श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः।

इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः।।2.60।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.60।।यथार्थ ज्ञानरूप बुद्धिकी स्थिरता चाहनेवाले पुरुषोंको पहले इन्द्रियोंको अपने वशमें कर लेना चाहिये क्योंकि उनको वशमें न करनेसे दोष बतलाते हैं

हे कौन्तेय जिससे की प्रयत्न करनेवाले विचारशील बुद्धिमान् पुरुषकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उस विषयाभिमुख हुए पुरुषको क्षुब्ध कर देती हैं व्याकुल कर देती हैं और व्याकुल करके ( उस ) केवल प्रकाशको ही देखनेवाले विद्वान्के विवेकविज्ञानयुक्त मनको ( भी ) बलात्कारसे विचलित कर देती हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.60।।

 यततः  प्रयत्नं कुर्वतः  अपि हि  यस्मात्  कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः  मेधाविनः अपि इति व्यवहितेन संबन्धः।  इन्द्रियाणि प्रमाथीनि  प्रमथनशीलानि विषयाभिमुखं हि पुरुषं विक्षोभयन्ति आकुलीकुर्वन्ति आकुलीकृत्य च  हरन्ति प्रसभं  प्रसह्य प्रकाशमेव पश्यतो विवेकविज्ञानयुक्तं  मनः ।।
यतः तस्मात्

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.60।। हे कुन्तीनन्दन! (रसबुद्धि रहनेसे) यत्न करते हुए विद्वान् मनुष्यकी भी प्रमथनशील इन्द्रियाँ उसके मनको बलपूर्वक हर लेती हैं।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.60।। हे कौन्तेय (संयम का) प्रयत्न करते हुए बुद्धिमान (विपश्चित) पुरुष के भी मन को ये इन्द्रियां बलपूर्वक हर लेती हैं।।