जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्।।7.29।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।7.29।। व्याख्या--'जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये'--यहाँ जरा (वृद्धावस्था) और मरणसे मुक्ति पानेका तात्पर्य यह नहीं है कि ब्रह्म अध्यात्म और कर्मका ज्ञान होनेपर वृद्धावस्था नहीं होगी शरीरकी मृत्यु नहीं होगी। इसका तात्पर्य यह है कि बोध होनेके बाद शरीरमें आनेवाली वृद्धावस्था और मृत्यु तो आयेगी ही पर ये दोनों अवस्थाएँ उसको दुःखी नहीं कर सकेंगी। जैसे तेरहवें अध्यायके चौंतीसवें श्लोकमें
'भूतप्रकृतिमोक्षम्' कहनेका तात्पर्य भूत और प्रकृति अर्थात् कार्य और कारणसे सम्बन्धविच्छेद होनेमें है ऐसे ही यहाँ 'जरामरणमोक्षाय' कहनेका तात्पर्य जरा मृत्यु आदि शरीरके विकारोंसे सम्बन्धविच्छेद होनेमें है।जैसे कोई युवा पुरुष है तो उसकी अभी न वृद्धावस्था है और न मृत्यु है अतः वह जरामरणसे अभी मुक्त है। परन्तु वास्तवमें वह जरामरणसे मुक्त नहीं है क्योंकि जरामरणके कारण शरीरके साथ जबतक सम्बन्ध है तबतक जरामरणसे रहित होते हुए भी वह इनसे मुक्त नहीं है। परन्तु जो जीवन्मुक्त महापुरुष हैं उनके शरीरमें जरा और मरण होनेपर भी वे इनसे मुक्त हैं। अतः जरामरणसे मुक्त होनेका तात्पर्य है जिसमें जरा और मरण होते हैं ऐसे प्रकृतिके कार्य शरीरके साथ सर्वथा सम्बन्धविच्छेद होना। जब मनुष्य शरीरके साथ तादात्म्य (मैं यही हूँ) मान लेता है तब शरीरके वृद्ध होनेपर मैं वृद्ध हो गया और शरीरके मरनेको लेकर मैं मर जाऊँगा ऐसा मानता है। यह मान्यता शरीर मैं हूँ और शरीर मेरा है इसीपर टिकी हुई है। इसलिये तेरहवें अध्यायके आठवें श्लोकमें आया है 'जन्ममृत्युजराव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्' अर्थात् जन्म मृत्यु जरा और व्याधिमें दुःखरूप दोषोंको देखना इसका तात्पर्य है कि शरीरके साथ मैं और मेरापन का सम्बन्ध न रहे। जब मनुष्य मैं और मेरापन से मुक्त हो जायगा तब वह जरा मरण आदिसे भी मुक्त हो जायगा क्योंकि शरीरके साथ माना हुआ सम्बन्ध ही वास्तवमें जन्मका कारण है-- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (गीता 13। 21)। वास्तवमें इसका शरीरके साथ सम्बन्ध नहीं है तभी सम्बन्ध मिटता है। मिटता वही है जो वास्तवमें नहीं होता।यहाँ 'मामाश्रित्य यतन्ति ये' पदोंमें आश्रय लेना और यत्न करना इन दो बातोंको कहनेका तात्पर्य है कि मनुष्य अगर स्वयं यत्न करता है तो अभिमान आता है कि मैंने ऐसा कर लिया जिससे ऐसा हो गया और अगर स्वयं यत्न न करके भगवान्के आश्रयसे सब कुछ हो जायगा ऐसा मानता है तो वह आलस्य और प्रमादमें तथा संग्रह और भोगमें लग जाता है। इसलिये यहाँ दो बातें बतायीं कि शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार स्वयं तत्परतासे उद्योग करे और उस उद्योगके होनेमें तथा उद्योगकी सफलतामें कारण भगवान्को माने।