राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्।।9.2।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।9.2।। व्याख्या--'राजविद्या'--यह विज्ञानसहित ज्ञान सम्पूर्ण विद्याओंका राजा है; क्योंकि इसको ठीक तरहसे जान लेनेके बाद कुछ भी जानना बाकी नहीं रहता।भगवान्ने सातवें अध्यायके आरम्भमें कहा है कि 'मेरे समग्ररूपको जाननेके बाद जानना कुछ बाकी नहीं रहता।' पन्द्रहवें अध्यायके अन्तमें कहा है कि 'जो असम्मूढ़ पुरुष मेरेको क्षरसे अतीत और अक्षरसे उत्तम जानता है, वह सर्ववित् हो जाता है अर्थात् उसको जानना कुछ बाकी नहीं रहता', इससे ऐसा मालूम होता है कि भगवान्के सगुण-निर्गुण, साकार-निराकार, व्यक्त-अव्यक्त आदि जितने स्वरूप हैं, उन सब स्वरूपोंमें भगवान्के सगुण-साकार स्वरूपकी बहुत विशेष महिमा है।
'राजगुह्यम्'--संसारमें रहस्यकी जितनी गुप्त बाते हैं, उन सब बातोंका यह राजा है; क्योंकि संसारमें इससे बड़ी दूसरी कोई रहस्यकी बात है ही नहीं।
जैसे नाटकमें सबके सामने खेलता हुआ कोई पात्र अपना असली परिचय दे देता है, तो उसका परिचय देना विशेष गोपनीय बात है; क्योंकि वह नाटकमें जिस स्वाँगमें खेलता है, उसमें वह अपने असली रूपको छिपाये रखता है। ऐसे ही भगवान् जब मनुष्यरूपमें लीला करते हैं, तब अभक्त लोग उनको मनुष्य मानकर उनकी अवज्ञा करते हैं। इससे भगवान् उनके समाने अपने-आपको प्रकट नहीं करते (गीता 7। 25)। परन्तु जो भगवान्के ऐकान्तिक प्यारे भक्त होते हैं, उनके सामने भगवान् अपने-आपको प्रकट कर देते हैं -- यह अपने-आपको प्रकट कर देना ही अत्यन्त गोपनीय बात है।
'पवित्रमिदम्'--इस विद्याके समान पवित्र करनेवाली दूसरी कोई विद्या है ही नहीं अर्थात् यह विद्या पवित्रताकी आखिरी हद है। पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारी भी इस विद्यासे बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है अर्थात् पवित्र बन जाता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त कर लेता है (9। 31)।
दसवें अध्यायमें अर्जुनने भगवान्को परम पवित्र बताया -- 'पवित्रं परमं भवान्' (10। 12); चौथे अध्यायमें भगवान्ने ज्ञानको पवित्र बताया -- 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते' (4। 38) और यहाँ राजविद्या आदि आठ विशेषण देकर विज्ञानसहित ज्ञानको पवित्र बताते हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि पवित्र परमात्माका नाम, रूप, लीला, धाम, स्मरण, कीर्तन, जप, ध्यान, ज्ञान आदि सब पवित्र हैं अर्थात् भगवत्सम्बन्धी जो कुछ है, वह सब महान् पवित्र है और प्राणिमात्रको पवित्र करनेवाला है (टिप्पणी प0 485)।
'उत्तमम्' -- यह सर्वश्रेष्ठ है। इसके समकक्ष दूसरी कोई वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदि है ही नहीं। यह श्रेष्ठताकी आखिरी हद है, क्योंकि इस विद्यासे मेरा भक्त सर्वश्रेष्ठ हो जाता है। इतना श्रेष्ठ हो जाता है कि मैं भी उसकी आज्ञाका पालन करता हूँ।इस विज्ञानसहित ज्ञानको जानकर जो मनुष्य इसका अनुभव कर लेते हैं, उनके लिये भगवान् कहते हैं कि 'वे मेरेमें हैं और मैं उनमें हूँ' -- 'मयि ते तेषु चाप्यहम्' (9। 29) अर्थात् वे मेरेमें तल्लीन होकर मेरा स्वरूप ही बन जाते हैं।
'प्रत्यक्षावगमम्' -- इसका फल प्रत्यक्ष है। जो मनुष्य इस बातको जितना जानेगा, वह उतना ही अपनेमें विलक्षणताका अनुभव करेगा। इस बातको जानते ही परमगति प्राप्त हो जाय--यह इसका प्रत्यक्ष फल है।
