श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते।।8.16।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।8.16।। व्याख्या--(टिप्पणी प0 467.2) 'आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनोऽर्जुन'--हे अर्जुन ! ब्रह्माजीके लोकको लेकर सभी लोक पुनरावर्ती हैं, अर्थात् ब्रह्मलोक और उससे नीचेके जितने लोक (सुखभोग-भूमियाँ) हैं, उनमें रहनेवाले सभी प्राणियोंको उन-उन लोकोंके प्रापक पुण्य समाप्त हो जानेपर लौटकर आना ही पड़ता है।जितनी भी भोग-भूमियाँ हैं, उन सबमें ब्रह्मलोकको श्रेष्ठ बताया गया है। मात्र पृथ्वीमण्डलका राजा हो और उसका धनधान्यसे सम्पन्न राज्य हो, स्त्री-पुरुष, परिवार आदि सभी उसके अनुकूल हों, उसकी युवावस्था हो तथा शरीर नीरोग हो--यह मृत्यु-लोकका पूर्ण सुख माना गया है। मृत्युलोकके सुखसे सौ गुणा अधिक सुख मर्त्य देवताओंका है। मर्त्य देवता उनको कहते हैं, जो पुण्यकर्म करके देवलोकको प्राप्त होते हैं और देवलोकके प्रापक पुण्य क्षीण होनेपर पुनः मृत्युलोकमें आ जाते हैं (गीता 9। 21)। इन मर्त्य देवताओंसे सौ गुणा अधिक सुख आजान देवताओंका है। आजान देवता वे कहलाते हैं, जो कल्पके आदिमें देवता बने हैं और कल्पके अन्ततक देवता बने रहेंगे। इन आजान देवताओंसे सौ गुणा अधिक सुख इन्द्रका माना गया है। इन्द्रके सुखसे सौ गुणा अधिक सुख ब्रह्मलोकका माना गया है। इस ब्रह्मलोकके सुखसे भी अनन्त गुणा अधिक सुख भगवत्प्राप्त, तत्त्वज्ञ, जीवन्मुक्त महापुरुषका माना गया है। तात्पर्य यह है कि पृथ्वीमण्डलसे लेकर ब्रह्मलोकतकका सुख सीमित, परिवर्तनशील और विनाशी है। परन्तु भगवत्प्राप्तिका सुख अनन्त है, अपार है, अगाध है। यह सुख कभी नष्ट नहीं होता। अनन्त ब्रह्मा और अनन्त ब्रह्माण्ड समाप्त हो जायँ, तो भी यह परमात्मप्राप्तिका सुख कभी नष्ट नहीं होता, सदा बना रहता है।

     'पुनरावर्तिनः' का एक भाव यह भी है कि ये प्राणी साक्षात् परमात्माके अंश होनेके कारण नित्य हैं। अतः ये जबतक नित्य तत्त्व परमात्माको प्राप्त नहीं कर लेते ,तबतक कितने ही ऊँचे लोकोंमें जानेपर भी इनको वहाँसे पीछे लौटना ही पड़ता है। अतः ब्रह्मलोक आदि ऊँचे लोकोंमें जानेवाले भी पुनर्जन्मको प्राप्त होते हैं।यहाँ एक शङ्का होती है कि सन्तों, भक्तों, जीवन्मुक्तों और कारकपुरुषोंके दर्शनमात्रसे जीवका कल्याण हो जाता है और ब्रह्माजी स्वयं कारकपुरुष हैं तथा भगवान्के भक्त भी हैं। ब्रह्मलोकमें जानेवाले ब्रह्माजीके दर्शन करते ही हैं, फिर उनकी मुक्ति क्यों नहीं होती? वे लौटकर क्यों आते हैं? इसका समाधान यह है कि सन्त, भक्त आदिके दर्शन, सम्भाषण चिन्तन आदिका माहात्म्य इस मृत्युलोकके मनुष्योंके लिये ही है। कारण कि यह मनुष्य-शरीर केवल भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है। अतः मनुष्यको भगवत्प्राप्तिका कोई भी और किञ्चिन्मात्र भी मुक्तिका उपाय मिल जाता है तो वे मुक्त हो जाते हैं। ऐसा मुक्तिका अधिकार अन्य लोकोंमें नहीं है, इसलिये वे मुक्त नहीं होते। हाँ, उन लोकोंमें रहनेवालोंमें किसीकी मुक्त होनेके लिये तीव्र लालसा हो जाती है तो वह भी मुक्त हो जाता है। ऐसे ही पशु-पक्षियोंमें भी भक्त हुए हैं, पर ये दोनों ही अपवादरूपसे हैं, अधिकारीरूपसे नहीं। अगर वहाँके लोग भी अधिकारी माने जायँ तो नरकोंमें जानेवाले सभीकी मुक्ति हो जानी चाहिये; क्योंकि उन सभी प्राणियोंको परम भागवत, कारकपुरुष यमराजके दर्शन होते ही हैं? पर ऐसा शास्त्रोंमें न देखा और न सुना ही जाता है। इससे सिद्ध होता है कि उन-उन लोकोंमें रहनेवाले प्राणियोंका भक्त आदिके दर्शनसे कल्याण नहीं होता।

