श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः।

लोकसंग्रहमेवापि संपश्यन्कर्तुमर्हसि।।3.20।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.20।।एक और भी कारण है क्योंकि पहले जनकअश्वपति प्रभृति विद्वान् क्षत्रिय लोग कर्मोंद्वारा ही मोक्षप्राप्तिके लिये प्रवृत्त हुए थे। यहाँ इस श्लोककी व्याख्या इस प्रकार करनी चाहिये कि यदि वे जनकादि यथार्थ ज्ञानको प्राप्त हो चुके थे तब तो वे प्रारब्धकर्मा होनेके कारण लोकसंग्रहके लिये कर्म करते हुए ही अर्थात् संन्यास ग्रहण किये बिना ही परम सिद्धिको प्राप्त हुए और यदि वे जनकादि यथार्थ ज्ञानको प्राप्त नहीं थे तो वे अन्तःकरणकी शुद्धिके साधनरूप कर्मोंसे क्रमशः परम सिद्धिको प्राप्त हुए। यदि तू यह मानता हो कि आत्मतत्त्वको न जाननेवाले जनकादि पूर्वजोंद्वारा कर्तव्यकर्म किये गये हैं इससे यह नहीं हो सकता कि दूसरे आत्मज्ञानी कृतार्थ पुरुषोंको भी कर्म अवश्य करने चाहिये। तो भी तू प्रारब्धकर्मके अधीन है इसलिये तुझे लोकसंग्रहकी तरफ देखकर भी अर्थात् लोगोंकी उलटे मार्गमें जानेवाली प्रवृत्तिको निवारण करनारूप जो लोकसंग्रह है उस लोकसंग्रहरूप प्रयोजनको देखते हुए भी कर्म करना चाहिये।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.20।। कर्मणैव हि यस्मात् पूर्वे क्षत्रियाः विद्वांसः संसिद्धिं मोक्षं गन्तुम् आस्थिताः प्रवृत्ताः। के जनकादयः जनकाश्वपतिप्रभृतयः। यदि ते प्राप्तसम्यग्दर्शनाः ततः लोकसंग्रहार्थं प्रारब्धकर्मत्वात् कर्मणा सहैव असंन्यस्यैव कर्म संसिद्धिमास्थिता इत्यर्थः। अथ अप्राप्तसम्यग्दर्शनाः जनकादयः तदा कर्मणा सत्त्वशुद्धिसाधनभूतेन क्रमेण संसिद्धिमास्थिता इति व्याख्येयः श्लोकः। अथ मन्यसे पूर्वैरपि जनकादिभिः अजानद्भिरेव कर्तव्यं कर्म कृतम् तावता नावश्यमन्येन कर्तव्यं सम्यग्दर्शनवता कृतार्थेनेति तथापि प्रारब्धकर्मायत्तः त्वं लोकसंग्रहम् एव अपि लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणं लोकसंग्रहः तमेवापि प्रयोजनं संपश्यन् कर्तुम् अर्हसि।।लोकसंग्रहः किमर्थं कर्तव्य इत्युच्यते

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.20।। राजा जनक-जैसे अनेक महापुरुष भी कर्मके द्वारा ही परमसिद्धिको प्राप्त हुए हैं। इसलिये लोकसंग्रहको देखते हुए भी तू (निष्कामभावसे) कर्म करनेके योग्य है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.20।। जनकादि (ज्ञानी जन) भी कर्म द्वारा ही संसिद्धि को प्राप्त हुये लोक संग्रह (लोक रक्षण) को भी देखते हुये;  तुम कर्म करने योग्य हो।।