'धर्म्यम्' -- यह धर्ममय है। परमात्माका लक्ष्य होनेपर निष्कामभावपूर्वक जितने भी कर्तव्य-कर्म किये जायँ, वे सब-के-सब इस धर्मके अन्तर्गत आ जाते हैं। अतः यह विज्ञानसहित ज्ञान सभी धर्मोंसे परिपूर्ण है।
दूसरे अध्यायमें भगवान्ने अर्जुनको कहा कि इस धर्ममय युद्धके सिवाय क्षत्रियके लिये दूसरा कोई श्रेयस्कर साधन नहीं है -- 'धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते' (2। 31)। इससे यही सिद्ध होता है कि अपने-अपने वर्ण, आश्रम आदिके अनुसार शास्त्रविहित जितने कर्तव्य-कर्म हैं, वे सभी धर्म्य हैं। इसके सिवाय भगवत्प्राप्तिके जितने साधन हैं और भक्तोंके जितने लक्षण हैं, उन सबका नाम भगवान्ने 'धर्म्यामृत' रखा है (गीता 12। 20) अर्थात् ये सभी भगवान्की प्राप्ति करानेवाले होनेसे धर्ममय हैं।
'अव्ययम्' -- इसमें कभी किञ्चिन्मात्र भी कमी नहीं आती, इसलिये यह अविनाशी है। भगवान्ने अपने भक्तके लिये भी कहा है कि मेरे भक्तका विनाश ( पतन ) नहीं होता' -- 'न मे भक्तः प्रणश्यति' (9। 31)।
'कर्तुं सुसुखम्' -- यह करनेमें बहुत सुगम है। पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चीजोंको भगवान्की मानकर भगवान्को ही देना कितना सुगम है (9। 26) ! चीजोंको अपनी मानकर भगवान्को देनेसे भगवान् उनको,अनन्त गुणा करके देते हैं और उनको भगवान्की ही मानकर भगवान्के अर्पण करनेसे भगवान् अपने-आपको ही दे देते हैं। इसमें क्या परिश्रम करना पड़ा? इसमें तो केवल अपनी भूल मिटानी है।मेरी प्राप्ति सुगम है, सरल है; क्योंकि मैं सब देशमें हूँ तो यहाँ भी हूँ, सब कालमें हूँ तो अभी भी हूँ। जो कुछ भी देखने, सुनने, समझनेमें आता है, उसमें मैं ही हूँ। जितने भी मनुष्य हैं, उनका मैं हूँ और वे मेरे हैं। परन्तु मेरी तरफ दृष्टि न रखकर प्रकृतिकी तरफ दृष्टि रखनेसे वे मुझे प्राप्त न होकर बारबार जन्मते-मरते रहते हैं। अगर वे थोड़ा-सा भी मेरी तरफ ध्यान दें तो उनको मेरी अलौकिकता, विलक्षणता दीखने लग जाती है तथा प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध नहीं है और भगवान्के साथ अपना घनिष्ठ सम्बन्ध है--इसका अनुभव हो जाता है।
सम्बन्ध--ऐसी सुगम और सर्वोपरि विद्याके होनेपर भी लोग उससे लाभ क्यों नहीं उठा रहे हैं? इसपर कहते हैं--,
।।9.2।।वह ज्ञान --, अतिशय प्रकाशयुक्त होनेके कारण समस्त विद्याओंका राजा है। ब्रह्मविद्या सब विद्याओंमें अतिशय देदीप्यमान है यह प्रसिद्ध ही है। तथा ( यह ज्ञान ) समस्त गुप्त रखनेयोग्य भावोंका भी राजा है। एवं यह बड़ा पवित्र और उत्तम भी है? अर्थात् सम्पूर्ण पवित्र करनेवालोंको पवित्र करनेवाला यह ब्रह्मज्ञान सबसे उत्कृष्ट है। जो अनेक सहस्र जन्मोंमें इकट्ठे हुए पुण्य पापादि कर्मोंको क्षणमात्रमें मूलसहित भस्म कर देता है उसकी पवित्रताका क्या कहना है साथ ही यह ज्ञान प्रत्यक्ष अनुभवमें आनेवाला है? अर्थात् सुख आदिकी भाँति जिसका प्रत्यक्ष अनुभव हो सके? ऐसा है। अनेक गुणोंसे युक्त वस्तुका भी धर्मसे विरोध देखा जाता है? परंतु आत्मज्ञान उनकी तरह धर्मविरोधी नहीं है बल्कि धर्म्य -- धर्ममय है अर्थात् धर्मसे युक्त है। ऐसा पदार्थ भी दुःसम्पाद्य ( प्राप्त करनेमें बड़ा कठिन ) हो सकता है। इसलिये कहते हैं कि वह ज्ञान रत्नोंके विवेकविज्ञानकी भाँति समझनेमें बड़ा सुगम है। परंतु संसारमें अल्प परिश्रमसे सुखपूर्वक सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका अल्प फल और कठिनतासे सम्पन्न होनेवाले कर्मोंका महान् फल देखा गया है? अतः यह ज्ञान भी सुगमतासे सम्पन्न होनेवाला होनेके कारण अपने फलका क्षय होनेपर क्षीण हो जायगा? ऐसी शङ्का प्राप्त होनेपर कहते हैं -- यह ज्ञान अव्यय है अर्थात् कर्मोंकी भाँति फलनाशके द्वारा इसका नाश नहीं होता। अतः यह आत्मज्ञान श्रद्धा करने योग्य है।
