अथवा बहुनैतेन किं ज्ञातेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।10.42।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।10.42।।अथवा हे अर्जुन इस उपर्युक्त प्रकारसे वर्णन किये हुए अधूरे विभूतिविस्तारके जाननेसे तेरा क्या ( प्रयोजन सिद्ध ) होगा? ( तू तो बस? ) यह सम्पूर्णतासे कहा जानेवाला अभिप्राय ही सुन ले -- मैं एक अंशसे अर्थात् सर्व भूतोंका आत्मरूप जो मेरा एक अवयव है उससे? इस सारे जगत्को विशेष रूपसे दृढ़तापूर्वक धारण करके स्थित हो रहा हूँ। ऐसा ही वेदमन्त्र भी कहते हैं कि समस्त भूत इस परमेश्वरका एक पाद है। इत्यादि।
।।10.42।। --,अथवा बहुना एतेन एवमादिना किं ज्ञातेन तव अर्जुन स्यात् सावशेषेण। अशेषतः त्वम् उच्यमानम् अर्थं श्रृणु -- विष्टभ्य विशेषतः स्तम्भनं दृढं कृत्वा इदं कृत्स्नं जगत् एकांशेन एकावयवेन एकपादेन? सर्वभूतस्वरूपेण इत्येतत् तथा च मन्त्रवर्णः -- पादोऽस्य विश्वा भूतानि (तै0 आर0 3।12) इति स्थितः अहम् इति।।इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य,श्रीमच्छंकरभगवतः कृतौ श्रीमद्भगवद्गीताभाष्ये
दशमोऽध्यायः।।,
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! तुम्हें इस प्रकार बहुत-सी बातें जाननेकी क्या आवश्यकता है? मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके स्थित हूँ।
।।10.42।। अथवा हे अर्जुन ! बहुत जानने से तुम्हारा क्या प्रयोजन है? मैं इस सम्पूर्ण जगत् को अपने एक अंश मात्र से धारण करके स्थित हूँ।।