श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन।

अध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम्।।10.32।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।10.32।।हे अर्जुन सृष्टियोंका आदि? अन्त और मध्य अर्थात् उत्पत्ति? स्थिति और प्रलय मैं हूँ। आरम्भमें तो भगवान्ने अपनेको केवल चेतनाधिष्ठित प्राणियोंका ही आदि? मध्य और अन्त बतलाया है? परन्तु यहाँ समस्त जगत्मात्रका आदि? मध्य और अन्त बतलाते हैं? यह विशेषता है। समस्त विद्याओंमें जो कि मोक्ष देनेवाली होनेके कारण प्रधान है? वह अध्यात्मविद्या मैं हूँ। शंकासमाधान करनेके समय बोले जानेवाले वाक्योंमें जो अर्थनिर्णयका हेतु होनेसे प्रधान है वह वाद नामक वाक्य मैं हूँ। यहाँ प्रवदताम् इस पदसे वक्ताद्वारा बोले जानेवाले वाद? जल्प और वितण्डा -- इन तीन प्रकारके वचनभेदोंका ही ग्रहण है ( बोलनेवालोंका नहीं )।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।10.32।। --,सर्गाणां सृष्टीनाम् आदिः अन्तश्च मध्यं चैव अहम् उत्पत्तिस्थितिलयाः अहम् अर्जुन। भूतानां जीवाधिष्ठितानामेव आदिः अन्तश्च इत्याद्युक्तम् उपक्रमे? इह तु सर्वस्यैव सर्गमात्रस्य इति विशेषः। अध्यात्मविद्या विद्यानां मोक्षार्थत्वात् प्रधानमस्मि। वादः अर्थनिर्णयहेतुत्वात् प्रवदतां प्रधानम्? अतः सः अहम् अस्मि। प्रवक्तृद्वारेण वदनभेदानामेव वादजल्पवितण्डानाम् इह ग्रहणं प्रवदताम् इति।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।10.32।। हे अर्जुन ! सम्पूर्ण सर्गोंके आदि, मध्य तथा अन्तमें मैं ही हूँ। विद्याओंमें अध्यात्मविद्या और परस्पर शास्त्रार्थ करनेवालोंका(तत्त्व-निर्णयके लिये किया जानेवाला) वाद मैं हूँ।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।10.32।। हे अर्जुन ! सृष्टियों का आदि, अन्त और मध्य भी मैं ही हूँ, मैं विद्याओं में अध्यात्मविद्या और विवाद करने वालों में (अर्थात् विवाद के प्रकारों में) मैं वाद हूँ।।