श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

श्री भगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।

अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन।।2.2।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.2।।No such translation is available. Translation starts from 2.10

Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।2.2।।कुत इति। आदो लोकव्यवहाराश्रयेणैव भगवान् अर्जुनं प्रतिबोधयति। क्रमात्तु ज्ञानं करिष्यति इत्यतः अनार्यजुष्टमित्याह।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.2।। श्रीभगवान् बोले (टिप्पणी प0 38.1) - हे अर्जुन! इस विषम अवसरपर तुम्हें यह कायरता कहाँसे प्राप्त हुई, जिसका कि श्रेष्ठ पुरुष सेवन नहीं करते, जो स्वर्गको देनेवाली नहीं है और कीर्ति करनेवाली भी नहीं है।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.2।। श्री भगवान् ने कहा -- हे अर्जुन ! तुमको इस विषम स्थल में यह मोह कहाँ से उत्पन्न हुआ?  यह आर्य आचरण के विपरीत न तो स्वर्ग प्राप्ति का साधन ही है और न कीर्ति कराने वाला ही है।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

2.2 Sri Sankaracharya did not comment on this sloka. The commentary starts from 2.10.