श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।

परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।9.11।। व्याख्या--परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्--जिसकी सत्ता-स्फूर्ति पाकर प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंकी रचना करती है, चरअचर, स्थावर-जङ्गम प्राणियोंको पैदा करती है; जो प्रकृति और उसके कार्यमात्रका संचालक, प्रवर्तक, शासक और संरक्षक है जिसकी इच्छाके बिना वृक्षका पत्ता भी नहीं हिलता प्राणी अपने कर्मोंके अनुसार जिनजिन लोकोंमें जाते हैं, उन-उन लोकोंमें प्राणियोंपर शासन करने-वाले जितने देवता हैं, उनका भी जो ईश्वर (मालिक) है और जो सबको जाननेवाला है-- ऐसा वह मेरा भूतमहेश्वररूप सर्वोत्कृष्ट भाव (स्वरूप) है।

'परं भावम्' कहनेका तात्पर्य है कि मेरे सर्वोत्कृष्ट प्रभावको अर्थात् करनेमें, न करनेमें और उलट-फेर करनेमें जो सर्वथा स्वतन्त्र है; जो कर्म, क्लेश, विपाक आदि किसी भी विकारसे कभी आबद्ध नहीं है; जो क्षरसे अतीत और अक्षरसे भी उत्तम है तथा वेदों और शास्त्रोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है (गीता 15। 18) -- ऐसे मेरे परमभावको मूढ़लोग नहीं जानते, इसीसे वे मेरेको मनुष्य-जैसा मानकर मेरी अविज्ञा करते हैं।'मानुषी तनुमाश्रितम्'-- भगवान्को मनुष्य मानना क्या है? जैसे साधारण मनुष्य अपनेको शरीर, कुटुम्ब-परिवार, धन-सम्पत्ति, पद-अधिकार आदिके आश्रित मानते हैं अर्थात् शरीर, कुटुम्ब आदिकी इज्जत-प्रतिष्ठाको अपनी इज्जतप्रतिष्ठा मानते हैं; उन पदार्थोंके मिलनेसे अपनेको बड़ा मानते हैं; और उनके न मिलनेसे अपनेको छोटा मानते हैं और जैसे साधारण प्राणी पहले प्रकट नहीं थे, बीचमें प्रकट हो जाते हैं तथा अन्तमें पुनः अप्रकट हो जाते हैं (गीता 2। 28), ऐसे ही वे मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं। वे मेरेको मनुष्यशरीरके परवश मानते हैं अर्थात् जैसे साधारण मनुष्य होते हैं? ऐसे ही साधारण मनुष्य कृष्ण हैं --ऐसा मानते हैं। 

    भगवान् शरीरके आश्रित नहीं होते। शरीरके आश्रित तो वे ही होते हैं, जिनको कर्मफलभोगके लिये पूर्वकृत कर्मोंके अनुसार शरीर मिलता है। परन्तु भगवान्का मानवीय शरीर कर्मजन्य नहीं होता। वे अपनी इच्छासे ही प्रकट होते हैं-- 'इच्छयाऽऽत्तवपुषः' (श्रीमद्भा0 10। 33। 35) और स्वतन्त्रतापूर्वक मत्स्य, कच्छप, वराह आदि अवतार लेते हैं। इसलिये उनको न तो कर्मबन्धन होता है और न वे शरीरके आश्रित होते हैं, प्रत्युत शरीर उनके आश्रित होता है --

'प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवामि' (गीता 4। 6) अर्थात् वे प्रकृतिको अधिकृत करके प्रकट होते हैं। तात्पर्य यह हुआ कि सामान्य प्राणी तो प्रकृतिके परवश होकर जन्म लेते हैं तथा प्रकृतिके आश्रित होकर ही कर्म करते हैं? पर भगवान् स्वेच्छासे? स्वतन्त्रतासे अवतार लेते हैं और प्रकृति भी उनकी अध्यक्षतामें काम करती है।

मूढ़लोग मेरे अवतारके तत्त्वको न जानकर मेरेको मनुष्यशरीरके आश्रित (शरण) मानते हैं अर्थात् उनको होना तो चाहिये मेरे शरण, पर मानते हैं मेरेको मनुष्यशरीरके शरण ! तो वे मेरे शरण कैसे होंगे? हो ही नहीं सकते। यही बात भगवान्ने सातवें अध्यायमें कही है कि बुद्धिहीन लोग मेरे अज-अविनाशी परमभावको न जानते हुए मेरेको साधारण मनुष्य मानते हैं (7। 24 -- 25)। इसलिये वे मेरे शरण न होकर देवताओंके शरण होते हैं (7। 20)।

