य इमं परमं गुह्यं मद्भक्तेष्वभिधास्यति।
भक्ितं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशयः।।18.68।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.68।।अब इस शास्त्रपरम्पराको चलानेवालोंके लिये फल बतलाते हैं --, जो मनुष्य? परम कल्याण जिसका फल है ऐसे इस उपर्युक्त कृष्णार्जुनसंवादरूप अत्यन्त गोप्य गीताग्रन्थको मुझमें भक्ति रखनेवाले भक्तोंमें सुनावेगा -- ग्रन्थरूपसे या अर्थरूपसे स्थापित करेगा? अर्थात् जैसे मैंने तुझे सुनाया है वैसे ही सुनावेगा -- यहाँ भक्तिका पुनः ग्रहण होनेसे यह पाया जाता है कि मनुष्य केवल भगवान्की भक्तिसे ही शास्त्र प्रदानका पात्र हो जाता है। कैसे सुनावेगा सो बतलाते हैं। मुझमें पराभक्ति करके? अर्थात् परमगुरु भगवान्की मैं यह सेवा करता हूँ ऐसा समझकर? ( जो इसे सुनावेगा ) उसका यह फल है कि वह मुझे ही प्राप्त हो जायगा अर्थात् निःसंदेह मुक्त हो जायगा -- इसमें संशय नहीं,करना चाहिये।
।।18.68।। --,यः इमं यथोक्तं परमं परमनिःश्रेयसार्थं केशवार्जुनयोः संवादरूपं ग्रन्थं गुह्यं गोप्यतमं मद्भक्तेषु मयि भक्ितमत्सु अभिधास्यति वक्ष्यति? ग्रन्थतः अर्थतश्च स्थापयिष्यतीत्यर्थः? यथा त्वयि मया। भक्तेः पुनर्ग्रहणात् भक्ितमात्रेण केवलेन शास्त्रसंप्रदाने पात्रं भवतीति गम्यते। कथम् अभिधास्यति इति? उच्यते -- भक्तिं मयि परां कृत्वा भगवतः परमगुरोः अच्युतस्य शुश्रूषा मया क्रियते इत्येवं कृत्वेत्यर्थः। तस्य इदं फलम् -- मामेव एष्यति मुच्यते एव। असंशयः अत्र संशयः न कर्तव्यः।।किं च --,
।।18.68।।मेरेमें पराभक्ति करके जो इस परम गोपनीय संवाद-(गीता-ग्रन्थ) को मेरे भक्तोंमें कहेगा, वह मुझे ही प्राप्त होगा -- इसमें कोई सन्देह नहीं है।
।।18.68।। जो पुरुष मुझसे परम प्रेम (परा भक्ति) करके इस परम गुह्य ज्ञान का उपदेश मेरे भक्तों को देता है, वह नि:सन्देह मुझे ही प्राप्त होता है।।