भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे।।8.19।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।8.19।। व्याख्या --'भूतग्रामः स एवायम्'--अनादिकालसे जन्म-मरणके चक्करमें पड़ा हुआ यह प्राणिसमुदाय वही है, जो कि साक्षात् मेरा अंश, मेरा स्वरूप है। मेरा सनातन अंश होनेसे यह नित्य है। सर्ग और प्रलय तथा महासर्ग और महाप्रलयमें भी यही था और आगे भी यही रहेगा। इसका न कभी अभाव हुआ है और न आगे कभी इसका अभाव होगा। तात्पर्य है कि यह अविनाशी है, इसका कभी विनाश नहीं होता। परन्तु भूलसे यह प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मान लेता है। प्राकृत पदार्थ (शरीर आदि) तो बदलते रहते हैं, उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं, पर यह उनके सम्बन्धको पकड़े रहता है। यह कितने आश्चर्यकी बात है कि सम्बन्धी (सांसारिक पदार्थ) तो नहीं रहते, पर उनका सम्बन्ध रहता है; क्योंकि उस सम्बन्धको स्वयंने पकड़ा है। अतः यह स्वयं जबतक उस सम्बन्धको नहीं छोड़ता, तबतक उसको दूसरा कोई छुड़ा नहीं सकता। उस सम्बन्धको छोड़नेमें यह स्वतन्त्र है, सबल है। वास्तवमें यह उस सम्बन्धको रखनेमें सदा परतन्त्र है; क्योंकि वे पदार्थ तो हरदम बदलते रहते हैं, पर यह नया-नया सम्बन्ध पकड़ता रहता है। जैसे, बालकपनको इसने नहीं छोड़ा और न छोड़ना चाहा, पर वह छूट गया। ऐसे ही जवानीको इसने नहीं छोड़ा, पर वह छूट गयी। और तो क्या, यह शरीरको भी छोड़ना नहीं चाहता, पर वह भी छूट जाता है। तात्पर्य यह हुआ कि प्राकृत पदार्थ तो छूटते ही रहते हैं, पर यह जीव उन पदार्थोंके साथ अपने सम्बन्धको बनाये रखता है, जिससे,इसको बार-बार शरीर धारण करने पड़ते हैं, बार-बार जन्मना-मरना पड़ता है। जबतक यह उस माने हुए सम्बन्धको नहीं छोड़ेगा तबतक यह जन्ममरणकी परम्परा चलती ही रहेगी, कभी मिटेगी नहीं।
भगवान्के द्वारा अकेले खेल नहीं हुआ (एकाकी न रमते) तो खेल खेलनेके लिये अर्थात् प्रेमका आदान-प्रदान करनेके लिये भगवान्ने इस प्राणिसमुदायको शरीर-रूप खिलौनेके सहित प्रकट किया। खेलका यह नियम होता है कि खेलके पदार्थ केवल खेलनेके लिये ही होते हैं, किसीके व्यक्तिगत नहीं होते। परन्तु यह प्राणिसमुदाय खेल खेलना तो भूल गया और खेलके पदार्थोंको अर्थात् शरीरोंको व्यक्तिगत मानने लग गया। इसीसे यह उनसे फँस गया और भगवान्से सर्वथा विमुख हो गया।'भूत्वा भूत्वा प्रलीयते'--ये पद शरीरोंके लिये कहे गये हैं, जो कि उत्पन्न और नष्ट होते रहते हैं अर्थात् जिनमें प्रतिक्षण ही परिवर्तन होता रहता है। परन्तु जीव उन शरीरोंके परिवर्तनको अपना परिवर्तन और उनके जन्मने-मरनेको अपना जन्म-मरण मानता रहता है। इसी मान्यताके कारण उसका जन्म-मरण कहा जाता है।यह स्वयं सत्स्वरूप है --'भूतग्रामः स एवायम्' और शरीर उत्पत्ति-विनाशशील हैं--'भूत्वा भूत्वा प्रलीयते', इसलिये शरीरोंको धारण करना अर्थात् जन्म-मरणका होना परधर्म है और मुक्त होना स्वधर्म है।
