श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

मय्यावेश्य मनो ये मां नित्ययुक्ता उपासते।

श्रद्धया परयोपेतास्ते मे युक्ततमा मताः।।12.2।।

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।12.2।।श्रीभगवान् बोले -- जो कामनाओंसे रहित पूर्णज्ञानी अक्षरब्रह्मके उपासक हैं उनको अभी रहने दो? उनके प्रति जो कुछ कहना है वह आगे कहेंगे? परंतु जो दूसरे हैं -- जो भक्त मुझ विश्वरूप परमेश्वरमें मनको समाधिस्थ करके सर्व योगेश्वरोंके अधीश्वर रागादि पञ्चक्लेशरूप अज्ञानदृष्टिसे रहित मुझ सर्वज्ञ परमेश्वरकी पिछले ( एकादश ) अध्यायके अन्तिम श्लोकके अर्थानुसार निरन्तर तत्पर हुए उत्तम श्रद्धासे युक्त होकर उपासना करते हैं? वे श्रेष्ठतम योगी हैं? यह मैं मानता हूँ। क्योंकि वे लगातार मुझमें ही चित्त लगाकर रातदिन व्यतीत करते हैं? अतः उनको युक्ततम कहना उचित ही है।

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Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।12.2।। --,मयि विश्वरूपे परमेश्वरे आवेश्य समाधाय मनः? ये भक्ताः सन्तः? मां सर्वयोगेश्वराणाम् अधीश्वरं सर्वज्ञं विमुक्तरागादिक्लेशतिमिरदृष्टिम्? नित्ययुक्ताः अतीतानन्तराध्यायान्तोक्तश्लोकार्थन्यायेन सततयुक्ताः सन्तः उपासते श्रद्धया परया प्रकृष्टया उपेताः? ते मे मम मताः अभिप्रेताः युक्ततमाः इति। नैरन्तर्येण हि ते मच्चित्ततया अहोरात्रम् अतिवाहयन्ति। अतः युक्तं तान् प्रति युक्ततमाः इति वक्तुम्।।किमितरे युक्ततमाः न भवन्ति न किंतु तान् प्रति यत् वक्तव्यम्? तत् श्रृणु --,

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।12.2।।मेरेमें मनको लगाकर नित्य-निरन्तर मेरेमें लगे हुए जो भक्त परम श्रद्धासे युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे मेरे मतमें सर्वश्रेष्ठ योगी हैं।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।12.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- मुझमें मन को एकाग्र करके नित्ययुक्त हुए जो भक्तजन परम श्रद्धा से युक्त होकर मेरी उपासना करते हैं, वे, मेरे मत से, युक्ततम हैं अर्थात् श्रेष्ठ हैं।।