'अवजानन्ति मां (टिप्पणी प0 498) मूढाः' -- जिसकी अध्यक्षतामें प्रकृति अनन्त ब्रह्माण्डोंको उत्पन्न और लीन करती है, जिसकी सत्ता-स्फूर्तिसे संसारमें सब कुछ हो रहा है और जिसने कृपा करके अपनी प्राप्तिके लिये मनुष्यशरीर दिया है-- ऐसे मुझ सत्यतत्त्वकी मूढ़लोग अवहेलना करते हैं। वे मेरेको न मानकर उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंको ही सत्य मानकर उनका संग्रह करने और भोग भोगनेमें ही लगे रहते हैं -- यही मेरी अवज्ञा, अवहेलना करना है।

 सम्बन्ध --अब भगवान् आगेके श्लोकमें अपनी अवज्ञाका फल बताते हैं।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।9.11।।इस प्रकार मैं यद्यपि नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव तथा सभी प्राणियोंका आत्मा हूँ तो भी --, मूढ़ -- अविवेकी लोग मेरे सर्व लोकोंके महान् ईश्वररूप परमभावको अर्थात् सबका अपना आत्मारूप मैं परमात्मा सब प्राणियोंका महान् ईश्वर हूँ एवं आकाशकी भाँति बल्कि आकाशकी अपेक्षा भी सूक्ष्मतर भावसे व्यापक हूँ -- इस परम परमात्मतत्त्वको न जाननेके कारण मुझ मनुष्यदेहधारी परमात्माको तुच्छ समझते हैं अर्थात् मनुष्यरूपसे लीला करते हुए मुझ परमात्माकी अवज्ञा -- अनादर करते हैं। इसलिये मुझ परमात्माके निरादरकी भावनासे वे पामर जीव ( व्यर्थ ) मारे हुए पड़े हैं।

English Commentary By Swami Sivananda

9.11 अवजानन्ति disregard, माम् Me, मूढाः fools, मानुषीम् human, तनुम् form, आश्रितम् assumed, परम् higher, भावम् state or nature, अजानन्तः not knowing, मम My, भूतमहेश्वरम् the Great Lord of beings.

Commentary:
Fools only find fault with My pure nature, just as a man with jaundiced eyes finds all objects to be yellow. The man who is suffering from fever finds even milk as bitter as the essence of neem. Those who wish to behold Me by means of the physical eyes cannot know Me. If anyone takes the mirage for the Ganga, can he find any water thereFools who do not have discrimination and right understanding despise Me, dwelling in the human form. I have taken this body to bless My devotees. These fools have no knowledge of My higher Being. They do not know that I am the great Lord, the Supreme SElf, the luminous, omniscient, pure, ever free, immortal, wise, the Self of all. These fools take Me for an ordinary mortal and despise Me always. The wise know both My transcendental nature and the glory of My manifestation.I pervade, permeate and interpenetrate the universe. I am the support of this world, body, mind, lifeforce and the senses and yet there are some miserable fools, who say that I do not exist. There is thus not a place anywhere where I am not, and yet these people are not able to see Me. Look at the misfortune of these people. Pitiable is their lot (Cf.IV.6VII.24)