विशेष बात

यह जीव साक्षात् परमात्माका अंश है-- 'ममैवांशः' और जहाँ जानेके बाद फिर लौटकर नहीं आना पड़ता, वह परमात्माका धाम है-- 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम'। जैसे कोई अपने घरपर जाता है, ऐसे ही परमात्माका अंश होनेसे इस जीवको वहीँ (परमधाममें) जाना चाहिये। फिर भी यह जीव मरनेके बाद लौटकर क्यों आता है?

      जैसे कोई मनुष्य सत्सङ्ग आदिमें जाता है और समय पूरा होनेपर वहाँसे चल देता है। परन्तु चलते समय उसकी कोई वस्तु (चद्दर आदि) भूलसे वहाँ रह जाय तो उसको लेनेके लिये उसे फिर लौटकर वहाँ आना पड़ता है। ऐसे ही इस जीवने घर, परिवार, जमीन, धन आदि जिन चीजोंमें ममता कर ली है, अपनापन कर लिया है, उस ममता-(अपनापन-) के कारण इस जीवको मरनेके बाद फिर लौटकर आना पड़ता है। कारण कि जिस शरीरमें रहते हुए संसारमें ममता-आसक्ति की थी, वह शरीर तो रहता नहीं, न चाहते हुए भी छूट जाता है। परन्तु उस ममता-(वासना-) के कारण दूसरा शरीर धारण करके यहाँ आना पड़ता है। वह मननष्य बनकर भी आ सकता है और पशु-पक्षी आदि बनकर भी आ सकता है। उसको लौटकर आना पड़ता है--यह बात निश्चित है। भगवान्ने कहा है कि ऊँच-नीच योनियोंमें जन्म होनेका कारण गुणोंका सङ्ग ही है-- 'कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु' (13। 21) अर्थात् जो संसारमें ममता, आसक्ति, कामना करेगा, उसको लौटकर संसारमें आना ही पड़ेगा।

'मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते'--ब्रह्मलोकतक जानेवाले सभीको पुनर्जन्म लेना पड़ता है; परन्तु हे कौन्तेय! समग्ररूपसे मेरी प्राप्ति होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात् मेरेको प्राप्त होनेपर फिर संसारमें, जन्म-मरणके चक्करमें नहीं आना पड़ता। कारण कि मैं कालातीत हूँ; अतः मेरेको प्राप्त होनेपर वे भी कालातीत हो जाते हैं। यहाँ 'मामुपेत्य' का अर्थ है कि मेरे दर्शन हो जायँ, मेरे स्वरूपका बोध हो जाय और मेरेमें प्रवेश हो जाय (गीता 11। 54)।मेरेको प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म क्यों नहीं होता अर्थात् जीव लौटकर संसारमें क्यों नहीं आता? क्योंकि जीव मेरा अंश है और मेरा परमधाम ही इसका वास्तविक घर है। ब्रह्मलोक आदि लोक इसका घर नहीं है, इसलिये इसको वहाँसे लौटना पड़ता है। जैसे रेलगाड़ीका जहाँतकका टिकट होता है, वहाँतक ही मनुष्य उसमें बैठ सकता है। उसके बाद उसे उतरना ही पड़ता है। परन्तु वह अगर अपने घरमें बैठा हो तो उसे उतरना नहीं पड़ता। ऐसे ही जो देवताओंके लोकमें गया है, वह मानो रेलगाड़ीमें बैठा हुआ है। इसलिये उसको एक दिन नीचे उतरना ही पड़ेगा। परन्तु जो मेरेको प्राप्त हो गया है, वह अपने घरमें बैठा हुआ है। इसलिये उसको कभी उतरना नहीं पड़ेगा। तात्पर्य यह है कि भगवान्को प्राप्त किये बिना ऊँचे-से-ऊँचे लोकोंमें जानेपर भी कल्याण नहीं होता। अतः साधकको ऊँचे लोकोंके भोगोंकी किञ्चिन्मात्र भी इच्छा नहीं करनी चाहिये।

