श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।

स बुद्धिमान् मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।4.18।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।4.18।।कर्मादिका वह तत्त्व क्या है जो कि जाननेयोग्य है जिसके लिये आपने यह प्रतिज्ञा की थी कि कहूँगा। इसपर कहते हैं जो कुछ किया जाय उस चेष्टामात्रका नाम कर्म है। उस कर्ममें जो अकर्म देखता है अर्थात् कर्मका अभाव देखता है तथा अकर्ममें शरीरादिकी चेष्टाके अभावमें जो कर्म देखता है। अर्थात् कर्मका करना और न करना दोनों ही कर्ताके अधीन हैं। तथा आत्मतत्त्वकी प्राप्तिसे पूर्व अज्ञानावस्थामें ही सब क्रियाकारक आदि व्यवहार है ( इसीलिये कर्मका त्याग भी कर्म ही है ) इस प्रकार जो अकर्ममें कर्म देखता है। वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है वह योगी है और वह समस्त कर्मोंको करनेवाला है इस प्रकार कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवालेकी स्तुति की जाती है। पू0 जो कर्ममें अकर्म देखता है और अकर्ममें कर्म देखता है यह विरुद्ध बात किस भावसे कही जा रही है क्योंकि कर्म तो अकर्म नहीं हो सकता और अकर्म कर्म नहीं हो सकता तब देखनेवाला विरुद्ध कैसे देखे उ0 वास्तवमें जो अकर्म है वही मूढमति लोगोंको कर्मके सदृश भास रहा है और उसी तरह कर्म अकर्मके सदृश भास रहा है उसमें यथार्थ तत्त्व देखनेके लिये भगवान्ने कर्मणि अकर्म यः पश्येत् इत्यादि वाक्य कहे हैं इसलिये ( उनका कहना ) विरुद्ध नहीं है क्योंकि बुद्धिमान् आदि विशेषण भी तभी सम्भव हो सकते हैं। इसके सिवा यथार्थ ज्ञानको ही जाननेयोग्य कहा जा सकता है ( मिथ्या ज्ञानको नहीं )। तथा जिसको जानकर अशुभसे मुक्त हो जायगा। यह भी कहा है सो विपरीत ज्ञानद्वारा ( जन्ममरणरूप ) अशुभसे मुक्ति नहीं हो सकती। सुतरां प्राणियोंने जो कर्म और अकर्मको विपरीतरूपसे समझ रक्खा है उस विपरीत ज्ञानको हटानेके लिये ही भगवान्के कर्मण्यकर्म यः इत्यादि वचन हैं। यहाँ कुण्डेमें बेरोंकी तरह कर्मका आधार अकर्म नहीं है और उसी तरह अकर्मका आधार कर्म भी नहीं है क्योंकि कर्मके अभावका नाम अकर्म है। इसलिये ( यही सिद्ध हुआ कि ) मृगतृष्णामें जलकी भाँति एवं सीपमें चाँदीकी तरह लोगोंने कर्म और अकर्मको विपरीत मान रक्खा है। पू0 कर्मको सब कर्म ही मानते हैं इसमें कभी फेरफार नहीं होता। उ0 यह बात नहीं क्योंकि नाव चलते समय नौकामें बैठे हुए पुरुषको तटके अचल वृक्षोंमें प्रतिकूल गतिदीखती है अर्थात् वे वृक्ष उलटे चलते हुए दीखते हैं और जो ( नक्षत्रादि ) पदार्थ नेत्रोंके पास नहीं होते बहुत दूर होते हैं उन चलते हुए पदार्थोंमें भी गतिका अभाव दीख पड़ता है अर्थात् वे अचल दीखते हैं। इसी तरह यहाँ भी अकर्ममें ( क्रियारहित आत्मामें ) मैं करता हूँ यह कर्मका देखना और ( त्यागरूप ) कर्ममें ( मैं कुछ नहीं करता इस ) अकर्मका देखना ऐसे विपरीत देखना होता है अतः उसका निराकरण करनेके लिये कर्मणि अकर्म यः पश्येत् इत्यादि वचन