अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयोः।
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्टः स्यामिति मे मतिः।।18.70।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.70।।जो भी कोई --, जो मनुष्य? हम दोनोंके संवादरूप इस धर्मयुक्त गीताग्रन्थको पढ़ेगा? उसके द्वारा यह होगा कि मैं ज्ञानयज्ञसे ( पूजित होऊँगा )? विधियज्ञ? जपयज्ञ? उपांशुयज्ञ और मानसयज्ञ -- इन चार यज्ञोंमें ज्ञानयज्ञ मानस है इसलिये श्रेष्ठतम है। अतः उस ज्ञानयज्ञकी समानतासे गीताशास्त्रके अध्ययनकी स्तुति करते हैं। अथवा यों समझो कि यह फलविधि है यानी इसका फल देवतादिविषयक ज्ञानयज्ञके समान होता है। उस अध्ययनसे मैं ( ज्ञानयज्ञद्वारा ) पूजित होता हूँ? ऐसा मेरा निश्चय है।
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।।18.70।। --,अध्येष्यते च पठिष्यति यः इमं धर्म्यं धर्मादनपेतं संवादरूपं ग्रन्थं आवयोः? तेन इदं कृतं स्यात्। ज्ञानयज्ञेन -- विधिजपोपांशुमानसानां यज्ञानां ज्ञानयज्ञः मानसत्वात् विशिष्टतमः इत्यतः तेन ज्ञानयज्ञेन गीताशास्त्रस्य अध्ययनं स्तूयते फलविधिरेव वा? देवतादिविषयज्ञानयज्ञफलतुल्यम् अस्य फलं भवतीति -- तेन अध्ययनेन अहम् इष्टः पूजितः स्यां भवेयम् इति मे मम मतिः निश्चयः।।अथ श्रोतुः इदं फलम् --,
।।18.70।।जो मनुष्य हम दोनोंके इस धर्ममय संवादका अध्ययन करेगा, उसके द्वारा भी मैं ज्ञानयज्ञसे पूजित होऊँगा -- ऐसा मेरा मत है।
।।18.70।। जो पुरुष, हम दोनों के इस धर्ममय संवाद का पठन करेगा, उसके द्वारा मैं ज्ञानयज्ञ से पूजित होऊँगा - ऐसा मेरा मत है।।