ब्रह्मलोकतक जाकर फिर पीछे लौटकर आनेवाले अर्थात् जन्म-मरणरूप बन्धनमें पड़नेवाले पुरुष आसुरीसम्पत्तिवाले होते हैं; क्योंकि आसुरी-सम्पत्तिसे ही बन्धन होता है--निबन्धायासुरी मता। इसलिये ब्रह्मलोकतक बन्धन-ही-बन्धन है। परन्तु मेरे शरण होनेवाले, मुझे प्राप्त होनेवाले पुरुष दैवी सम्पत्तिवाले होते हैं। उनका फिर जन्म-मरण नहीं होता; क्योंकि दैवी सम्पत्तिसे मोक्ष होता है--'दैवी संपद्विमोक्षाय' (गीता 16। 5)।

विशेष बात

ब्रह्मलोकमें जानेवाले पुरुष दो तरहके होते हैं--एक तो जो ब्रह्मलोकके सुखका उद्देश्य रखकर यहाँ बड़े-बड़े पुण्यकर्म करते हैं तथा उसके फलस्वरूप ब्रह्मलोकका सुख भोगनेके लिये ब्रह्मलोकमें जाते हैं; और दूसरे, जो परमात्मप्राप्तिके लिये ही तत्परतापूर्वक साधनमें लगे हुए हैं; परन्तु प्राणोंके रहते-रहते परमात्मप्राप्ति हुई नहीं और अन्तकालमें भी किसी कारण-विशेषसे साधनसे विचलित हो गये, तो वे ब्रह्मलोकमें जाते हैं और वहाँ रहकर महाप्रलयमें ब्रह्माजीके साथ ही मुक्त हो जाते हैं। इन साधकोंका ब्रह्मलोकके सुखभोगका उद्देश्य नहीं होता; किन्तु अन्तकालमें साधनसे विमुख होनेसे तथा अन्तःकरणमें सुखभोगकी किञ्चिन्मात्र इच्छा रहनेसे ही उनको ब्रह्मलोकमें जाना पड़ता है। इस प्रकार ब्रह्मलोकका सुख भोगकर ब्रह्माजीके साथ मुक्त होनेको 'क्रम-मुक्ति' कहते हैं। परन्तु जिन साधकोंको यहीं बोध हो जाता है वे यहाँ ही मुक्त हो जाते हैं। इसको 'सद्योमुक्ति' कहते हैं।

    इसी अध्यायके दूसरे श्लोकमें अर्जुनका प्रश्न था कि अन्तकालमें आप कैसे जाननेमें आते हैं? इसका उत्तर भगवान्ने पाँचवें श्लोकमें दिया। फिर छठे श्लोकमें अन्तकालीन गतिका सामान्य नियम बताया और सातवें श्लोकमें अर्जुनको सब समयमें स्मरण करनेकी आज्ञा दी। इस सातवें श्लोकसे चौदहवें श्लोकका सम्बन्ध है। बीचमें (आठवेंसे तेरहवें श्लोकतक) सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकारकी बात प्रसङ्गसे आ गयी है।आठवेंसे सोलहवें श्लोकतकके नौ श्लोकोंसे यह सिद्ध होता है कि भगवान् श्रीकृष्ण ही सर्वोपरि पूर्ण परमात्मा हैं। वे ही समग्र परमात्मा हैं। उनके अन्तर्गत ही सगुणनिराकार और निर्गुणनिराकार आ जाते हैं। अतः,इनका प्रेम प्राप्त करना ही मनुष्यका परम पुरुषार्थ है।

