श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते।

प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते।।2.65।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.65।।प्रसन्नता होनेसे क्या होता है सो कहते हैं

प्रसन्नता प्राप्त होनेपर इस यतिके आध्यात्मिकादि तीनों प्रकारके समस्त दुःखोंका नाश हो जाता है।
क्योंकि ( उस ) प्रसन्नचित्तवालेकी अर्थात् स्वस्थ अन्तःकरणवाले पुरुषकी बुद्धि शीघ्र ही सब ओरसे आकाशकी भाँति स्थिर हो जाती है केवल आत्मरूपसे निश्चल हो जाती है।
इस वाक्यका अभिप्राय यह है कि इस प्रकार प्रसन्नचित्त और स्थिरबुद्धिवाले पुरुषको कृतकृत्यता मिलती है

इसलिये साधक पुरुषको चाहिये कि रागद्वेषसे रहित की हुई इन्द्रियोंद्वारा शास्त्रके अविरोधी अनिवार्य विषयोंका सेवन करे।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.65।।

 प्रसादे सर्वदुःखानाम्  आध्यात्मिकादीनां  हानिः  विनाशः  अस्य  यतेः  उपजायते । किञ्च  प्रसन्नचेतसः  स्वस्थान्तःकरणस्य  हि  यस्मात्  आशु  शीघ्रं  बुद्धिः पर्यवतिष्ठते  आकाशमिव परि समन्तात् अवतिष्ठते आत्मस्वरूपेणैव निश्चलीभवतीत्यर्थः।।
एवं प्रसन्नचेतसः अवस्थितबुद्धेः कृतकृत्यता यतः तस्मात् रागद्वेषवियुक्तैः इन्द्रियैः शास्त्राविरुद्धेषु अवर्जनीयेषु युक्तः समाचरेत् इति वाक्यार्थः।।
सेयं प्रसन्नता स्तूयते

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.64 -- 2.65।। वशीभूत अन्तःकरणवाला कर्मयोगी साधक रागद्वेषसे रहित अपने वशमें की हुई इन्द्रियोंके द्वारा विषयोंका सेवन करता हुआ अन्तःकरणकी निर्मलता को प्राप्त हो जाता है। निर्मलता प्राप्त होनेपर साधकके सम्पूर्ण दुःखोंका नाश हो जाता है और ऐसे शुद्ध चित्तवाले साधककी बुद्धि निःसन्देह बहुत जल्दी परमात्मामें स्थिर हो जाती है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.65।। प्रसाद के होने पर सम्पूर्ण दुखों का अन्त हो जाता है और प्रसन्नचित्त पुरुष की बुद्धि ही शीघ्र ही स्थिर हो जाती है।।