'रात्र्यागमेऽवशः पार्थ प्रभवत्यहरागमे'--यहाँ 'अवशः' कहनेका तात्पर्य है कि अगर यह जीव प्रकृतिकी वस्तुओंमेंसे किसी भी वस्तुको अपनी मानता रहेगा तो उसको वहम तो यह होगा कि 'मैं इस वस्तुका मालिक हूँ', पर हो जायगा उस वस्तुके परवश, पराधीन। प्राकृत पदार्थोंको यह जितना ही अधिक ग्रहण करेगा, उतना ही यह महान् परतन्त्र बनता चला जायगा। फिर इसकी परतन्त्रता कभी छूटेगी ही नहीं। ब्रह्माजीके जगने और सोनेपर अर्थात् सर्ग और प्रलयके होनेपर ( 8। 18), ब्रह्माजीके प्रकट और लीन होनेपर अर्थात् महासर्ग और महाप्रलयके होनेपर (9। 7 8) तथा वर्तमानमें प्रकृतिके परवश होकर कर्म करते रहनेपर (3। 5) भी यह जीव 'जन्मना और मरना तथा कर्म करना और उसका फल भोगना'--इस आफतसे कभी छूटेगा ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि जबतक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती, बोध नहीं होता और यह प्रकृतिके सम्बन्धको नहीं छोड़ता, तबतक परतन्त्र होनेके कारण यह दुःखरूप जन्म-मरणके चक्करसे छूट नहीं सकता। परन्तु जब इसकी प्रकृति और प्रकृतिजन्य पदार्थोंकी परवशता मिट जाती है अर्थात् इसको प्रकृतिके सम्बन्धसे सर्वथा रहित अपने शुद्ध स्वरूपका बोध हो जाता है, तो फिर यह महासर्गमें भी उत्पन्न नहीं होता और महाप्रलयमें भी व्यथित नहीं होता--'सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च'(गीता 14। 2)।मूलमें परवशता प्रकृतिजन्य पदार्थोंको महत्त्व देने, उनको स्वीकार करनेमें ही है। इस परवशताको ही कहीं कालकी, कहीं स्वभावकी कहीं कर्मकी और कहीं गुणोंकी परवशताके नामसे कहा गया है।इस प्राणिसमुदायकी यह परवशता तभीतक रहती है, जबतक यह प्राकृत पदार्थोंके संयोगसे सुख लेना चाहता है। इस संयोगजन्य सुखकी इच्छासे ही यह पराधीनता भोगता रहता है और ऐसा मानता रहता है कि यह पराधीनता छूटती नहीं, इसको छो़ड़ना बड़ा कठिन है। परन्तु यह परवशता इसकी ही बनायी हुई है, स्वतः नहीं है। अतः इसको छोड़नेकी जिम्मेवारी इसीपर है। इसको यह जब चाहे, तभी छोड़ सकता है।
सम्बन्ध--अनित्य संसारका वर्णन करके अब आगेके श्लोकमें जीवोंके प्रापणीय परमात्माकी महिमाका विशेष वर्णन करते हैं।
।।8.19।।न किये कर्मोंका फल मिलना और किये हुए कर्मोंका फल न मिलना इस दोषका परिहार करनेके लिये बन्धन और मुक्तिका मार्ग बतलानेवाले शास्त्रवाक्योंकी सफलता दिखानेके लिये और अविद्यादि पञ्चक्लेशमूलक कर्मसंस्कारोंके वशमें पड़कर पराधीन हुआ प्राणीसमुदाय बारंबार उत्पन्न होहोकर लय हो जाता है -- इस प्रकारके कथनसे संसारमें वैराग्य दिखलानेके लिये यह कहते हैं --, जो पहले कल्पमें था वही -- दूसरा नहीं -- यह स्थावरजङ्गमरूप भूतोंका समुदाय ब्रह्माके दिनके आरम्भमें बारंबार उत्पन्न होहोकर दिनकी समाप्ति और रात्रिका प्रवेश होनेपर पराधीन हुआ ही बारंबार लय होता जाता है और फिर उसी प्रकार विवश होकर दिनके प्रवेशकालमें पुनः उत्पन्न होता जाता है।
8.19 भूतग्रामः multitude of beings, सः that, एव verily, अयम् this, भूत्वा भूत्वा being born again and again, प्रलीयते dissolves, रात्र्यागमे at the coming of night, अवशः helpless, पार्थ O Partha, प्रभवति comes forth, अहरागमे at the coming of day.