जो नित्यनिरन्तर वियुक्त हो रहा है ऐसे शरीरसंसारको मनुष्य प्राप्त और स्थायी मान लेता है। जबतक वह शरीर और संसारको स्थायी मानकर उसे महत्ता देता रहता है तबतक साधन करनेपर भी उसको भगवत्प्राप्ति नहीं होती। अगर वह शरीरसंसारको स्थायी न माने और उसको महत्त्व न दे तो भगवत्प्राप्तिमें देरी नहीं लगेगी। अतः इन दोनों बाधाओँको अर्थात् शरीरसंसारकी स्वतन्त्र सत्ताको और महत्ताको विचारपूर्वक हटाना ही यत्न करना है। परन्तु जो भगवान्का आश्रय लेकर यत्न करते हैं वे श्रेष्ठ हैं। उनका तो यही भाव रहता है कि उस प्रभुकी कृपासे ही साधनभजन हो रहा है। भगवान्की कृपाका आश्रय लेनेसे और अपने बलका अभिमान न करनेसे वे भगवान्के समग्ररूपको जान लेते हैं।जो भगवान्का आश्रय न लेकर अपना कल्याण चाहते हुए उद्योग करते हैं उनको अपनेअपने साधनके अनुसार भगवत्स्वरूपका बोध तो हो जाता है पर भगवान्के समग्ररूपका बोध उनको नहीं होता। जैसे कोई प्राणायाम आदिके द्वारा योगका अभ्यास करता है तो उसको अणिमा महिमा आदि सिद्धियाँ मिलती हैं और उनसे ऊँचा उठनेपर परमात्माके निराकारस्वरूपका बोध होता है अथवा अपने स्वरूपमें स्थिति होती है। ऐसे ही बौद्ध जैन आदि सम्प्रदायोंमें चलनेवाले जितने मनुष्य हैं जो कि ईश्वरको नहीं मानते वे भी अपनेअपने सम्प्रदायके सिद्धान्तोंके अनुसार साधन करके असत्जडरूप संसारसे सम्बन्धविच्छेद करके मुक्त हो जाते हैं। परन्तु जो संसारसे विमुख होकर भगवान्का आश्रय लेकर यत्न करते हैं उनको भगवान्के समग्ररूपका बोध होकर भगवत्प्रेमकी प्राप्ति हो जाती है यह विलक्षणता बतानेके लिये ही भगवान्ने यहाँ 'मामाश्रित्य यतन्ति ये' कहा है।
'ते ब्रह्म तत् (विदुः)'--इस तरहसे यत्न (साधन) करनेपर वे मेरे स्वरूपको (टिप्पणी प0 443) अर्थात् जो निर्गुणनिराकार है जो मनबुद्धिइन्द्रियों आदिका विषय नहीं है जो सामने नहीं है शास्त्र जिसका परोक्षरूपसे वर्णन करते हैं उस सच्चिदानन्दघन ब्रह्मको जान जाते हैं।'ब्रह्म' के साथ 'तत्' शब्द देनेका तात्पर्य यह है कि प्रायः सभी 'तत्' शब्दसे कहे जानेवाले जिस परमात्माको परोक्षरूपसे ही देखते हैं ऐसे परमात्माका भी वे साक्षात् अपरोक्षरूपसे अनुभव कर लेते हैं।उस परमात्माकी सत्ता प्राणिमात्रमें स्वतःसिद्ध है। कारण कि वह परमात्मा किसी देशमें न हो किसी समयमें न हो किसी वस्तुमें न हो और किसी व्यक्तिमें न हो ऐसा नहीं है प्रत्युत वह सब देशमें है सब समयमें है सब वस्तुओँमें है और सब व्यक्तियोंमें है। ऐसा होनेपर भी वह अप्राप्त क्यों दीखता है जो पहले नहीं था बादमें नहीं रहेगा अभी मौजूद रहते हुए भी प्रतिक्षण वियुक्त हो रहा है अभावमें जा रहा है ऐसे शरीरसंसारकी सत्ता और महत्ता स्वीकार कर ली इसीसे नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व अप्राप्त दीख रहा है।
'कृत्स्नमध्यात्मम् (विदुः)'--वे सम्पूर्ण अध्यात्मको जान जाते हैं अर्थात् सम्पूर्ण जीव तत्त्वसे क्या हैं इस बातको वे जान जाते हैं। पंद्रहवें अध्यायके दसवें श्लोकमें कहा है कि जीवके द्वारा एक शरीरको छो़ड़कर दूसरे शरीरको प्राप्त करनेको विमूढ़ पुरुष नहीं जानते और ज्ञानचक्षुवाले जानते हैं। इसको जाननेका तात्पर्य यह नहीं है कि जीव कितने हैं वे क्याक्या करते हैं और उनकी क्याक्या गति हो रही है इसको जान जाते हैं प्रत्युत आत्मा शरीरसे अलग है इसको तत्त्वसे जान जाते हैं अर्थात् अनुभव कर लेते हैं।