभी भजन का अर्थ होता है वाद्यों के साथ उच्च स्वर में कीर्तन करना जिसमें भावुक प्रवृति के लोगों को बड़ा रस आता है और वे भावावेश में उत्तेजित होकर अन्त में थक जाते हैं। यदा कदा ही उन्हें आत्मानन्द का अस्पष्टसा भान होता होगा। वेदान्त शास्त्र में भजन का अर्थ है जीव का समर्पण भाव से किया गया सेवा कर्म। भक्तिपूर्ण समर्पण से उस साधक को मन से परे आत्मतत्त्व का साक्षात् अनुभव होता है। इस प्रकार जो योगी आत्मानुसंधान रूप भजन करता है वह परमात्मस्वरूप में एक हो जाता है। ऐसे ही योगी को यहां सर्वश्रेष्ठ कहा गया है।वेदान्त की भाषा में कहा जायेगा कि जिस योगी ने अनात्म जड़उपाधियों से तादात्म्य दूर करके आत्मस्वरूप को पहचान लिया है वह श्रेष्ठतम योगी है।Conclusionँ़ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषस्तु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे ध्यानयोगो नाम षष्ठोऽध्याय।।इस प्रकार श्रीकृष्णार्जुनसंवाद के रूप में ब्रह्मविद्या और योगशास्त्र स्वरूप श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद् का ध्यानयोग नामक छठवां अध्याय समाप्त होता है।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।6.47।। सम्पूर्ण योगियोंमें भी जो श्रद्धावान् भक्त मुझमें तल्लीन हुए मनसे मेरा भजन करता है, वह मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।6.47।। समस्त योगियों में जो भी श्रद्धावान् योगी मुझ में युक्त हुये अन्तरात्मा से (अर्थात् एकत्व भाव से मुझे भजता है, वह मुझे युक्ततम (सर्वश्रेष्ठ) मान्य है।।
 

English Translation By Swami Adidevananda

6.47 He who with faith worships Me, whose inmost self is fixed in Me, I consider him as the greatest of the Yogins.

English Translation By Swami Gambirananda

6.47 Even among all the yogis, he who adores Me with his mind fixed on Me and with faith,he is considered by Me to be the best of the yogis.

English Translation By Swami Sivananda

6.47 And among all the Yogis he who, full of faith and with his inner self merged in Me, worships Me is deemed by Me to be the most devout.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

6.47 Api, even; sarvesam yoginam, among all the yogis, among those who are immersed in meditation on Rudra, Aditya, and others; yah, he who; bhajate, adores; mam, Me; antaratmana,with his mind; madgatena, fixed on Me, concentrated on Me who am Vasudeva; and sraddhavan, with faith, becoming filled with faith; sah, he; is matah, considered; me, by Me; to be yukta-tamah, the best of the yogis, engaged in Yoga most intensely. [It has been shown thus far that Karma-yoga has monasticism as its ultimate culmination. And in the course of expounding Dhyana-yoga together with its ausxiliaries, and instructing about the means to control the mind, the Lord rules out the possibility of absolute ruin for a person fallen from Yoga. He has also stated that steadfastness in Knowledge is for a man who knows the meaning of the word tvam (thou) (in 'Thou are That'). All these instructions amount to declaring that Liberation comes from the knowledge of the great Upanisadic saying, 'Thou art That.']

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

6.47 Yoginam etc. He, who establishes Me in his internal organ; who is totally addicted to devotion and faith and who serves i.e., internally experiences Me alone, and not anything else, following the method of tradition, learnt by rendering service to the revered teachers-he alone among all the Yogins, is the best master of the Yoga i.e., one who is fully absorbed in the Supreme Lord. Thus the superiority of the Yoga with Godly knowledge over all [other means] has been explained.

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

6.47 'Yoginam', which is the genitive case, has to be taken in the sense of the ablative. In the verses beginning with, 'He sees the self as abiding in all beings' (6.29), Yogins at four degrees of attainment have been mentioned. Since the Yogin who is now mentioned in this passage cannot be included in the four types mentioned earlier, the genitive case specifying one out of many will be inappropriate here. In 'api sarvesam,' those who practise austerities etc., are referred to by the word 'sarva' (all). According to the principle set forth, here also the case ending has to be taken as ablative. The meaning therefore is that the Yogin who is now referred to, is the most integrated compared with those mentioned earlier and all other types. Compared to this Yogin, the differences in point of superiority and inferiority among the other Yogins such as the performers of austerities etc., are of no significance like mustard-seeds compared to Mount Meru. Even though there exists smallness and bigness in relation to one another among mustard-seeds, still when compared to Meru, such distinctions among them have no significance, as they are all small compared to Meru. I consider him the most integrated who, with his innermost self, has his mind fixed on Me, on account of My being the only object of his overflowing love and also on account of his having a nature which cannot be supported by anything other than Myself; who has 'faith,' i.e., who strives rapidly to attain Me because of his being unable to bear a moment's separation from Me on account of My being very dear to him; and who 'worships Me,' i.e., serves Me with devotion and meditates on Me - Me whose sportive delight brings about the origination, sustentation and dissolution of the entire cosmos filled with multifarious and innumerable objects of enjoyment, enjoyers, means and places of enjoyment; who is untouched by any evil without exception; whose divine figure is the treasue-house of innumerable multitudes of auspicious, unlimited and unsurpassed attributes such as knowledge, power, lordship, energy, potency and splendour; whose divine figure is the treasure-house of infinite, unsurpassed attributes agreeable and highly worthy, such as radiance, beauty, fragrance, tenderness, pervading sweetness and youthfulness which are uniform, inconceivable and divine, wondrous, eternal and flawless; whose essential nature and alities transcend all thought and words; who is the great ocean of compassion, condescension, paternal love and beauty; who is the impartial refuge of all beings without exception and without considerations of any difference; who is the reliever of the distress of supplicants; who is the great, unfathomable ocean of affection for supplicants; who has become visible to the eyes of all men without abandoning His essential nature; who has incarnated in the house of Vasudeva; who has made the entire would illumined with His limitless and excellent glory; and who has satisfied the entire universe with the impeccable glory of beauty. The idea is that I, who by Myself alone see all things directly as they are, look upon him, the last mentioned type of Yogi here, as superior to all other types mentioned earlier.

English Translation By By Dr. S. Sankaranarayan

6.47. He, who has faith and serves Me with his inner self gone to Me, he is considered by Me as the best master of Yoga, among all the men of Yoga.

English Translation by Shri Purohit Swami

6.47 I look upon him as the best of mystics who, full of faith, worshippeth Me and abideth in Me."