श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।3.22।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।3.22।।यदि इस लोकसंग्रहकी कर्तव्यतामें तुझे कुछ शंका हो तो तू मुझे क्यों नहीं देखता हे पार्थ तीनों लोकोंमें मेरा कुछ भी कर्तव्य नहीं है अर्थात् मुझे कुछ भी करना नहीं है क्योंकि मुझे कोई भी अप्राप्त वस्तु प्राप्त नहीं करनी है तो भी मैं कर्मोंमें बर्तता ही हूँ।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।3.22।। न मे मम पार्थअस्ति न विद्यते कर्तव्यं त्रिषु अपि लोकेषु किञ्चन किञ्चिदपि। कस्मात् न अनवाप्तम् अप्राप्तम् अवाप्तव्यं प्रापणीयम् तथापि वर्ते एव च कर्मणि अहम्।।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।3.22।। हे पार्थ! मुझे तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, फिर भी मैं कर्तव्यकर्ममें ही लगा रहता हूँ।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।3.22।। यद्यपि मुझे त्रैलोक्य में कुछ भी कर्तव्य नहीं हैं तथा किंचित भी प्राप्त होने योग्य (अवाप्तव्यम्) वस्तु अप्राप्त नहीं है, तो भी मैं कर्म में ही बर्तता हूँ।।