भगवान् कहते हैं। यद्यपि यह विषय अनेक बार शंकासमाधानोंद्वारा सिद्ध किया जा चुका है तो भी अत्यन्त विपरीत ज्ञानकी भावनासे अत्यन्त मोहित हुए लोग अनेक बार सुने हुए तत्त्वको भी भूलकर मिथ्या प्रसंग लालाकर शंका करने लग जाते हैं इसलिये तथा आत्मतत्त्वको दुर्विज्ञेय समझकर भगवान् पुनःपुनः उत्तर देते हैं। श्रुति स्मृति और न्यायसिद्ध जो आत्मामें कर्मोंका अभाव है वह अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम् न जायते म्रियते इत्यादि श्लोकोंसे कहा जा चुका और आगे भी कहा जायगा। उस क्रियारहित आत्मामें अर्थात् अकर्ममें कर्मका देखनारूप जो विपरीत दर्शन है यह लोगोंमें अत्यन्त स्वाभाविकसा हो गया है। क्योंकि कर्म क्या है और अकर्म क्या है इस विषयमें बुद्धिमान् भी मोहित हैं। अर्थात् देहइन्द्रियादिसे होनेवाले कर्मोंका आत्मामें अध्यारोप करके मैं कर्ता हूँ मेरा यह कर्म है मुझे इसका फल भोगना है इस प्रकार ( लोग मानते हैं। ) तथा मैं चुप होकर बैठता हूँ जिससे कि परिश्रमरहित और कर्मरहित होकर सुखी हो जाऊँ इस प्रकार देहइन्द्रियोंके व्यापारकी उपरामताका और उससे होनेवाले सुखीपनका आत्मामें अध्यारोप करके मैं कुछ भी नहीं करता हूँ चुपचाप सुखसे बैठा हूँ इस प्रकार लोग मानते हैं। लोगोंके इस विपरीत ज्ञानको हटानेके लिये कर्मणि अकर्म यः पश्येत् इत्यादि वचन भगवान्ने कहे हैं। यहाँ देहेन्द्रियादिके आश्रयसे होनेवाला कर्म यद्यपि क्रियारूप है तो भी उसका लोगोंने कर्मरहित अविक्रिय आत्मामें अध्यारोप कर रक्खा है क्योंकि शास्त्रज्ञ विद्वान् भी मैं करता हूँ ऐसा मान बैठता है। अतः नदीतीरस्थ वृक्षोंमें भ्रमसे प्रतिकूल गति प्रतीत होनेकी भाँति अज्ञानसे आत्माके नित्य सम्बन्धी माने जाकर जो लोकमें कर्म नामसे प्रसिद्ध हो रहे हैं उन कर्मोंमें वस्तुतः नदीतीरस्थ वृक्षोंमें गतिका अभाव देखनेकी भाँति जो अकर्म देखता है अर्थात् कर्माभाव देखता है तथा कर्मकी भाँति आत्मामें अज्ञानसे आरोपित किये हुए शरीर इन्द्रिय आदिकी उपरामतारूप अकर्ममें अर्थात् क्रियाके त्यागमें भी मैं कुछ न करता हुआ चुपचाप सुखपूर्वक बैठा हूँ इस अहंकारका सम्बन्ध होनेके कारण जो कर्म देखता है यानी उस त्यागको भी जो कर्म समझता है। इस प्रकार जो कर्म और अकर्मके विभागको ( तत्त्वसे ) जाननेवाला है वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् पण्डित है वह युक्त योगी है और सम्पूर्ण कर्म करनेवाला भी वही है अर्थात् वह पुण्यपापरूप अशुभसे मुक्त हुआ कृतकृत्य है। कई टीकाकार इस श्लोककी दूसरी तरहसे ही व्याख्या करते हैं। कैसे ईश्वरके लिये किये जानेवाले जो ( पञ्च महायज्ञादि ) नित्यकर्म हैं उनका फल नहीं मिलता इस कारण वे गौणी वृत्तिसे अकर्म कहे जाते हैं ( इसी प्रकार ) उन नित्यकर्मोंके न करनेका नाम अकर्म है वह भी पापरूप फलके देनेवाला होनेके कारण गौणरूपसे ही कर्म कहा जाता है। जैसे कोई गौ ब्यायी हुई होनेपर भी यदि दूधरूप फल नहीं देती तो वह अगौ कह दी जाती है वैसे ही नित्यकर्ममें उसके