श्रीमद् भगवद्गीता

मूल श्लोकः

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।2.38।।

 

Hindi Translation Of Sri Shankaracharya's Sanskrit Commentary By Sri Harikrishnadas Goenka

।।2.38।।युद्ध स्वधर्म है यह मानकर युद्ध करनेवालेके लिये यह उपदेश है सुन

सुखदुःखको समान तुल्य समझकर अर्थात् ( उनमें ) रागद्वेष न करके तथा लाभहानिको और जयपराजयको समान समझकर उसके बाद तू युद्धके लिये चेष्टा कर इस तरह युद्ध करता हुआ तू पापको प्राप्त नहीं होगा। यह प्रासङ्गिक उपदेश है।
स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्यादि श्लोकोंद्वारा शोक और मोहको दूर करनेके लिये लौकिक न्याय बतलाया गया है परंतु पारमार्थिक दृष्टिसे यह बात नहीं है।
यहाँ प्रकरण परमार्थदर्शनका है जो कि पहले ( श्लोक 30 ) तक कहा गया है। अब शास्त्रके विषयका विभाग दिखलानेके लिये एषा तेऽभिहिता इस श्लोकद्वारा उस ( परमार्थदर्शन ) का उपसंहार करते हैं।



Sanskrit Commentary By Sri Abhinavgupta

।।2.34 2.38।।यद्भयाच्च भवान् युद्धात् निवर्तते (K निवर्तेत) तदेव शतशाखमुपनिपतिष्यति भवत इत्याह
अथ चेत्यादि। श्लोकपञ्चकमिदम् अभ्युपगम्यवादरूपमुच्यते ( N उपगम्य) यदि लौकिकेन व्यवहारेणास्ते भवान् तथाप्यवश्यानुष्ठेयमेतत्।

Hindi Translation By Swami Ramsukhdas

।।2.38।। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दुःखको समान करके फिर युद्धमें लग जा। इस प्रकार युद्ध करनेसे तू पापको प्राप्त नहीं होगा।
 

Hindi Translation By Swami Tejomayananda

।।2.38।। सुख-दु:ख,  लाभ-हानि और जय-पराजय को समान करके युद्ध के लिये तैयार हो जाओ;  इस प्रकार तुमको पाप नहीं होगा।।
 

Sanskrit Commentary By Sri Shankaracharya

।।2.38।।

 सुखदुःखे समे  तुल्ये  कृत्वा  रागद्वेषावप्यकृत्वेत्येतत्। तथा लाभालाभौ जयाजयौ च समौ कृत्वा  ततो युद्धाय युज्यस्व  घटस्व।  न एवं  युद्धं कुर्वन्  पापम् अवाप्स्यसि । इत्येष उपदेशः प्रासङ्गिकः।।
शोकमोहापनयनाय लौकिको न्यायः स्वधर्ममपि चावेक्ष्य इत्याद्यैः श्लोकैरुक्तः न तु तात्पर्येण। परमार्थदर्शनमिह प्रकृतम्। तच्चोक्तमुपसंह्रियते एषा तेऽभिहिता (गीता 2.39) इति शास्त्रविषयविभागप्रदर्शनाय। इह हि प्रदर्शिते पुनः शास्त्रविषयविभागे उपरिष्टात् ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् इति निष्ठाद्वयविषयं शास्त्रं सुखं प्रवर्तिष्यते श्रोतारश्च विषयविभागेन सुखं ग्रहीष्यन्ति इत्यत आह