Commentary:
Avidya (ignorance), Kama (desire) and Karma (action) are the three knots that bind the individual to Samsara. Desire is born of Avidya. Man exerts to attain and enjoy the objects of his desires. During this activity he favours some and injures others through the force of RagaDvesha (love and hatred or attraction and repulsion). Therefore he is caught in the wheel of Samsara or transmigration. He has to take birth again and again to reap the fruits of his own actions. He repeatedly comes forths and dissolves through the force of his own Karma.The individual souls have lost their independence as they are bound by ignorance, desire and activity. Therefore they are subject to the sorrows, miseries and pains of this Samsara. In order to create dispassion in their minds and a longing for liberation in their hearts, and to remove the fallacious belief that a man reaps the fruits of what he has not done or that he does not reap the fruits of what he has done, the Lord has said that all creatures involuntarily come into being again and again at the coming of the day and dissolve at the coming of the night (on account of the actions or Karmas caused by desire born of ignorance).
।।8.19।। ब्रह्माजी का कार्यभार एवं कार्यप्रणाली तथा सृष्टि की उत्पत्ति और लय का वर्णन इन दो श्लोकों में किया गया है। यहाँ कहा गया है कि दिन में जो कि एक सहस्र युग का है वे सृष्टि करते हैं और उनकी रात्रि का जैसे ही आगमन होता है वैसे ही सम्पूर्ण सृष्टि पुनः अव्यक्त में लीन हो जाती है।सामान्यतः जगत् में सृष्टि शब्द का अर्थ होता है किसी नवीन वस्तु की निर्मिति। परन्तु दर्शनशास्त्र की दृष्टि से सृष्टि का अभिप्राय अधिक सूक्ष्म है तथा अर्थ उसके वास्तविक स्वभाव का परिचायक है। एक कुम्भकार मिट्टी के घट का निर्माण कर सकता है लेकिन लड्डू का नहीं निर्माण की क्रिया किसी पदार्थ विशेष (उपादान कारण कच्चा माल जैसे दृष्टान्त में मिट्टी) से एक आकार को बनाती है जिसके कुछ विशेष गुण होते हैं। भिन्नभिन्न रूपों को पुनः विभिन्न नाम दिये जाते हैं। विचार करने पर ज्ञात होगा कि जो निर्मित नामरूप है वह अपने गुण के साथ पहले से ही अपने कारण में अव्यक्त रूप से विद्यमान था। मिट्टी में घटत्व था किन्तु लड्डुत्व नहीं इस कारण मिट्टी से घट की निर्मिति तो हो सकी परन्तु लड्डू का एक कण भी नहीं बनाया जा सका। अतः वेदान्ती इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि सृष्टि का अर्थ है अव्यक्त नाम रूप और गुणों का व्यक्त हो जाना।