फलका अभाव होनेके कारण जो अकर्म देखता है और नित्यकर्मका न करनारूप जो अकर्म है उसमें कर्म देखता है क्योंकि वह नरकादि विपरीत फल देनेवाला है। यह व्याख्या ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार जाननेसे अशुभसे मुक्ति नहीं हो सकती अर्थात् जन्ममरणबन्धन नहीं टूट सकता। अतः यह अर्थ मान लेनेसे भगवान्के कहे हुए ये वचन कि जिसको जानकर तू अशुभसे मुक्त हो जायगा। कट जायँगे। क्योंकि नित्यकर्मोंके अनुष्ठानसे तो शायद अशुभसे छुटकारा हो भी जाय परंतु उन नित्यकर्मोंका फल नहीं होता इस ज्ञानसे तो मोक्ष हो ही नहीं सकता। क्योंकि नित्यकर्मोंका फल नहीं होता यह ज्ञान या नित्यकर्मोंका ज्ञान अशुभसे मुक्त कर देनेवाला है ऐसा शास्त्रोंमें कहीं नहीं कहा और न भगवान्ने ही गीताशास्त्रमें कहीं ऐसा कहा है। इसी युक्तिसे ( उनके बतलाये हुए ) अकर्ममें कर्मदर्शनका भी खण्डन हो जाता है। क्योंकि यहाँ ( गीतामें ) नित्यकर्मोंके अभावरूप अकर्ममें कर्म देखनेको कहीं कर्तव्यरूपसे विधान नहीं किया केवल नित्यकर्मकी कर्तव्यताका विधान है। इसके सिवा नित्यकर्म न करनेसे पाप होता है ऐसा जान लेनेसे ही कोई फल नहीं हो सकता। और यह नित्यकर्मका न करनारूप अकर्म शास्त्रोंमें कोई जाननेयोग्य विषय भी नहीं बताया गया है। तथा इस प्रकार दूसरे टीकाकारोंके माने हुए कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्मदर्शन रूप इस मिथ्यादर्शनसे अशुभसे मुक्ति बुद्धिमत्ता युक्तता सर्वकर्मकर्तृत्व इत्यादि फल भी सम्भव नहीं और ऐसे मिथ्याज्ञानकी स्तुति भी नहीं बन सकती। जब कि मिथ्याज्ञान स्वयं ही अशुभरूप है तब वह दूसरे अशुभसे किसीको कैसे मुक्त कर सकेगा क्योंकि अन्धकार ( कभी ) अन्धकारका नाशक नहीं हो सकता। पू0 यहाँ जो कर्ममें अकर्म देखना और अकर्ममें कर्म देखना ( उन टीकाकारोंने ) बतलाया है वह मिथ्याज्ञान नहीं है किंतु फलके होने और न होनेके निमित्तसे गौणरूपसे देखना है। उ0 यह कहना भी ठीक नहीं क्योंकि गौणरूपसे कर्मको अकर्म और अकर्मको कर्म जान लेनेसे भी कोई लाभ नहीं सुना गया। इसके सिवा श्रुतिसिद्ध बातको छोड़कर श्रुतिविरुद्ध बातकी कल्पना करनेमें कोई विशेषता भी नहीं दिखलायी देती। ( भगवान्को यदि यही अभीष्ट होता तो वे ) उसी प्रकारके शब्दोंसे भी स्पष्ट कह सकते थे कि नित्यकर्मोंका कोई फल नहीं है और उनके न करनेसे नरकप्राप्ति होती है। फिर इस प्रकार कर्ममें जो अकर्म देखता है इत्यादि दूसरोंको मोहित करनेवाले मायायुक्त वचन कहनेसे क्या प्रयोजन था। इस प्रकार उपर्युक्त अर्थ करनेवालोंका तो स्पष्ट ही यह मानना हुआ कि भगवान्द्वारा कहे हुए वचन संसारको मोहित करनेके लिये हैं। इसके सिवा न तो यह कहना ही उचित है कि यह नित्यकर्मअनुष्ठानरूप विषय मायायुक्त वचनोंसे गुप्त रखनेयोग्य है और न यही कहना ठीक है कि ( यह विषय बड़ा गहन है इसलिये ) बारंबार दूसरेदूसरे शब्दोंद्वारा कहनेसे सुबोध होगा। क्योंकि कर्मण्येवाधिकारस्ते इस श्लोकमें स्पष्ट कहे हुए अर्थको फिर कहनेकी आवश्यकता