श्रद्धावाननसूयश्च श्रृणुयादपि यो नरः।
सोऽपि मुक्तः शुभाँल्लोकान्प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।।18.71।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।18.71।।तथा श्रोताको यह ( आगे बतलाया जानेवाला ) फल मिलता है --, जो मनुष्य? इस ग्रन्थको श्रद्धायुक्त और दोषदृष्टिरहित होकर केवल सुनता ही है? वह भी पापोंसे मुक्त होकर? पुण्यकारियोंके अर्थात् अग्निहोत्रादि श्रेष्ठकर्म करनेवालोंके? शुभ लोकोंको प्राप्त हो जाता है। अपिशब्दसे यह पाया जाता है कि अर्थ समझनेवालेकी तो बात ही क्या है। शिष्यने शास्त्रका अभिप्राय ग्रहण किया या नहीं यह विवेचन करनेके लिये भगवान् पूछते हैं। इसमें पूछनेवालेका यह अभिप्राय है कि शास्त्रका अभिप्राय श्रोताने ग्रहण नहीं किया है -- यह मालूम होनेपर? फिर किसी और उपायसे ग्रहण कराऊँगा।
।।18.71।। --,श्रद्धावान् श्रद्दधानः अनसूयश्च असूयावर्जितः सन् इमं ग्रन्थं श्रृणुयादपि यो नरः? अपिशब्दात् किमुत अर्थज्ञानवान्? सोऽपि पापात् मुक्तः शुभान् प्रशस्तान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्यकर्मणाम् अग्निहोत्रादिकर्मवताम्।।शिष्यस्य शास्त्रार्थग्रहणाग्रहणविवेकबुभुत्सया पृच्छति। तदग्रहणे ज्ञाते पुनः ग्राहयिष्यामि उपायान्तरेणापि इति प्रष्टुः अभिप्रायः। यत्नान्तरं च आस्थाय शिष्यस्य कृतार्थता कर्तव्या इति आचार्यधर्मः प्रदर्शितो भवति --,
।।18.71।।श्रद्धावान् और दोषदृष्टिसे रहित जो मनुष्य इस गीता-ग्रन्थको सुन भी लेगा, वह भी सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त होकर पुण्यकारियोंके शुभ लोकोंको प्राप्त हो जायगा।
।।18.71।। तथा जो श्रद्धावान् और अनसुयु (दोषदृष्टि रहित) पुरुष इसका श्रवणमात्र भी करेगा, वह भी (पापों से) मुक्त होकर पुण्यकर्मियों के शुभ (श्रेष्ठ) लोकों को प्राप्त कर लेगा।।