श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

अर्जुन उवाच

प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च।

एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव।।13.1।।

 

Hindi Commentary By Swami Ramsukhdas

।।13.1।। No Commentary

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।13.1।।No translation.

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta



।।13.1।।No commentary.

Hindi Commentary By Swami Chinmayananda

।।13.1।। गीता की अनेक पाण्डुलिपियों में यह श्लोक नहीं मिलता है? जबकि कुछ अन्य हस्तलिपियों में यह अर्जुन की जिज्ञासा के रूप में दिया हुआ है।प्रकृति और पुरुष भारतीय सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि जी ने जड़ और चेतन तत्त्वों का निर्देश क्रमश प्रकृति और पुरुष इन दो शब्दों से किया है। इन दोनों के संयोग से ही उस सृष्टि का निर्माण हुआ है इन्हें अर्जुन जानना चाहता है।क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ इन दो शब्दों का अर्थ इस अध्याय की प्रस्तावना में स्पष्ट किया गया है।ज्ञान और ज्ञेय इस अध्याय में ज्ञान शब्द से तात्पर्य उस शुद्धान्तकरण से हैं? जिसके द्वारा ही आत्मतत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। यह आत्मा ही ज्ञेय अर्थात् जानने योग्य वस्तु है।अर्जुन की इस जिज्ञासा के उत्तर को जानना सभी साधकों को लाभदायक होगा।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।13.1।। No Translation

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।13.1।। अर्जुन ने कहा -- हे केशव ! मैं, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय को जानना चाहता हूँ।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।13.1।। -- No Commentary