नहीं होती। तथा सभी जगह जो बात करनेयोग्य होती है वही प्रशसंनीय और जाननेयोग्य बतलायी जाती है। निरर्थक बातको जाननेयोग्य है ऐसा नहीं कहा जाता। मिथ्याज्ञान या उसके द्वारा स्थापित की हुई आभासमात्र वस्तु जाननेयोग्य नहीं हो सकती। इसके सिवा नित्यकर्मोंके न करनेरूप अभावसे प्रत्यवायरूप भावकी उत्पत्ति भी नहीं हो सकती। क्योंकि नासतो विद्यते भावः इत्यादि भगवान्के वाक्य हैं तथा असत्से सत् कैसे उत्पन्न हो सकता है इत्यादि श्रुतिवाक्य भी पहले दिखलाये जा चुके हैं। इस प्रकार असत्से सत्की उत्पत्तिका निषेध कर दिया जानेपर भी जो असत्से सत्की उत्पत्ति बतलाते हैं उनका तो यह कहना हुआ कि असत् तो सत् होता है और सत् असत् होता है परंतु यह सब प्रमाणोंसे विरुद्ध होनेके कारण अयुक्त है। तथा शास्त्र भी निरर्थक कर्मोंका विधान नहीं कर सकता क्योंकि सभी कर्म ( परिश्रमकी दृष्टिसे ) दुःख रूप हैं और जानबूझकर ( बिना प्रयोजन ) किसीका भी दुःखमें प्रवृत्त होना सम्भव नहीं। तथा उन नित्यकर्मोंको न करनेसे नरकप्राप्ति होती है ऐसा शास्त्रका आशय मान लेनेपर तो यह मानना हुआ कि कर्म करने और न करनेमें दोनों प्रकारसे शास्त्र अनर्थका ही कारण है अतः व्यर्थ है। इसके सिवा नित्यकर्मोंका फल नहीं है ऐसा मानकर फिर उनको मोक्षरूप फलके देनेवाला कहनेसे उन व्याख्याकारोंके मतमें स्वचोविरोध भी होता है। सुतरां कर्मणि अकर्म यः पश्येत् इत्यादि श्लोकका अर्थ जैसा ( गुरुपरम्परासे ) सुना गया है वही ठीक है और हमने भी उसीके अनुसार इस श्लोककी व्याख्या की है।

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।4.18।। कर्मणि क्रियते इति कर्म व्यापारमात्रम् तस्मिन् कर्मणि अकर्म कर्माभावं यः पश्येत् अकर्मणि च कर्माभावे कर्तृतन्त्रत्वात् प्रवृत्तिनिवृत्त्योः वस्तु अप्राप्यैव हि सर्व एव क्रियाकारकादिव्यवहारः अविद्याभूमौ एव कर्म यः पश्येत् पश्यति सः बुद्धिमान् मनुष्येषु सः युक्तः योगी च कृत्स्नकर्मकृत् समस्तकर्मकृच्च सः इति स्तूयते कर्माकर्मणोरितरेतरदर्शी।।

ननु किमिदं विरुद्धमुच्यते कर्मणि अकर्म यः पश्येत् इति अकर्मणि च कर्म इति न हि कर्म अकर्म स्यात् अकर्म वा कर्म। तत्र विरुद्धं कथं पश्येत् द्रष्टा न अकर्म एव परमार्थतः सत् कर्मवत् अवभासते मूढदृष्टेः लोकस्य तथा कर्मैव अकर्मवत्। तत्र यथाभूतदर्शनार्थमाह भगवान् कर्मण्यकर्म यः पश्येत् (गीता 4.18) इत्यादि। अतो न विरुद्धम्। बुद्धिमत्त्वाद्युपपत्तेश्च। बोद्धव्यम् इति च यथाभूतदर्शनमुच्यते। न च विपरीतज्ञानात् अशुभात् मोक्षणं स्यात् यत् ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् (गीता 4.16) इति च उक्तम्। तस्मात् कर्माकर्मणी विपर्ययेण गृहीते प्राणिभिः तद्विपर्ययग्रहणनिवृत्त्यर्थं भगवतो वचनम् कर्मण्यकर्म यः इत्यादि। न च अत्र कर्माधिकरणमकर्म अस्ति कुण्डे बदराणीव। नापि अकर्माधिकरणंकर्मास्ति कर्माभावत्वादकर्मणः। अतः विपरीतगृहीते एव कर्माकर्मणी लौकिकैः यथा मृगतृष्णिकायामुदकं शुक्तिकायां वा रजतम्। ननु कर्म कर्मैव सर्वेषां न क्वचित् व्यभिचरति तत् न नौस्थस्य नावि गच्छन्त्यां तटस्थेषु अगतिषु नगेषु प्रतिकूलगतिदर्शनात् दूरेषु चक्षुषा असंनिकृष्टेषु गच्छत्सु गत्यभावदर्शनात् एवम् इहापि अकर्मणि कर्मदर्शनं कर्मणि च अकर्मदर्शनं विपरीतदर्शनं येन तन्निराकरणार्थमुच्यतेकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यादि।।