श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः।

स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः।।6.1।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।6.1।।इसी भावसे वह संन्यासी और योगी है इस प्रकार उसकी स्तुति की जाती है भगवान् श्रीकृष्ण बोले जिसने आश्रय नहीं लिया हो वह अनाश्रित है किसका कर्मफलका अर्थात् जो कर्मोंके फलका आश्रय न लेनेवाला कर्मफलकी तृष्णासे रहित है। क्योंकि जो कर्मफलकी तृष्णावाला होता है वही कर्मफलका आश्रय लेता है यह उससे विपरीत है इसलिये कर्मफलका आश्रय न लेनेवाला है। ऐसा ( कर्मफलके आश्रयसे रहित ) होकर जो पुरुष कर्तव्यकर्मोंको अर्थात् काम्यकर्मोंसे विपरीत नित्य अग्निहोत्रादि कर्मोंको पूरा करता है ऐसा जो कोई कर्मी है वह दूसरे कर्मियोंकी अपेक्षा श्रेष्ठ है इसी अभिप्रायसे यह कहा है कि वह संन्यासी भी है और योगी भी है। संन्यास नाम त्यागका है वह जिसमें हो वही संन्यासी है और चित्तके समाधानका नाम योग है वह जिसमें हो वही योगी है अतः वह कर्मयोगी भी इन गुणोंसे सम्पन्न माना जाना चाहिये। केवल अग्निरहित और क्रियारहित पुरुष ही संन्यासी और योगी है ऐसा नहीं मानना चाहिये। कर्मोंके अङ्गभूत गार्हपत्यादि अग्नि जिससे छूट गये हैं वह निरग्नि है और बिना अग्निके होनेवाली तपदानादि क्रिया भी जो नहीं करता वह अक्रिय है। पू0 जब कि निरग्नि और अक्रिय पुरुषके लिये ही श्रुति स्मृति और योगशास्त्रोंमें संन्यासित्व और योगित्व प्रसिद्ध है तब यहाँ अग्नियुक्त और क्रियायुक्त पुरुषके लिये अप्रसिद्ध संन्यासित्व और योगित्वका प्रतिपादन कैसे किया जाता है उ0 यह दोष नहीं है क्योंकि किसी एक गुणवृत्तिसे ( किसी एक गुणविशेषको लेकर ) संन्यासित्व और योगित्व इन दोनों भावोंको उसमें ( गृहस्थमें ) सम्पादन करना भगवान्को इष्ट है। पू0 वह कैसे उ0 कर्मफलके संकल्पोंका त्याग होनेसे संन्यासित्व है और योगके अङ्गरूपसे कर्मोंका अनुष्ठान होनेसे या चित्तविक्षेपके कारणरूप कर्मफलके संकल्पोंका परित्याग होनेसे योगित्व है इस प्रकार दोनों भाव ही गौणरूपसे माने गये हैं।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।6.1।। अनाश्रितः न आश्रितः अनाश्रितः। किम् कर्मफलं कर्मणां फलं कर्मफलं यत् तदनाश्रितः कर्मफलतृष्णारहित इत्यर्थः। यो हि कर्मफले तृष्णावान् सः कर्मफलमाश्रितो भवति अयं तु तद्विपरीतः अतः अनाश्रितः कर्मफलम्। एवंभूतः सन् कार्यं कर्तव्यंनित्यं काम्यविपरीतम् अग्निहोत्रादिकं कर्म करोति निर्वर्तयति यः कश्चित् ईदृशः कर्मी स कर्म्यन्तरेभ्यो विशिष्यते इत्येवमर्थमाह स संन्यासी च योगी च इति। संन्यासः परित्यागः स यस्यास्ति स संन्यासी च योगी च योगः चित्तसमाधानं स यस्यास्ति स योगी च इति एवंगुणसंपन्नः अयं मन्तव्यः न केवलं निरग्निः अक्रिय एव संन्यासी योगी च इति मन्तव्यः। निर्गताः अग्नयः कर्माङ्गभूताः यस्मात् स निरग्निः अक्रियश्च अनग्निसाधना अपि अविद्यमानाः क्रियाः तपोदानादिकाः यस्य असौ अक्रियः।।ननु च निरग्नेः अक्रियस्यैव श्रुतिस्मृतियोगशास्त्रेषु संन्यासित्वं योगित्वं च प्रसिद्धम्। कथम् इह साग्नेः सक्रियस्य च संन्यासित्वं योगित्वं च अप्रसिद्धमुच्यते इति। नैष दोषः कयाचित् गुणवृत्त्या उभयस्य संपिपादयिषितत्वात्। तत् कथम् कर्मफलसंकल्पसंन्यासात् संन्यासित्वम् योगाङ्गत्वेन च कर्मानुष्ठानात् कर्मफलसंकल्पस्य च चित्तविक्षेपहेतोः परित्यागात् योगित्वं च इति गौणमुभयम् न पुनः मुख्यं संन्यासित्वं योगित्वं च अभिप्रेतमित्येतमर्थँ दर्शयितुमाह

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।6.1।। श्रीभगवान् बोले -- कर्मफलका आश्रय न लेकर जो कर्तव्यकर्म करता है, वही संन्यासी तथा योगी है; और केवल अग्निका त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं होता तथा केवल क्रियाओंका त्याग करनेवाला योगी नहीं होता।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।6.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- जो पुरुष कर्मफल पर आश्रित न होकर कर्तव्य कर्म करता है, वह संन्यासी और योगी है, न कि वह जिसने केवल अग्नि का और क्रियायों का त्याग किया है।।