9.2 राजविद्या the king of sciences, राजगुह्यम् kingly secret, पवित्रम् purifier, इदम् this, उत्तमम् highest, प्रत्यक्षावगमम् realisable by direct, intuitional knowledge, धर्म्यम् according to righteousness, सुसुखम् very easy, कर्तुम् to perform, अव्ययम् imperishable.
Commentary:
In this verse Lord Krishna eulogies the knowledge of Brahman very highly in order to create a great interest in the spiritual aspirants for attaining It ickly.There is neither blind faith nor faithmongering in this royal science. The truth, the sovereign,secret (the Self or the Absolute) can be directly realised by intuition or immediate perception. The science of the Absolute is the most splendid of all sciences. It is the science of sciences. Of sciences the highest, of secrets the most profoun, of purifiers the supreme is this. The knowledge of Brahman is the best purifier. It reduces the roots of all Karmas and all the Karmas themselves which have been stored up in the course of many thousands of births, into ashes in the twinkling of an eye. It destroys Avidya along with its effects. An expiatory act (Prayaschitta) cannot destroy all sins. It removes the effect of a single sin, only to some extent. Even if it is removed the effect of that sin remains in a subtle state in the mind and forces him to do sinful acts in his next birth. But the knowledge of the Self destroys ickly all the sins in their gross and subtle states that are accumulated in the course of several thousands of births along with Avidya, their cause. That is the reason why it is a supreme purifier. The causal body of the Jiva is called MulaAvidya (rootignorance). The Avidya or the veil of ignorance that envelops the visible objects of this world is called Sthula Avidya or gross ignorance.The knowledge of the Self is not opposed to Dharma. It is the fruit of all actions done in many births without expectation of fruits. Further, the knowledge of the Absolute can very easily be attained. One may think that this knowledge will perish soon as it is easily obtained, when its effect is exhausted. It is not so. It is imperishable. It is everlasting. It shines for ever by its own Selfeffulgence. He who has tasted this nectar even once becomes immortal. Therefore the knowledge of the Absolute is certainly worth aciring. You will have to strive very hard to attain it anyhow in this birth, as it is very difficult to get a human birth. Strive hard every moment, for life is uncertain and the prize (final liberation) is great.