तदेतत् उक्तप्रतिवचनमपि असकृत् अत्यन्तविपरीतदर्शनभाविततया मोमुह्यमानो लोकः श्रुतमपि असकृत् तत्त्वं विस्मृत्य विस्मृत्य मिथ्याप्रसङ्गम् अवतार्यावतार्य चोदयति इति पुनः पुनः उत्तरमाह भगवान् दुर्विज्ञेयत्वं च आलक्ष्य वस्तुनः।अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयम् न जायते म्रियते इत्यादिना आत्मनि कर्माभावः श्रुतिस्मृतिन्यायप्रसिद्धः उक्तः वक्ष्यमाणश्च। तस्मिन् आत्मनि कर्माभावे अकर्मणि कर्मविपरीतदर्शनम् अत्यन्तनिरूढम् यतः किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः (गीता 4.16)। देहाद्याश्रयं कर्म आत्मन्यध्यारोप्य अहं कर्ता मम एतत् कर्म मया अस्य कर्मणः फलं भोक्तव्यम् इति च तथा अहं तूष्णीं भवामि येन अहं निरायासः अकर्मा सुखी स्याम् इति कार्यकरणाश्रयं व्यापारोपरमं तत्कृतं च सुखित्वम् आत्मनि अध्यारोप्य न करोमि किंचित् तूष्णीं सुखमासे इति अभिमन्यते लोकः। तत्रेदं लोकस्य विपरीतदर्शनापनयाय आह भगवान् कर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यादि।।अत्र च कर्म कर्मैव सत् कार्यकरणाश्रयं कर्मरहिते अविक्रिये आत्मनि सर्वैः अध्यस्तम् यतः पण्डितोऽपि अहं करोमि इति मन्यते। अतः आत्मसमवेततया सर्वलोकप्रसिद्धे कर्मणि नदीकूलस्थेष्विव वृक्षेषु गतिप्रातिलोम्येन अकर्म कर्माभावं यथाभूतं गत्यभावमिव वृक्षेषु यः पश्येत् अकर्मणि च कार्यकरणव्यापारोपरमे कर्मवत् आत्मनि अध्यारोपिते तूष्णीं अकुर्वन् सुखंआसे इत्यहंकाराभिसंधिहेतुत्वात् तस्मिन् अकर्मणि च कर्म यः पश्येत् यः एवं कर्माकर्मविभागज्ञः सः बुद्धिमान् पण्डितः मनुष्येषु सः युक्तः योगी कृत्स्नकर्मकृच्च सः अशुभात् मोक्षितः कृतकृत्यो भवति इत्यर्थः।।अयं श्लोकः अन्यथा व्याख्यातः कैश्चित्। कथम् नित्यानां किल कर्मणाम् ईश्वरार्थे अनुष्ठीयमानानां तत्फलाभावात् अकर्माणि तानि उच्यन्ते गौण्या वृत्त्या। तेषां च अकरणम् अकर्म तच्च प्रत्यवायफलत्वात् कर्म उच्यते गौण्यैव वृत्त्या। तत्र नित्ये कर्मणि अकर्म यः पश्येत् फलाभावात् यथा धेनुरपि गौः अगौः इत्युच्यते क्षीराख्यं फलं न प्रयच्छति इति तद्वत्। तथा नित्याकरणे तु अकर्मणि च कर्म यः पश्येत् नरकादिप्रत्यवायफलं प्रयच्छति इति।।