 सम्बन्ध--ब्रह्मलोकमें जानेवाले भी पीछे लौटकर आते हैं--इसका कारण आगेके श्लोकमें बताते हैं।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।8.16।।तो क्या आपके सिवा अन्य स्थानको प्राप्त होनेवाले पुरुष फिर संसारमें आते हैं इसपर कहा जाता है --, जिसमें प्राणी उत्पन्न होते और निवास करते हैं उसका नाम भुवन है ब्रह्मलोक ब्रह्मभुवन कहलाता है। हे अर्जुन ब्रह्मलोकपर्यन्त अर्थात् ब्रह्मलोकसहित समस्त लोक पुनरावर्ती हैं अर्थात् जिनमें जाकर फिर संसारमें जन्म लेना पड़े ऐसे हैं। परंतु हे कुन्तीपुत्र केवल एक मुझे प्राप्त होनेपर फिर पुनर्जन्म -- पुनरुत्पत्ति नहीं होती।

English Commentary By Swami Sivananda

8.16 आब्रह्मभुवनात् up to the world of Brahma, लोकाः worlds, पुनरावर्तिनः subject to return, अर्जुन O Arjuna, माम् Me, उपेत्य having attained, तु but, कौन्तेय O Kaunteya, पुनर्जन्म rirth, न not, विद्यते is.

Commentary:
Those devotees who practise Daharopasana (a kind of meditation on the mystic space in the heart) and other devotees who reach Brahmaloka through the path of the gods (Devayana) and attain gradual liberation (KramaMukti) will not return again to this world. But those who reach Brahmaloka through the practice of the Panchagni Vidya (a ritual) will enjoy life in Brahmaloka and come back to this world.All the worlds are subjected to return because they are limited or conditioned by time.

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।8.16।। गीताचार्य श्रीकृष्ण की किसी सिद्धांत को बल देकर समझाने की अपनी विशेष पद्धति यह है कि वे उस सिद्धांत को उसके विरोधी तथ्य की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत करते हैं। गीता में प्रायः इस पद्धति का उपयोग किया गया है। इस श्लोक में भी परस्पर दो विरोधी तथ्यों को एक साथ व्यक्त किया गया है जिससे कोई भी विद्यार्थी उन्हें तुलनात्मक दृष्टि से स्पष्ट समझ सकता है। प्रथम पंक्ति में कहा गया है कि ब्रह्मलोक तक के सब लोक पुनरावर्ती हैं। इसके विपरीत जो पुरुष आत्मा का साक्षात अनुभव करते हैं वे मुझे प्राप्त होकर पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होते।वेदान्त में क्रममुक्ति का एक सिद्धांत प्रतिपादित है। इसके अनुसार जो पुरुष वैदिक कर्म एवं उपासना का युगपत् (एक साथ) अनुष्ठान करता है वह कर्म और उपासना के इस समुच्चय के फलस्वरूप ब्रह्मलोक अर्थात् सृष्टिकर्त्ता के लोक को प्राप्त करता है। यहाँ कल्प की समाप्ति पर ब्रह्मा जी के उपदेश से परब्रह्म के साथ एकरूप हो जाता है अर्थात् मुक्त हो जाता है। इस ब्रह्मलोक में भी मुक्ति का अधिकारी बनने के लिए उसे आत्मसंयम ब्रह्मा जी के उपदेश का पालन तथा आत्मविचार करना आवश्यक होता है। तभी अज्ञान जनित बन्धन से उसकी पूर्ण मुक्ति हो सकती है। जो जीव ब्रह्मलोक तक नहीं पहुँच पाते वे मोक्ष का आनन्द नहीं अनुभव कर सकते। कल्प की समाप्ति पर उन्हें अवशिष्ट कर्मों के अनुसार पुनः किसी देह विशेष को धारण करना पड़ता है। इसी सिद्धांत को दृष्टि में रखते हुए भगवान् कहते हैं कि ब्रह्मलोक तक के सभी लोकों को प्राप्त हुए जीवों को पुनः जन्म लेना पड़ता है। किन्तु ब्रह्मलोक को प्राप्त करने पर अधिकारी जीव मुक्त हो जाता है।परन्तु वर्तमान जीवन में ही जिन्होंने अपने वास्तविक नित्य स्वरूप का साक्षात् अनुभव कर लिया है वे एक सर्वव्यापी आत्मस्वरूप मुझे प्राप्त होकर पुनः संसार को प्राप्त नहीं होते। स्वप्न से जाग्रत अवस्था में आने पर जाग्रत पुरुष पुनः स्वप्न में प्रवेश नहीं करता जागने का अर्थ है सदा के लिए स्वप्न में अनुभव किये सुख और दुःख से मुक्त हो जाना। जाग्रत पुरुष को (मुक्त को) प्राप्त होकर साधक स्वप्न (संसार) को पुनः लौटता नहीं।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।8.16।। हे अर्जुन ! ब्रह्मलोकतक सभी लोक पुनरावर्ती है; परन्तु हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।8.16।। हे अर्जुन ! ब्रह्म लोक तक के सब लोग पुनरावर्ती स्वभाव वाले हैं। परन्तु, हे कौन्तेय ! मुझे प्राप्त होने पर पुनर्जन्म नहीं होता।।
 

