श्री भगवानुवाच
भूय एव महाबाहो श्रृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया।।10.1।।
श्रीमद् भगवद्गीता
।।10.1।।सातवें और नवें अध्यायमें भगवान्के तत्त्वका और विभूतियोंका वर्णन किया गया। अब जिनजिन भावोंमें भगवान् चिन्तन किये जाने योग्य हैं उनउन भावोंका वर्णन किया जाना चाहिये। यद्यपि भगवान्का तत्त्व पहले कहा गया है परंतु दुर्विज्ञेय होनेके कारण फिर भी उसका वर्णन होना चाहिये? इसलिये श्रीभगवान् बोले --, हे महाबाहो फिर भी तू मेरे परम उत्तम निरतिशय वस्तुको प्रकाशित करनेवाले वाक्य सुन? जो कि मैं तुझ प्रसन्न होनेवालेके हितकी इच्छासे कहूँगा। मेरे वचनोंको सुनकर तू अमृतपान करता हुआसा अत्यन्त प्रसन्न होता है? इसीलिये मैं तुझसे यह परम वाक्य कहने लगा हूँ।
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।।10.1 -- 10.5।।प्राक्तनैर्नवभिरध्यायैर्य एवार्थो लक्षितः? स एव प्रतिपदपाठैरस्मिन्नध्याये प्रतायते। तथा चाह -- भूय एव इति। उक्तमेवार्थं स्फुटीकर्तुं (?N?K विस्पष्टीकर्तुं) पुनः कथ्यमानं श्रृण्विति। अर्जुनोऽपि एवमेवाभिधास्यति भूयः कथय (X? 18) इति। इत्यध्यायतात्पर्यम्। शिष्टं निगदव्याख्यातमिति ( -- व्याख्यानमिति) किं पुनरुक्तेन सन्दिग्धं तु निर्णेष्यते।भूय इत्यादि पृथग्विधा इत्यन्तम्। असंमोहः उत्साहः।
।।10.1।। श्रीभगवान् बोले -- हे महाबाहो अर्जुन ! मेरे परम वचनको तुम फिर भी सुनो, जिसे मैं तुम्हारे हितकी कामनासे कहूँगा; क्योंकि तुम मेरेमें अत्यन्त प्रेम रखते हो।
।।10.1।। श्रीभगवान् ने कहा -- हे महाबाहो ! पुन: तुम मेरे परम वचनों का श्रवण करो, जो मैं तुझ अतिशय प्रेम रखने वाले के लिये हित की इच्छा से कहूँगा।।
।।10.1।। --,भूयः एव भूयः पुनः हे महाबाहो श्रृणु मे मदीयं परमं प्रकृष्टं निरतिशयवस्तुनः प्रकाशकं वचः वाक्यं यत् परमं ते तुभ्यं प्रीयमाणाय -- मद्वचनात् प्रीयसे त्वम् अतीव अमृतमिव पिबन्? ततः -- वक्ष्यामि हितकाम्यया हितेच्छया।।किमर्थम् अहं वक्ष्यामि इत्यत आह --,