नैतत् युक्तं व्याख्यानम्। एवं ज्ञानात् अशुभात् मोक्षानुपपत्तेः यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् इति भगवता उक्तं वचनं बाध्येत। कथम् नित्यानामनुष्ठानात् अशुभात् स्यात् नाम मोक्षणम् न तु तेषां फलाभावज्ञानात्। न हि नित्यानां फलाभावज्ञानम् अशुभमुक्तिफलत्वेन चोदितम् नित्यकर्मज्ञानं वा। न च भगवतैवेहोक्तम्। एतेन अकर्मणि कर्मदर्शनं प्रत्युक्तम्। न हि अकर्मणि कर्म इति दर्शनं कर्तव्यतया इह चोद्यते नित्यस्य तु कर्तव्यतामात्रम्। न च अकरणात् नित्यस्य प्रत्यवायो भवति इति विज्ञानात् किञ्चित् फलं स्यात्। नापि नित्याकरणं ज्ञेयत्वेन चोदितम्। नापि कर्म अकर्म इति मिथ्यादर्शनात् अशुभात् मोक्षणं बुद्धिमत्त्वं युक्तता कृत्स्नकर्मकृत्त्वादि च फलम् उपपद्यते स्तुतिर्वा। मिथ्याज्ञानमेव हि साक्षात् अशुभरूपम्। कुतः अन्यस्मादशुभात् मोक्षणम् न हि तमः तमसो निवर्तकं भवति।।ननु कर्मणि यत् अकर्मदर्शनम् अकर्मणि वा कर्मदर्शनं न तत् मिथ्याज्ञानम् किं तर्हि गौणं फलभावाभावनिमित्तम् न कर्माकर्मविज्ञानादपि गौणात् फलस्य अश्रवणात्। नापि श्रुतहान्यश्रुतपरिकल्पनायां कश्चित् विशेष उपलभ्यते। स्वशब्देनापि शक्यं वक्तुम् नित्यकर्मणां फलं नास्ति अकरणाच्च तेषां नरकपातः स्यात् इति तत्र व्याजेन परव्यामोहरूपेणकर्मण्यकर्म यः पश्येत् इत्यादिना किम् तत्र एवं व्याचक्षाणेन भगवतोक्तं वाक्यं लोकव्यामोहार्थमिति व्यक्तं कल्पितं स्यात्। न च एतत् छद्मरूपेण वाक्येन रक्षणीयं वस्तु नापि शब्दान्तरेण पुनः पुनः उच्यमानं सुबोधं स्यात् इत्येवं वक्तुं युक्तम्। कर्मण्येवाधिकारस्ते इत्यत्र हि स्फुटतर उक्तः अर्थः न पुनर्वक्तव्यो भवति। सर्वत्र च प्रशस्तं बोद्धव्यं च कर्तव्यमेव। न निष्प्रयोजनं बोद्धव्यमित्युच्यते।।न च मिथ्याज्ञानं बोद्धव्यं भवति तत्प्रत्युपस्थापितं वा वस्त्वाभासम्। नापि नित्यानाम् अकरणात् अभावात् प्रत्यवायभावोत्पत्तिः नासतो विद्यते भावः (गीता 2.16) इति वचनात् कथं असतः सज्जायेत (बृ0 उ0 6.2.2) इति च दर्शितम् असतः सज्जन्मप्रतिषेधात्। असतः सदुत्पत्तिं ब्रुवता असदेव सद्भवेत् सच्चापि असत् भवेत् इत्युक्तं स्यात्। तच्च अयुक्तम्सर्वप्रमाणविरोधात्। न च निष्फलं विदध्यात् कर्म शास्त्रम् दुःखस्वरूपत्वात् दुःखस्य च बुद्धिपूर्वकतया कार्यत्वानुपपत्तेः। तदकरणे च नरकपाताभ्युपगमात् अनर्थायैव उभयथापि करणे च अकरणे च शास्त्रं निष्फलं कल्पितं स्यात्। स्वाभ्युपगमविरोधश्च नित्यं निष्फलं कर्म इति अभ्युपगम्य मोक्षफलाय इति ब्रुवतः। तस्मात् यथाश्रुत एवार्थः कर्मण्यकर्म यः इत्यादेः। तथा च व्याख्यातः अस्माभिः श्लोकः।।तदेतत् कर्मणि अकर्मदर्शनं स्तूयते

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।4.18।। जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है,  योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला  है।

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।4.18।। जो पुरुष कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है,  वह मनुष्यों में बुद्धिमान है,  वह योगी सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है।।
 

English Translation By Swami Gambirananda

4.18 He who finds inaction in action, and action in inaction, he is the wise one [Possessed of the knowledge of Brahman] among men; he is engaged in yoga and is a performer of all actions!