भगवान्के आश्रयसे साधकका जब क्रियाओं और पदार्थोंमें सम्बन्धविच्छेद हो जाता है तब वह अध्यात्मतत्त्वको अपने स्वरूपको जान जाता है। केवल अपने स्वरूपको ही नहीं प्रत्युत तीनों लोकों और चौदह भुवनोंमें जितने भी स्थावरजङ्ग प्राणी हैं उन सबका स्वरूप शुद्ध है निर्मल है प्रकृतिसे असम्बन्ध है। अनन्त जन्मोंतक अनन्त क्रियाओं और शरीरोंके साथ एकता करनेपर भी उनकी कभी एकता हो ही नहीं सकती और अनन्त जन्मोंतक अपने स्वरूपका बोध न होनेपर भी वे अपने स्वरूपसे कभी अलग हो ही नहीं सकते ऐसा जानना सम्पूर्ण अध्यात्मतत्त्वको जानना है।
'कर्म चाखिलं विदुः'--वे सम्पूर्ण कर्मोंके वास्तविक तत्त्वको जान जाते हैं अर्थात् सृष्टिकी रचना क्यों होती है कैसे होती है और भगवान् कैसे करते हैं इसको भी वे जान जाते हैं।जैसे भगवान्ने चारों वर्णोंकी रचना की। उस रचनामें जीवोंके जो गुण और कर्म हैं अर्थात् उनके जैसे भाव हैं और उन्होंने जैसे कर्म किये हैं उनके अनुसार ही शरीरोंकी रचना की गयी है। उन वर्णोंमें जन्म होनेमें स्वयं भगवान्की तरफसे कोई सम्बन्ध नहीं है इसलिये भगवान्में कर्तृत्व नहीं है और फलेच्छा भी नहीं है (गीता 4। 13 14)। तात्पर्य यह हुआ कि सृष्टिकी रचना करते हुए भी भगवान् कर्तृत्व और फलासक्तिसे सर्वथा निर्लिप्त रहते हैं। ऐसे ही मनुष्यमात्रको देश काल परिस्थितिके अनुरूप जो भी कर्तव्यकर्म प्राप्त हो जाय उसे कर्तृत्व और फलासक्तिसे रहित होकर करनेसे वह कर्म मनुष्यको बाँधनेवाला नहीं होता अर्थात् वह कर्म फलजनक नहीं बनता। तात्पर्य है कि कर्मोंके साथ अपना कोई सम्बन्ध नहीं है इस तरह उनके साथ निर्लिप्तताका अनुभव करना ही अखिल कर्मको जानना है।जो अनन्यभावसे केवल भगवान्का आश्रय लेता है उसका प्राकृत क्रियाओँ और पदार्थोंका आश्रय छूट जाता है। इससे उसको यह बीत ठीक तरहसे समझमें आ जाती है कि ये सब क्रियाएँ और पदार्थ परिवर्तनशील और नाशवान् हैं अर्थात् क्रियाओँका भी आरम्भ और अन्त होता है तथा पदार्थोंकी भी उत्पत्ति और विनाश संयोग और वियोग होता है। ब्रह्मलोकतककी कोई भी क्रिया और पदार्थ नित्य रहनेवाला नहीं है। अतः कर्मोंके साथ मेरा किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं है यह भी अखिल कर्मको जानना है।तात्पर्य यह हुआ कि भगवान्का आश्रय लेकर चलनेवाले ब्रह्म अध्यात्म और कर्मके वास्तविक तत्त्वको जान जाते हैं अर्थात् भगवान्ने जैसे कहा है कि यह सम्पूर्ण संसार मेरेमें ही ओतप्रोत है (7। 7) और सब कुछ वासुदेव ही है (7। 19) ऐसे ही वे भगवान्के समग्ररूपको जान जाते हैं कि ब्रह्म अध्यात्म और कर्म ये सभी भगवत्स्वरूप ही हैं भगवान्के सिवाय इनमें दूसरी कोई सत्ता नहीं है।
।।7.29।।वे किसलिये भजते हैं सो कहते हैं जो पुरुष जरा और मृत्युसे छूटनेके लिये मुझ परमेश्वरका आश्रय लेकर अर्थात् मुझमें चित्तको समाहित करके प्रयत्न करते हैं वे जो परब्रह्म है उसको जानते हैं एवं समस्त अध्यात्म अर्थात् अन्तरात्मविषयकवस्तुको और अखिल समस्त कर्मको भी जानते हैं।
7.29 जरामरणमोक्षाय for liberation from old age and death, माम् Me, आश्रित्य having taken refuge in, यतन्ति strive, ये who, ते they, ब्रह्म Brahman, तत् that, विदुः know, कृत्स्नम् the whole, अध्यात्मम् knowledge of the Self, कर्म action, च and, अखिलम् whole.