कोई भी व्यक्ति वर्तमान में जिस स्थिति में रहता दिखाई देता है वह उसके असंख्य बीते हुये दिनों का परिणाम है। भूतकाल के विचार भावना तथा कर्मों के अनुसार उनका वर्तमान होता है। मनुष्य के बौद्धिक विचार एवं जीवन मूल्यों के अनुरूप होने वाले कर्म अपने संस्कार उसके अन्तःकरण में छोड़ जाते हैं। यही संस्कार उसके भविष्य के निर्माता और नियामक होते हैं।जिस प्रकार विभिन्न जाति के प्राणियों की उत्पत्ति में सातत्य का विशिष्ट नियम कार्य करता है उसी प्रकार विचारों के क्षेत्र में भी वह लागू होता है। मेढक से मेढक की मनुष्य से मनुष्य की तथा आम्रफल के बीज से आम्र की ही उत्पत्ति होती है। ठीक इसी प्रकार शुभ विचारों से सजातीय शुभ विचारों की ही धारा मन में प्रवाहित होगी और उसमें उत्तरोत्तर बृद्धि होती जायेगी। मन में अंकित इन विचारों के संस्कार इन्द्रियों के लिए अव्यक्त रहते हैं और प्रायः मन बुद्धि भी उन्हें ग्रहण नहीं कर पाती। ये अव्यक्त संस्कार ही विचार शब्द तथा कर्मों के रूप में व्यक्त होते हैं। संस्कारों का गुणधर्म कर्मों में भी व्यक्त होता है।उदाहरणार्थ किसी विश्रामगृह में चार व्यक्ति चिकित्सक वकील सन्त और डाकू सो रहे हों तब उस स्थिति में देह की दृष्टि से सबमें ताप श्वास रक्त मांस अस्थि आदि एक समान होते हैं। वहाँ डाक्टर और वकील या सन्त और डाकू का भेद स्पष्ट नहीं होता। यद्यपि प्रत्येक व्यक्ति की विशिष्टता को हम इन्द्रियों से देख नहीं पाते तथापि वह प्रत्येक में अव्यक्त रूप में विद्यमान रहती है उनसे उसका अभाव नहीं हो जाता है।उन लोगों के अव्यक्त स्वभाव क्षमता और प्रवृत्तियाँ उनके जागने पर ही व्यक्त होती हैं। विश्रामगृह को छोड़ने पर सभी अपनीअपनी प्रवत्ति के अनुसार कार्यरत हो जायेंगे। अव्यक्त से इस प्रकार व्यक्त होना ही दर्शनशास्त्र की भाषा में सृष्टि है।सृष्टि की प्रक्रिया को इस प्रकार ठीक से समझ लेने पर सम्पूर्ण ब्रह्मांड की सृष्टि और प्रलय को भी हम सरलता से समझ सकेंगे। समष्टि मन (ब्रह्माजी) अपने सहस्युगावधि के दिन की जाग्रत् अवस्था में सम्पूर्ण अव्यक्त सृष्टि को व्यक्त करता है और रात्रि के आगमन पर भूतमात्र अव्यक्त में लीन हो जाते हैं।यहाँ भगवान् श्रीकृष्ण इस पर विशेष बल देते हुये कहते हैं कि वही भूतग्राम पुनः पुनः अवश हुआ उत्पन्न और लीन होता है। अर्थात् प्रत्येक कल्प के प्रारम्भ में नवीन जीवों की उत्पत्ति नहीं होती। इस कथन से हम स्पष्ट रूप से समझ सकते हैं कि किस प्रकार मनुष्य अपने ही विचारों एवं भावनाओं के बन्धन में आ जाता है ऐसा कभी नहीं हो सकता कि कोई पशु प्रवृत्ति का व्यक्ति जो सतत विषयोपभोग का जीवन जीता है और अपनी वासनापूर्ति के लिए निर्मम और क्रूर कर्म करता है रातों रात सर्व शुभ गुण सम्पन्न व्यक्ति बन जाय। ऐसा होना सम्भव नहीं चाहे उसके गुरु कितने ही महान् क्यों न हों अथवा कितना ही मंगलमय पर्व क्यों न हो और किसी स्थान या काल की कितनी ही पवित्रता क्यों न हो।