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।9.11।। सातवें अध्याय में ब्रह्म की परा और अपरा प्रकृति का वर्णन करते हुए भगवान् श्रीकृष्ण ने यह घोषित किया था कि मूढ़ लोग? मेरे अव्यय और परम भाव को नहीं जानते हैं और परमार्थत अव्यक्तस्वरूप मुझको व्यक्त मानते हैं।इस अध्याय में स्वयं को सबकी आत्मा बताते हुए श्रीकृष्ण पुन उसी कठोर शब्द मूढ़ का प्रयोग उन लोगों की निन्दा के लिए करते हैं? जो तत्त्व को छोड़कर केवल रूप को ही पकड़े रहते हैं। मेरे परम स्वरूप को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मुझे किसी देह विशेष में ही स्थित मानते हैं प्रतिमा को ही भगवान् मानना या गुरु के शरीर को ही अनन्त परमात्मा समझना उसी प्रकार की त्रुटि या विपरीत ज्ञान है? जैसे घट को ही उसमें निहित वस्तु मान लेना है। मूर्ति तो उस इन्द्रिय अगोचर सूक्ष्म सत्य का मात्र प्रतीक है। भूखे या प्यासे होने पर केवल दूध की बोतल से खेलने से ही ताजगी अनुभव नहीं होती वास्तव में भूखे होने पर थाली पर चम्मच बजाने से कोई सन्तोष नहीं मिलता। प्रतीक को ही ध्येय समझने का अर्थ है साधन को ही साध्य मानने की गलती करना। ऐसी विपरीत धारणायें धार्मिक कट्टरता एवं असहिष्णुता को जन्म देती हैं जो लोगों में शत्रुता और ईर्ष्या के बीज बोती हैं। इन बीजों से? समय आने पर? केवल विपत्ति और नाश की फसल ही प्राप्त होती है यह सब कुछ विभिन्न धर्मावलम्बियों के अपनेअपने पाषाण के देवता? काष्ठ के बने प्रतीक और पीपल के बने भगवान् के नाम पर होता है खादी का तिरंगा कपड़ा राष्ट्रध्वज हो सकता है? परन्तु वह स्वयं मेरी मातृभूमि नहीं है परन्तु जब ध्वजारोहण के समय मैं अपना शीश झुकाता हूँ तो राष्ट्र के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करता हूँ वह ध्वज मेरे राष्ट्र की संस्कृति एवं महत्वाकांक्षाओं का पवित्र प्रतीक है।इस सिद्धांत को ध्यान में रखकर इस श्लोक का अध्ययन करने पर वह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है। भगवान् कहते हैं कि साधारण भक्तजन मुझे भूतमात्र के महेश्वर के रूप में नहीं जानते हैं और मनुष्य शरीर धारण करने पर मेरा अनादर करते हैं।क्यों ये मूढ़ लोग आत्मा का सम्यक् परिचय प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं उत्तर में कहते हैं --

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।9.11।। मूर्खलोग मेरे सम्पूर्ण प्राणियोंके महान् ईश्वररूप परमभावको न जानते हुए मुझे मनुष्यशरीरके आश्रित मानकर अर्थात् साधारण मनुष्य मानकर मेरी अवज्ञा करते हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।9.11।। समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।।

English Translation By Swami Adidevananda

9.11 Fools disregard Me, dwelling in a human form, not knowing My higher nature, as the Supreme Lord of all beings.

English Translation By Swami Gambirananda

9.11 Not knowing My supreme nature as the Lord of all beings, foolish people disregard Me who have taken a human body.

English Translation By Swami Sivananda

9.11 Fools disregard Me, clad in human form, not knowing My higher Being as the great Lord of (all) beings.

English Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Swami Gambirananda

9.11 Ajanatah, not knowing; mama, My; param, supreme; bhavam, nature-My supreme Reality, which is like space, nay, which is subtler and more pervasive than space; as bhuta-maheswaram, the Lord of all beings, the great Lord of all beings who is their Self; mudhah, foolish people, the non-discriminating ones; avajananti, disregard, belittle; mam, Me, although I am by nature thus eternal, pure, intelligent, free and the Self of all beings; and asritam, who have taken; manusim tanum, a human body common to men, i.e৷৷. when I act with the help of a human body. As a result of that, as a result of continously disrespecting Me, those wretches get ruined. How?

English Translation of Abhinavgupta's Sanskrit Commentary By Dr. S. Sankaranarayan

9.11 Avajananti etc. I am reclining within all that is born Being the Self of all, I become the object of disrespect. For, [they raise the estion] : 'Apart from the fourteen types of creation, like man etc., no Lord is found; hence how can He exist ?'

English Translation of Ramanuja's Sanskrit Commentary By Swami Adidevananda

9.11 Because of their evil actions (Karmas), fools disregard Me - the great Lord of all beings, the Omniscient, whose resolves are true, who is the sole cause of the entire universe, and who has taken the human body out of great compassion so that I might become the refuge of all. They consider Me to be a man like themselves. The meaning is that they disregard Me, not knowing My higher nature which is an abode of compassion, generosity, condescension and parental solicitude. This nature of mine is the cause of My resorting to the human shape. But without understanding this, the ignorant consider Me as of the same nature as others, because I have assumed the human form.

English Translation By By Dr. S. Sankaranarayan

9.11. Being unaware of the immutable highest Absolute Supreme nature of Mine, the deluded ones disregard Me dwelling in the human body.

English Translation by Shri Purohit Swami

9.11 Fools disregard Me, seeing Me clad in human form. They know not that in My higher nature I am the Lord-God of all.