Commentary:
They attain to the full knowledge of the Self or perfect knowledge of Brahman. They attain to the Bhuma or the Highest or the Unconditioned. All their doubts are totally destroyed. They fully realise now, All is Vaasudeva. All indeed is Brahman. There is no such thing as diversity.They are not rorn here and have thus conered old age and death. They are liberated here and now.
।।7.29।। चित्तशुद्धि तथा ध्यानसाधना का प्रयोजन है जरा और मरण से मुक्ति पाना। आधुनिक काल में भी मनुष्य ऐसे उपायों को खोजने का प्रयत्न कर रहा है जिसके द्वारा जरा और मरण से मुक्ति मिल सके। उसकी अमृत्व की कल्पना यह है कि इस भौतिक देह का अस्तित्व सदा बना रहे परन्तु अध्यात्म शास्त्र में इसे अमृतत्त्व नहीं कहा है और न देह के नित्य अस्तित्व को जीवन का लक्ष्य बताया है।प्राणिमात्र के लिए जन्म वृद्धि व्याधि क्षय और मरण ये विकार अवश्यंभावी हैं। ये सभी विकार या परिवर्तन मनुष्य को असह्य पीड़ा दायक होते हैं। इनके अभाव में मनुष्य का जीवन अखण्ड आनन्दमय होता है। ध्यानाभ्यास में साधक का प्रयत्न इन परिवर्तनशील उपाधियों के साथ हुए तादात्म्य से ऊपर उठकर कालत्रयातीत मुक्त आत्मस्वरूप में स्थिति प्राप्त करने का होता है।योग्यता सम्पन्न साधक आत्मा का ध्यान करके अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप का साक्षात्कार करता है कि यह आत्मा मैं हूँ। यह आत्मा ही वह परम सत्य है जो समस्त ब्रह्माण्ड का अधिष्ठान है जिसे वेदान्त में ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। आत्मसाक्षात्कार का अर्थ ही ब्रह्मस्वरूप बनना है क्योंकि व्यक्ति की आत्मा ही भूतमात्र की आत्मा है। सत्य के इस अद्वैत को यहाँ इस प्रकार सूचित किया गया है कि जो साधक मुझ आत्मस्वरूप पर ध्यान करते हैं वे ब्रह्म को जानते हैं।ज्ञानी पुरुष के विषय में श्रीकृष्ण कहते हैं कि वह न केवल सर्वव्यापी आत्मा का ज्ञाता है बल्कि स्वयं की सम्पूर्ण अध्यात्म अर्थात् मनोवैज्ञानिक शक्तियों का भी ज्ञाता है तथा वह सभी कर्मों में कुशल होता है। इस कथन से यह स्पष्ट होता है कि आत्मानुभवी पुरुष जगत् व्यवहार में अकुशल और मूढ़ नहीं होता। अनुभवी पुरुषों का मत है कि केवल वही पुरुष वास्तविक अर्थ में जगत् की सेवा कर सकता है जिसे लोगों के मनोविज्ञान का पूर्ण ज्ञान है तथा अपने मन पर पूर्ण संयम है। सत्य का गीत गाने के लिए ऐसा पूर्णत्व प्राप्त व्यक्ति ही योग्यतम माध्यम है और ऐसे व्यक्ति का सुसंगठित और समस्त कार्यों में कुशल होना आवश्यक है।ज्ञानी पुरुषों के विषय में ही आगे कहते हैं
।।7.29।। जरा (वृद्धावस्था) और मरण (मृत्यु) से मोक्ष पानेके लिये जो मेरा आश्रय लेकर प्रयत्न करते हैं, वे उस ब्रह्मको, सम्पूर्ण अध्यात्मको और सम्पूर्ण कर्मको भी जान जाते हैं।
।।7.29।। जो मेरे शरणागत होकर जरा और मरण से मुक्ति पाने के लिए यत्न करते हैं, वे पुरुष उस ब्रह्म को, सम्पूर्ण अध्यात्म को और सम्पूर्ण कर्म को जानते हैं।।