कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि।।2.47।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.47।।तेरा कर्ममें ही अधिकार है ज्ञाननिष्ठामें नहीं। वहाँ ( कर्ममार्गमें ) कर्म करते हुए तेरा फलमें कभी अधिकार न हो अर्थात् तुझे किसी भी अवस्थामें कर्मफलकी इच्छा नहीं होनी चाहिये।
यदि कर्मफलमें तेरी तृष्णा होगी तो तू कर्मफलप्राप्तिका कारण होगा। अतः इस प्रकार कर्मफलप्राप्तिका कारण तू मत बन।
क्योंकि जब मनुष्य कर्मफलकी कामनासे प्रेरित होकर कर्ममें प्रवृत्त होता है तब वह कर्मफलरूप पुनर्जन्मका हेतु बन ही जाता है।
यदि कर्मफलकी इच्छा न करें तो दुःखरूप कर्म करनेकी क्या आवश्यकता है इस प्रकार कर्म न करनेमें भी तेरी आसक्तिप्रीति नहीं होनी चाहिये।
।।2.47।।
कर्मण्येव अधिकारः न ज्ञाननिष्ठायां ते तव। तत्र च कर्म कुर्वतः मा फलेषु अधिकारः अस्तु कर्मफलतृष्णा मा भूत् कदाचन कस्याञ्चिदप्यवस्थायामित्यर्थः। यदा कर्मफले तृष्णा ते स्यात् तदा कर्मफलप्राप्तेः हेतुः स्याः एवं मा कर्मफलहेतुः भूः। यदा हि कर्मफलतृष्णाप्रयुक्तः कर्मणि प्रवर्तते तदा कर्मफलस्यैव जन्मनो हेतुर्भवेत्। यदि कर्मफलं नेष्यते किं कर्मणा दुःखरूपेण इति मा ते तव सङ्गः अस्तु अकर्मणि अकरणे प्रीतिर्मा भूत्।।
यदि कर्मफलप्रयुक्तेन न कर्तव्यं कर्म कथं तर्हि कर्तव्यमिति उच्यते
।।2.47।। कर्तव्य-कर्म करनेमें ही तेरा अधिकार है, फलोंमें कभी नहीं। अतः तू कर्मफलका हेतु भी मत बन और तेरी अकर्मण्यतामें भी आसक्ति न हो।
।।2.47।। कर्म करने मात्र में तुम्हारा अधिकार है? फल में कभी नहीं। तुम कर्मफल के हेतु वाले मत होना और अकर्म में भी तुम्हारी आसक्ति न हो।।