English Translation By Swami Gambirananda

8.16 O Arjuna, all the worlds together with the world of Brahma are subject to return. But, O son of Kunti, there is no rirth after reaching Me.

English Translation By Swami Sivananda

8.16 (All) the worlds including the world of Brahma are subject to return again, O Arjuna; but he who reaches Me, O son of Kunti, has no rirth.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

8.16 O Arjuna, all the lokah, worlds; abrahma-bhuvanat, together with the world of Brahma-bhuvana is that (place) in which creatures are born, and brahma-bhuvana means the world of Brahma; punah avartinah, are subject to return, are by nature liable to come again; Tu, but; kaunteya, O son of Kunti, na vidyate, there is no; punarjanma, rirth; upetya, after reaching; mam, Me alone. Why are all the worlds together with the realm of Brahma subject to return? Becuase they are limited by time. How?

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

8.16 A Brhma etc. [This verse] has been interpreted by all as 'There is rirth even for those who have reached the world of Brhma (the personal god).' If this interpretation is accepted, then it would amount to the proposition that going to the worlds that are higher than that [of Brahma], is emancipation [from rirth]. However according to us, with our inner sight blurred by the powerful darkness of doubt, this interpretation does not seem to touch the heart [of the text]. Hence, the following is the wick of the lamp brought from the Agama literature : Till Brahman : Till the status of the Supreme Brahman is attained. Till then all are subject to return (to rirth) from each and every world, whether it lies adjacently, or above or below [the world of Brahman]; men run round like a wheel wandering without stop from one place to another. But who knows in this manner viz., 'from all the world there is return' ? For, it is heard [in the Puranas] that [the personal gods like] Brahma etc., themselves exist indeed for a very long period. How is it that they too are subject to return again ? If they are subject to return, will they not be of the nature of having birth and death ? Expecting this objection, [the Lord] says :

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

8.16 All the worlds, from the realm of Brahma included in the Brahmanda (cosmic sphere), are spheres in which experiences conferring Aisvarya (prosperity and power) can be obtained. But they are destructible and those who attain them are subject to return. Therefore destruction, i.e., return is unavoidable for the aspirants for Aisvarya, as the regions where it is attained perish. On the contrary there is no rirth to those who attain Me, the Omniscient, who has true resolves, whose sport is creation, sustentation and dissolution of the entire universe, who is supremely compassionate and who is always of the same form. For these reasons there is no destruction in the case of those who attain Me. He now elucidates the time-period settled by the Supreme Person's will in regard to the evolution and dissolution of the worlds upto the cosmic sphere of Brahma and of those who are within them.

English Translation By By Dr. S. Sankaranarayan

8.16. Till the Brahman [is attained], people do return from [each and every] world, O Arjuna ! But there is no rirth for one who has attained Me, O son of Kunti !

English Translation by Shri Purohit Swami

8.16 The worlds, with the whole realm of creation, come and go; but, O Arjuna, whoso comes to Me, for him there is nor rebirth.