।।9.2।। धर्म शब्द का प्रचलित अर्थ यह है कि सप्ताह के किसी विशेष दिन? निर्धारित समय के लिए देवालय में जाकर व्रत पालन तथा पूजा करना आदि। इस दृष्टि से वेदान्त कोई धर्म नहीं है परन्तु आदर्श जीवन जीने की कला को धर्म समझने पर वेदान्त सर्वश्रेष्ठ धर्म है? क्योंकि उसमें आदर्श जीवन का वैज्ञानिक विश्लेषण एवं विवेचन किया गया है। राजविद्या? राजगुह्य? पवित्र और उत्तम कहकर भगवान् श्रीकृष्ण उसकी प्रशंसा करते हैं।कोई ज्ञान? राजविद्या और गुह्यतम तथा परम पवित्र होते हुए भी यदि अनुभव ग्राह्य नहीं है? तो उसका कोई उपयोग नहीं हो सकता। परन्तु इस ज्ञान में यह दोष नहीं है? क्योंकि यह प्रत्यक्षावगमम् अर्थात् इसका आत्मरूप में साक्षात् अनुभव किया जा सकता है।इसी प्रकार? यह ज्ञान र्धम्य अर्थात् धर्म के अनुकूल है? धर्मयुक्त है। धर्म शब्द का अर्थ अनेक स्थलों पर बताया जा चुका है। आत्मचैतन्य के अभाव में मनुष्य स्थूल और सूक्ष्मरूप जड़तत्त्वों का समूह मात्र है? जो स्वयं कोई भी कार्य करने में समर्थ नहीं है। यह चेतनतत्त्वआत्मा ही मनुष्य का वास्तविक धर्म है? स्वरूप है। भगवान् यहाँ जो ज्ञान प्रदान करने वाले हैं? वह न भौतिक विज्ञान है और न मनोविज्ञान किन्तु वह आत्मज्ञान अर्थात् मनुष्य के स्वस्वरूप का ज्ञान है।सुसुखं कर्तुम् धर्म कोई बाह्य जगत् में की जाने वाली क्रिया नहीं? वरन् आत्मिक उन्नति का मार्ग है? जिसका अनुसरण प्रत्येक व्यक्ति स्वयं ही करता है। यदि प्रस्तुत ज्ञान को प्राप्त करना अत्यन्त कठिन हो? तो उसमें किसी की प्रवृत्ति न होने से उसकी विद्यमानता व्यर्थ ही होगी। वैज्ञानिकों की इस घोषणा से कि मंगलग्रह पर सोने का अक्षय भण्डार वितरण के लिए उपलब्ध है? देश की दरिद्रता दूर नहीं होती भगवान् इस ज्ञान के कठिन होने के भय को साधक के मन से निवृत्त करने के लिए कहते हैं कि यह करने में अत्यन्त सरल है। लगनशील और योग्य विद्यार्थी के लिये चित्तशुद्धि और उसके द्वारा ज्ञान से लक्ष्यप्राप्ति करना अत्यन्त सरल कार्य है।करने में सरल होते हुए भी यदि इस ज्ञान का फल अनित्य और विनाशी हो? तो कोई भी बुद्धिमान पुरुष उसकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करेगा। किन्तु स्वयं भगवान् प्रमाणित करते हैं कि इस ज्ञान का फल अव्यय है आत्म साक्षात्कार का अर्थ है? स्वयं अनादिअनन्त आत्मा ही बन जाना? जो इस आभासिक दृश्यमान जगत् का एकमेव अद्वितीय अधिष्ठान है। इसलिए कहा गया है कि यह ज्ञान अव्यय है।ज्ञान के साधकों के विपरीत? जो लोग इस नित्य वस्तु के लिए प्रयत्न नहीं करते? उनके विषय में कहते हैं --
।।9.2।। यह सम्पूर्ण विद्याओंका और सम्पूर्ण गोपनीयोंका राजा है। यह अति पवित्र तथा अतिश्रेष्ठ है और इसका फल भी प्रत्यक्ष है। यह धर्ममय है, अविनाशी है और करनेमें बहुत सुगम है अर्थात् इसको प्राप्त करना बहुत सुगम है।
।।9.2।। यह ज्ञान राजविद्या (विद्याओं का राजा) और राजगुह्य (सब गुह्यों अर्थात् रहस्यों का राजा) एवं पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष ज्ञानवाला और धर्मयुक्त है, तथा करने में सरल और अव्यय है।।