श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः।।18.2।।

 



Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।18.2।।पहले अध्यायोंमें जिनका जगहजगह निर्देश किया गया है? वे संन्यास और त्याग -- दोनों शब्द स्पष्टार्थयुक्त नहीं हैं? इसलिये ( उनका स्पष्ट अर्थ जाननेकी इच्छासे ) पूछनेवाले अर्जुनको उनका निर्णय सुनानेके लिये श्रीभगवान् बोले --, कितने ही बुद्धिमान -- पण्डित लोग? अश्वमेधादि सकाम कर्मोंके त्यागको संन्यास समझते हैं अर्थात् कर्तव्यरूपसे प्राप्त ( शास्त्रविहित ) सकाम कर्मोंके न करनेको संन्यास शब्दका अर्थ समझते हैं। कुछ विचक्षण पण्डितजन अनुष्ठान किये जानेवाले नित्यनैमित्तिक सम्पूर्ण कर्मोंके? अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले फलका परित्याग करनारूप जो सर्वकर्मफलत्याग है? उसे ही त्याग कहते हैं? अर्थात् त्याग शब्दका वे ऐसा अभिप्राय बतलाते हैं। कहनेका अभिप्राय? चाहे काम्य कर्मोंका ( स्वरूपसे ) त्याग करना हो और चाहे समस्त कर्मोंका फल छोड़ना ही हो? सभी प्रकारसे संन्यास और त्याग इन दोनों शब्दोंका अर्थ तो? एकमात्र त्याग ही है। ये दोनों शब्द घड़ा और वस्त्र आदि शब्दोंकी भाँति भिन्न जातीय अर्थके बोधक नहीं हैं। पू0 -- जब ऐसा कहा जाता है? कि नित्य और नैमित्तिक कर्मोंका तो फल ही नहीं होता? फिर यहां वन्ध्याके पुत्रत्यागकी भाँति? उनके फलका त्याग करनेके लिये कैसे कहा जाता है उ0 -- नित्यकर्मोंका भी फल होता है -- यह बात भगवान्को इष्ट है? इसलिये यह दोष नहीं है। क्योंकि भगवान् स्वयं कहेंगे कि मरनेके बाद कर्मोंका अच्छाबुरा और मिला हुआ फल असंन्यासियोंको होता है?,संन्यासियोंको नहीं इस प्रकार वहाँ केवल संन्यासियोंके लिये कर्मफलकी अभाव दिखाकर? असंन्यासियोंके लिये कर्मफलकी प्राप्ति अवश्यम्भावी दिखलायेंगे।



Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।18.2।। --,काम्यानाम् अश्वमेधादीनां कर्मणां न्यासं संन्यासशब्दार्थम्? अनुष्ठेयत्वेन प्राप्तस्य अनुष्ठानम्? कवयः पण्डिताः केचित् विदुः विजानन्ति। नित्यनैमित्तिकानाम् अनुष्ठीयमानानां सर्वकर्मणाम् आत्मसंबन्धितया प्राप्तस्य फलस्य परित्यागः सर्वकर्मफलत्यागः तं प्राहुः कथयन्ति त्यागं त्यागशब्दार्थं विचक्षणाः पण्डिताः। यदि काम्यकर्मपरित्यागः फलपरित्यागो वा अर्थः वक्तव्यः? सर्वथा परित्यागमात्रं संन्यासत्यागशब्दयोः एकः अर्थः स्यात्? न घटपटशब्दाविव जात्यन्तरभूतार्थौ।।

ननु नित्यनैमित्तिकानां कर्मणां फलमेव नास्ति इति आहुः। कथम् उच्यते तेषां फलत्यागः? यथा वन्ध्यायाः पुत्रत्यागः नैष दोषः? नित्यानामपि कर्मणां भगवता फलवत्त्वस्य इष्टत्वात्। वक्ष्यति हि भगवान् अनिष्टमिष्टं मिश्रं च (गीता 18।12) इति न तु संन्यासिनाम् (गीता 18।12) इति च। संन्यासिनामेव हि केवलं कर्मफलासंबन्धं दर्शयन् असंन्यासिनां नित्यकर्मफलप्राप्तिम् भवत्यत्यागिनां प्रेत्य (गीता 18।12) इति दर्शयति।।



Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।18.2।।श्रीभगवान् बोले -- कई विद्वान् काम्यकर्मोंके त्यागको संन्यास कहते हैं और कई विद्वान् सम्पूर्ण कर्मोंके फलके त्यागको त्याग कहते हैं। कई विद्वान् कहते हैं कि कर्मोंको दोषकी तरह छोड़ देना चाहिये और कई विद्वान् कहते हैं कि यज्ञ? दान और तपरूप कर्मोंका त्याग नहीं करना चाहिये।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।18.2।। श्रीभगवान् ने कहा -- (कुछ) कवि (पण्डित) जन काम्य कर्मों के त्याग को "संन्यास" समझते हैं और विचारशील जन समस्त कर्मों के फलों के त्याग को "त्याग" कहते हैं।।