भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम्।
व्यवसायात्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते।।2.44।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।2.44।।जो भोग और ऐश्वर्यमें आसक्त हैं अर्थात् भोग और ऐश्वर्य ही पुरषार्थ है ऐसे मानकर उनमें ही जिनका प्रेम हो गया है इस प्रकार जो तद्रूप हो रहे हैं तथा क्रियाभेदोंको विस्तारपूर्वक बतलानेवाली उस उपर्युक्त वाणीद्वारा जिनका चित्त हर लिया गया है अर्थात् ( जिनकी ) विवेकबुद्धि आच्छादित हो रही है उनकी समाधिमें सांख्यविषयक या योगविषयक निश्चयात्मिका बुद्धि ( नहीं ठहरती )। पुरुषके भोगके लिये जिसमें सब कुछ स्थापित किया जाता है उसका नाम समाधि है। इस व्युत्पत्तिके अनुसार समाधि अन्तःकरणका नाम है उसमें बुद्धि नहीं ठहरती अर्थात् उत्पन्न ही नहीं होती।
।।2.44।।
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां भोगः कर्तव्यः ऐश्वर्यं च इति भोगैश्वर्ययोरेव प्रणयवतां तदात्मभूतानाम्। तया क्रियाविशेषबहुलया वाचा अपहृतचेतसाम् आच्छादितविवेकप्रज्ञानां व्यवसायात्मिका सांख्ये योगे वा बुद्धिः समाधौ समाधीयते अस्मिन् पुरुषोपभोगाय सर्वमिति समाधिः अन्तःकरणं बुद्धिः तस्मिन् समाधौ न विधीयते न भवति इत्यर्थः।।
ये एवं विवेकबुद्धिरहिताः तेषां कामात्मनां यत् फलं तदाह
।।2.44।। उस पुष्पित वाणीसे जिसका अन्तःकरण हर लिया गया है अर्थात् भोगोंकी तरफ खिंच गया है और जो भोग तथा ऐश्वर्यमें अत्यन्त आसक्त हैं, उन मनुष्योंकी परमात्मामें निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती।
।।2.44।।उससे जिनका चित्त हर लिया गया है ऐसे भोग और एश्र्वर्य मॆ आसक्ति रखने वाले पुरुषों के अन्तकरण मे निश्चयात्मक् बुद्धि नही हॊती अर्थात वे ध्यान का अभ्यास करने योग्य नही होते।