जब तक शिष्य में दैवी संस्कार अव्यक्त रूप में न हों तब तक कोई भी गुरु उपदेश के द्वारा उसे तत्काल ही सन्त पुरुष नहीं बना सकता। यदि कोई तर्क करे कि पूर्व काल में किसी विरले महात्मा में किसी विशिष्ट गुरु के द्वारा तत्काल ही ऐसा अभूतपूर्व परिवर्तन लाया गया तो हमको किसी जादूगर के द्वारा मिट्टी से लड्डू बनाने की घटना को भी स्वीकार करना चाहिए लड्डू बनाने की घटना में हम जानते हैं कि वह केवल जादू था दृष्टिभ्रम था और वास्तव में मिट्टी से लड्डू बनाया नहीं गया था। इसी प्रकार जो बुद्धिमान लोग जीवन के विज्ञान को समझते हैं और गीताचार्य के प्रति जिनके मन में कुछ श्रद्धा भक्ति है वे ऐसे तर्क को किसी कपोलकल्पित कथा से अधिक महत्व नहीं देंगे। ऐसी कथा को केवल काव्यात्मक अतिशयोक्ति के रूप में स्वीकार किया जा सकता है जो शिष्यों द्वारा अपने गुरु की स्तुति में की जाती हैं।वही भूतग्राम का अर्थ है वही वासनायें। जीव अपनी वासनाओं से भिन्न नहीं होता। वासनाक्षय के लिए जीव विभिन्न लोकों में विभिन्न प्रकार के शरीर धारण करता है। इसमें वह अवश है। अवश एक प्रभावशाली शब्द है जो यह सूचित करता है कि अपनी दृढ़ वासनाओं के फलस्वरूप यह जीव स्वयं को अपने भूतकाल से वियुक्त करने में असमर्थ होता है। जब हम ज्ञान के प्रकाश की ओर पीठ करके चलते हैं तब हमारा भूतकाल का जीवन हमारे मार्ग को अन्धकारमय करता हुआ हमारे साथ ही चलता है। ज्ञान के प्रकाश की ओर अभिमुख होकर चलने पर वही भूतकाल नम्रतापूर्वक संरक्षक देवदूत के समान आत्मान्वेषण के मार्ग में हमारा साथ देता है।एक देह को त्यागकर जीव का अस्तित्व उसी प्रकार बना रहता है जैसे नाटक की समाप्ति पर राजा के वेष का त्याग कर अभिनेता का। नाटक के पश्चात् वह अपनी पत्नी के पति और बच्चों के पिता के रूप में रहता है। एक देह विशेष को धारण कर कर्मों के रूप में अपने मन की वासनाओं या विचारों का गीत गाना ही सृष्टि है और उपाधियों को त्यागने पर विचारों का अव्यक्त होना ही लय है। वीणावादक अपने वाद्य के माध्यम से अपने संगीत के ज्ञान को व्यक्त करता है किन्तु जब वीणा को बन्द कर दिया जाता है तो उस वादक का संगीतज्ञान अव्यक्त अवस्था में रहता है।मनुष्य का बाह्य जगत् से सम्पर्क होने या उसकी वासनायें अर्थात् अव्यक्त निरन्तर परिवर्तित होता रहता है। यह पहले भी कहा जा चुका है कि यह निरन्तर परिवर्तन एक अपरिवर्तनशील नित्य अविकारी अधिष्ठान के बिना ज्ञात नहीं हो सकता। उसी अधिष्ठान पर इस परिवर्तन का आभास होता है।वह नित्य अधिष्ठान क्या है जिस पर इस सृष्टि का नाटक खेला जाता है
।।8.19।। हे पार्थ ! वही यह प्राणिसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके परवश हुआ ब्रह्माके दिनके समय उत्पन्न होता है और ब्रह्माकी रात्रिके समय लीन होता है।
।।8.19।। हे पार्थ ! वही यह भूतसमुदाय, है जो पुनः पुनः उत्पन्न होकर लीन होता है। अवश हुआ (यह भूतग्राम) रात्रि के आगमन पर लीन तथा दिन के उदय होने पर व्यक्त होता है।।